संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
अपने दोस्तों से जब मैं बिहार की दुर्दशा की चर्चा करता हूँ और कहता हूँ कि अब बिहार में सत्ता बदलनी चाहिए, तो मेरे साथी मेरी ओर हैरत भरी निगाहों से देखने लगते हैं, और पूछने लगते हैं कि संजय सिन्हा, कहीं तुम भाजपाई तो नहीं हो गये?
बड़ी अजीब स्थिति है। अगर मैं चाहता हूँ कि नये लोग आगे आएँ और बिहार को उस शाप से मुक्ति दिलाएँ, जिसमें बिहारी होना शर्मनाक माना जाने लगा है, तो मेरे ही दोस्त कहने लगते हैं कि मैं भाजपाई हो गया हूँ।
मतलब जो भाजपाई नहीं, उन्हें बिहार में बदलाव की कामना नहीं करनी चाहिए?
मैं सौ बार लिख चुका हूँ कि मैं न तो कांग्रेसी हूँ, न भाजपाई, न समाजवादी, न राष्ट्रीय जनता दली। पेशे से मैं पत्रकार हूँ और एक पत्रकार को जितनी राजनीति की समझ होती है, उतनी ही मुझे भी है। मेरी दिलचस्पी राजनीति में नहीं है, पर मेरी दिलचस्पी अपने जन्म प्रदेश में है। मेरी दिलचस्पी अपने देश में है। मेरी दिलचस्पी मानव समुदाय में है। और अपनी इसी दिलचस्पी की वजह से मुझे लगता है कि बिहार में सत्ता बदलनी चाहिए थी।
जब मैं ऐसा कहता हूँ, तो मेरे कुछ साथी सिर्फ मेरा विरोध करने के लिए, अपना ज्ञान बघारने के लिए मुझे याद दिलाने लगते हैं कि संजय, याद करो, आज से तीस साल पहले बिहार में कितनी गरीबी थी, आज से तीस साल पहले कई जगहों पर महिलाएँ वोट तक नहीं दे पाती थीं, बिहार अति पिछड़ा राज्य था, गरीबों का शोषण होता था, सामाजिक विषमता इतनी थी कि पूछो मत। गाँवों की तो दुर्दशा ही थी। कुछ लोग तो कम्यूटर स्क्रीन पर आंकड़े दिखाने लगते हैं कि पहले 70% गांवों में लाइट नहीं थी, आज सिर्फ 22% गांवों में लाइट नहीं है। बिहार में अपहरण एक उद्योग बन चुका था, जो अब कम हो गया है, और कुछ उपलब्धियाँ गिना दी जाती हैं।
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बड़ी मुश्किल स्थिति है। अगर मैं यह कहूँ कि बिहार में असल विकास हुआ ही नहीं है, तो मैं भाजपाई हो जाता हूँ। जब मैं कहता हूँ कि बतौर ब्रांड बिहार का सबसे ज्यादा नुकसान पिछले तीस सालों में हुआ है, पिछले तीस सालों में बिहार में शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा का स्तर गिरा है और ऐसे में सरकार बदलनी चाहिए, तो मेरे ही दोस्त फिल्म दीवार के अमिताभ बच्चन बन जाते हैं और अपनी कलाई मुझे दिखाने लगते हैं कि ‘जाओ पहले उस आदमी के दस्तखत लेकर आओ, जिसने यहाँ लिख दिया कि मेरा बाप चोर है।’
आपको याद होगा कि अमिताभ बच्चन फिल्म दीवार में तस्कर बन जाते हैं और जब उनके छोटे भाई शशि कपूर उनसे कहते हैं कि वो पुलिस के सामने सरेंडर कर दें, और अपना गुनाह कबूल कर लें, तो अमिताभ बच्चन अपनी कलाई दिखाते हैं कि पहले उसे पकड़ो जिसने मेरी कलाई पर ये लिखा।
मतलब अपने तस्कर बनने की वाजिब वजह उनके पास पहले से मौजूद है। क्योंकि उन्हें जमाने ने सताया है, इसलिए उन्हें गलत काम करने का हक मिल गया है।
क्योंकि बिहार में कभी किसी ने किसी को सताया होगा, इसलिए सामाजिक न्याय की आड़ में वहाँ सब कुछ जायज हो गया।
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मैं बिहार के चप्पे-चप्पे में घूमा हूँ। मैं बिहार की गलियों में जवान हुआ हूँ। मेरा यकीन कीजिए तीस साल पहले बिहार इतना बुरा नहीं था। बिहारी कहे जाने से शर्म का बोध नहीं होता था। और देश जब से आजाद हुआ है, तब से वहाँ उन्हीं पार्टियों की सरकार रही है, जिसे आज वो ‘महागठबंधन’ कह रहे हैं। फिर तो बिहार में जो है, उन सबके लिए अगर राजनीतिक पार्टियों को जिम्मेदार माना जाए, तो वही जिम्मेदार हुए न?
ऐसे में अगर बिहार में सत्ता बदलने से स्थिति बदलने की बात मैं कहूँ तो मैं भाजपाई हो गया?
