नीतीश के लिए चुनौती, लालू के लिए अवसर

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श्रीकांत प्रत्यूष, संपादक, प्रत्यूष नवबिहार :

जेपी के दायें-बाएँ खड़े रहनेवाले उनके दोनों चेले लालू-नीतीश सत्ता के लिए आपस में पिछले दो दशक से लड़ते रहने के वावजूद अगर आज एकसाथ खड़े हैं तो बिहार की राजनीति तो बदलेगी ही।

बीजेपी अपने दम पर लालू को जब सत्ता से बे-दखल नहीं कर पायी तो उसने नीतीश कुमार का साथ देकर लालू को सत्ता से बेदखल किया और अब जब खुद नीतीश कुमार उसके लिए चुनौती बन गये तो उन्हें निबटाने की तैयारी कर ली। लेकिन दशकों तक एक दूसरे के खून के प्यासे सामाजिक न्याय के ये दो बड़े पुरोधा के एक बार फिर से एक साथ हो जाने से, बीजेपी के लिए अबतक आसान दिख रहा विधानसभा का चुनाव बहुत कठिन हो गया है।

दरअसल लालू यादव के नीतीश कुमार को शुरू में अपना नेता नहीं मानने के पीछे अपने समर्थक मतदाताओं को मजबूती के साथ अपने साथ जोड़े रखने की उनकी रणनीति थी। और आगे चलकर नीतीश कुमार को अपना नेता मान लेने के पीछे भी उनका मकसद अपने गठबंधन को उस बीजेपी के मुकाबले ज्यादा भरोसेमंद बनाना है, जिसके पास नीतीश के मुकाबले का कोई चेहरा नहीं है। वैसे भी अगर लालू यादव राजनीति के तकाजे को नहीं समझते तो उनके अलग थलग पड़ जाने का खतरा था, क्योंकि वाम दल से लेकर कांग्रेस तक नीतीश कुमार के साथ खड़े थे। मौजूदा हालात में अगर नीतीश-लालू कांग्रेस, वाम दलों और एनसीपी को साथ लेकर चलने की अपनी रणनीति में कामयाब हो जाते हैं तो एक ऐसा मजबूत सेकुलर मोर्चा तैयार हो जायेगा, जिससे निबटाना बीजेपी के लिए आसान काम नहीं होगा।

रविवार को गठबंधन की घोषणा करते हुए यही कहा गया कि मुख्य मन्रीजि पद पर फैसला बाद में किया जायेगा, लेकिन गठबंधन से जुड़े सभी अनुभवी नेता यह बखूबी समझ रहे थे कि मुख्य मन्त्री पद पर सहमति बनाये बगैर वे इस घोषणा को मतदाताओं की नजर में विश्वसनीय नहीं बना पायेंगे। विरोधी भी गठबंधन पर सबसे करारा हमला यही कहते हुए करेंगे कि जो गठबंधन अपना मुख्य मन्त्री नहीं तय कर सकता वह देश और प्रदेश हित से जुड़े फैसले भला कहाँ से करेगा?  मगर नीतीश को मुख्य मन्त्री प्रत्याशी घोषित कर गठबंधन ने एक बड़ा मोर्चा फतह कर लिया है। बेशक, सीटों के बंटवारे का सवाल अभी हल नहीं हुआ है, लेकिन छह सदस्यों की एक संयुक्त समिति बना कर यह काम उसे सौंप दिया गया है और उम्मीद है यह मसाला भी बहुत जल्द हल हो जायेगा।

केवल ज्यादा से ज्यादा सीटें ले लेने में इस गठबंधन की सफलता निहित नहीं है। नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों को ईमानदारी के साथ सीटों का बंटवारा करना होगा और इस बात का ध्यान रखना होगा कि किस सीट से किसका उम्मीदवार निश्चित रूप से चुनाव जीत सकता है। ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़कर ज्यादा से ज्यादा सीटों पर हारने से अच्छा है, कम सीटों पर लड़ना और ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतना ।

सीटों के बंटवारे के लिए समिति गठित की गई है और उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह हर सीट पर कोई सर्वमान्य प्रत्याशी तय करेगी। बीजेपी के मुकाबले खुद को बेहतर विकल्प के रूप में पेश करने के लिए इस गठबंधन को अभी बहुत कुछ करना है, लेकिन नीतीश कुमार को अपना नेता बनाकर इस गठबंधन ने जीत की राह पर अपना पहला कदम बढ़ा दिया है। मुलायम यादव ने नीतीश-लालू को एक साथ खड़ा करके और गठबंधन के नेता के रूप में नीतीश कुमार के चेहरे को आगे करके बीजेपी के रणनीतिकारों की परेशानी बढ़ा दी है। यहाँ से आगे लोगों का ध्यान बीजेपी गठबंधन की परेशानियों पर ज्यादा रहेगा, जहाँ हर सीट की उम्मीदवारी से लेकर मुख्य मन्त्री पद तक हालात कुछ बेहतर नहीं हैं। नीतीश कुमार और लालू यादव के एक साथ होने से बीजेपी की मुश्किलें तो बढ़ गयी हैं, लेकिन इनके मिलन से वंचितों और दलितों के सबलीकरण का रास्ता किस हद तक प्रशस्त होगा, यह तो उनके सत्ता में आने के बाद के राजकाज के तरीके सामने आने के बाद ही पता चल पायेगा।

ये गठबंधन केवल बीजेपी के लिए नहीं बल्कि नीतीश कुमार के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है, वहीं लालू यादव के लिए बहुत बड़ा अवसर भी है। नीतीश कुमार के सामने लालू यादव के साथ सरकार चलाकर सुशासन के अपने एजेंडे पर आगे बढ़ते रहने की चुनौती है, वहीं लालू प्रसाद के पास नीतीश कुमार को सुशासन की स्थापना में सहयोग करके अपने ऊपर जंगल राज चलाने के विपक्ष के सारे आरोपों को एक झटके में धो-पोछ देने का बढ़िया अवसर भी है।

(देश मंथन 10 जून 2015)

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