मैंने कहा न कि मैं किसी पार्टी का शुभचिंतक नहीं हूँ। मैं एक राज्य का शुभचिंतक हूँ। वहाँ के लोगों का शुभचिंतक हूँ। मेरी दिलचस्पी अपने जन्म प्रदेश में है। मैं चाहता हूँ कि जब मुझे कोई बिहारी कहे, तो सम्मान से कहे।
मैंने कल अपनी पोस्ट में लिखा था कि दरअसल बिहार पहले इतना बुरा नहीं था। जो स्थिति गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों की थी, वही हाल बिहार का भी था। बल्कि शिक्षा के मामले में बिहार अव्वल था। स्वास्थ्य का हाल भी इतना बुरा नहीं था। हर जिले में एक सदर अस्पताल हुआ करता था, जहाँ ठीक-ठाक इलाज होता था। महिलाओं की स्थिति अच्छी थी। वो सुरक्षित थीं। बिहार में बलात्कार की घटनाएं नहीं हुआ करती थीं।
माँ और बहन शब्द के बहुत मायने थे। अनजान से अनजान लोग भी महिलाओं को चाची, फुआ, अम्मा, दीदी कह कर बुलाया करते थे और जब ऐसा कहते थे, तब इन शब्दों की इज्जत भी करना जानते थे।
राजनीतिक शोहदों की बात छोड़ दूँ, तो मैं आज भी दावे से कह सकता हूँ कि बिहार में आम आदमी महिलाओं को इज्जत देना जानता है। किसी बिहारी के मुँह से अगर किसी के लिए बहन शब्द निकल जाता है, तो उस शब्द की मर्यादा का वो पालन करता है। बिहार में आज भी माँ-बहन की गाली बहुत बड़ी गाली होती है। दिल्ली में तो लोग मजाक में बहन की गाली देते फिरते हैं।
उस बिहार का होने के कारण अगर शर्मसार कोई होता है तो यकीनन एक ब्रांड वैल्यू का दोष है। बिहार में जो भी स्थिति आज है, वह सोची समझी साजिश के तहत बनाई हुई है। मैंने पहले भी अपनी एक पोस्ट में लिखा था कि जब मैं स्कूल में पढ़ता था तब एक बार मैं जयप्रकाश नारायण के घर उनसे मिलने चला गया था। जेपी तब बीमार थे। मैं उनके सामने काफी देर बैठा रहा था। मुझे बहुत हैरानी हुई थी यह देख कर कि जिस जेपी ने छात्र आंदोलन का आह्वान किया था, जिस जेपी ने छात्रों से पढ़ाई छोड़ कर जन आंदोलन को जन्म देने की गुहार लगाई थी, उसी जेपी ने तीन-चार साल बाद मुझसे कहा था कि तुम पढ़ाई करना। पढ़ाई मत छोड़ना।
मतलब जेपी ने भी देख लिया था कि बिहार कहाँ जाने वाला है। कल किसी ने मेरी वाल पर ही मुझे बताया था कि बिहार में बिना अंग्रेजी के मैट्रिक पास करने के लिए वहाँ के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने एक नई तरह की छूट दी थी, जिसका नाम था ‘पास विदाउट इंग्लिश’। और बोलचाल की भाषा में इसे कर्पूरी डिविजन कहा जाने लगा था। आगे के नेताओं ने तो उसके बाद शिक्षा व्यवस्था का बंटाधार ही कर दिया।
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1987 में मुझे अफगानिस्तान जाने का मौका मिला था। मैं बहुत हैरान था कि अफगानिस्तान तब दुनिया के किसी भी मॉडर्न शहरों की तरह था। महिलाएँ यूरोप जैसे स्टाइल में घूमा करती थीं। पर तालिबानियों ने जब उस पर अपना कब्जा जमाया तो सबसे पहले शिक्षा को ध्वस्त कर दिया। फिर एक पूरी पीढ़ी अशिक्षितों की खड़ी कर दी। और आज अफगानिस्तान का क्या हाल है, आप जानते ही हैं।
बिहार में भी जानबूझ कर सबसे पहले शिक्षा पर चोट की गई।
नतीजा आपके सामने है। ऐसे लोग ही मुझसे कहते हैं कि जो बिहार में सरकार बदलने की बात करेगा, वो भाजपाई हुआ।
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फिल्म दीवार में जब अमिताभ बच्चन ने कहा था कि जाओ पहले उस आदमी के दस्तखत लेकर आओ, जिसने मेरे हाथ पर लिख दिया कि मेरा बाप चोर है, तो अमिताभ की माँ निरुपा राय ने भी ने एक डॉयलाग बोला था कि जिसने तुम्हारी कलाई पर लिख दिया कि तुम्हारा बाप चोर है, वो तुम्हारा कोई नहीं था। पर तुमने मेरे माथे पर क्यों लिख दिया कि मेरा बेटा चोर है।
आज मैं अपने दोस्तों से पूछना चाहता हूँ कि जिसने बिहारियों के माथे पर लिख दिया कि बिहारी होना शर्म की बात होती है, वो हमारे कोई नहीं। पर आप क्यों बिहार को बदलने से रोकना चाहते हैं?
(देश मंथन, 13 अक्तूबर 2015)