डरा कौन, भाजपा या आप!

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संदीप त्रिपाठी : 

120 सांसद, कैबिनेट मंत्रियों की फौज, 280 मंडल प्रभारी, सवा लाख पन्ना प्रभारी। दिल्ली विधानसभा चुनाव में मिशन 60+ को पूरा करने के क्रम में भाजपा और अमित शाह कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते हैं। लेकिन विरोधी इस कुमुक पर सवाल उठा रहे हैं कि एक अकेले आप संयोजक अरविंद केजरीवाल से भाजपा, संघ और मोदी सेना इतनी डर गयी कि उसे जीत के लिए पूरा लाव-लश्कर उतारना पड़ा।

इसके पीछे तर्क दिये जा रहे हैं कि सर्वेक्षणों में केजरीवाल की बढ़ती लोकप्रियता से भाजपा के पांवों तले जमीन खिसक गयी है। लेकिन वाकई जमीनी स्थिति क्या है, यह जानने के लिए तथ्यों पर गौर करना होगा।

भ्रमित सर्वेक्षण

सबसे पहले आते हैं चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों पर। एक चैनल एबीपी का नील्सन के साथ किया गया सर्वेक्षण बता रहा है कि मुख्यमंत्री पद के लिए अरविंद केजरीवाल को लोगों ने सर्वाधिक पसंद किया है और भाजपा की उम्मीदवार किरण बेदी उनसे बहुत पीछे हैं। यही चैनल सर्वेक्षण में यह भी बता रहा है कि दिल्ली के ज्यादातर लोग चाहते हैं कि सरकार भाजपा की बने। आप की सरकार के पक्ष में लोगों की राय कम है।

यह उलटबांसी बताती है कि सर्वेक्षण के आँकड़ों में हेर-फेर किया गया है या विश्लेषण में खेल किया गया है। जो जनता भाजपा की सरकार चाहती है, वह केजरीवाल को मुख्यमंत्री कैसे बना सकती है? सवाल यह भी है कि जो जनता केजरीवाल को मुख्यमंत्री देखना चाहती है, वह भाजपा के पक्ष में वोट देना क्यों चाहती है? साफ है कि सर्वेक्षण के विश्लेषक जनमत को नजरअंदाज भी नहीं कर पा रहे हैं और जनमत के नाम पर अपनी राय थोपने से बाज भी नहीं आ रहे हैं।

अब दूसरा सर्वेक्षण सी-वोटर का है जो भाजपा और आप में टक्कर दिखा रहा है जिसमें हवा थोड़ी भाजपा के पक्ष में बहती दिख रही है। या यूं कहें कि अब तक जितने भी सर्वेक्षण आये, उनमें एक बात तो साफ तौर पर दिखायी गयी कि सरकार भाजपा की बनने जा रही है। तो फिर भाजपा इन सर्वेक्षणों के चलते केजरीवाल से क्यों डरेगी, अगर सवाल सिर्फ सरकार बनाने का हो तो…

मिशन 60+ की लड़ाई

जाहिर है कि भाजपा सर्वेक्षणों के चलते परेशान नहीं है। तो फिर भाजपा को इतने बड़े फौज-फाटा को चुनाव में झोंकने की जरूरत क्या पड़ी थी? दरअसल उसकी वजह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हैं। अमित शाह ने चुनावों से काफी पहले ही दिल्ली विधानसभा के लिए मिशन 60+ का लक्ष्य रखा था। पिछले चुनाव में भाजपा 85 प्रतिशत सीटों पहले पहले या दूसरे नंबर पर रही थी। अमित शाह इन सभी सीटों को इस बार जीतने के पक्ष में हैं।

अब तक की स्थिति में सरकार बनाने की संभावना देख भाजपा नेता और कार्यकर्ता थोड़े निश्चिंत और संतुष्ट हो गये थे। यह निश्चिंतता अमित शाह के मिशन 60+ के लिए खतरनाक संकेत थी। मिशन 60+ के पूरा होने के कई अर्थ हैं। इससे पहला संदेश तो यह जाता है कि मई, 2014 में देशभर में छायी मोदी लहर न रुकी है न थकी है बल्कि अब भी बेरोकटोक गतिमान है।

दूसरा संदेश यह जाता है कि जनता प्रधानमंत्री मोदी के कामकाज से खुश है। दिल्ली चुनाव में 60 सीटें हासिल करने का तीसरा मकसद देशभर में विरोधी दलों को निकट भविष्य के चुनावों के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से परास्त करना है। सितंबर-अक्टूबर, 2015 में बिहार के विधानसभा चुनाव होने हैं। दिल्ली की जीत बिहार के संदर्भ में बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालेगी।

यहाँ मिशन 60+ की कामयाबी बिहार के चुनावों को भाजपा के लिए आसान बना देगी और विरोधी हारे हुए मन से लड़ाई लड़ेंगे जिसका भाजपा के लाभ में गुणात्मक वृद्धि होगी। दिल्ली में महज सरकार बना लेने भर से यह उद्देश्य पूरा होता नहीं दिख रहा है। दिल्ली की लड़ाई इसलिए भी ज्यादा महत्वपूर्ण है कि यहां की जबरदस्त जीत से पूरे देश में भाजपा के पक्ष में एक संदेश जायेगा जिसका लाभ अगले साल पश्चिम बंगाल व असम में होने वाले चुनावों की तैयारियों में भी मिलेगा।

आप में आंतरिक कलह

अब जरा आप की आंतरिक स्थित देख लें। दागी उम्मीदवारों पर प्रशांत भूषण के आरोपों के बाद आप में घमासान चरम पर पहुंच गया है। केजरीवाल अब प्रशांत भूषण से मिलने से कतरा रहे हैं। योगेंद्र यादव और आशुतोष की भी दागी प्रत्याशियों के मुद्दे पर केजरीवाल से अनबन चल रही है। दरअसल, इन प्रत्याशियों को टिकट केजरीवाल के वीटो पर ही मिला है। इस वजह से यह प्रत्याशी पार्टी की हायर्की को दरकिनार कर केवल केजरीवाल से बात कर रहे है, सुन रहे हैं या तवज्जो दे रहे हैं। इस मुद्दे पर केजरीवाल पार्टी के किसी नेता की सुनने को तैयार नहीं है। इससे आप के अन्य बड़े नेताओं से केजरीवाल की बन नहीं रही है।

पार्टी के संरक्षक शांतिभूषण द्वारा केजरीवाल की बजाय किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद के लिए बेहतर बताये जाने के बाद से शांतिभूषण ने पार्टी की बैठकों में आना भी छोड़ दिया है। इसके अलावा सर्वेक्षणों में भी भाजपा की सरकार बनने की संभावना से आप में हड़बौंग मची है। पिछले विधानसभा चुनाव में आप के समर्थन में देश-विदेश से भारी संख्या में कार्यकर्ता आये थे लेकिन इस बार वह ज्वार नहीं दिख रहा है।

ऐसे में केजरीवाल बौखला गये लगते हैं और सभाओं में एक सिरे से पिछले सालभर में की गयी लगातार गलतियों के लिए माफी मांगते फिर रहे हैं। इसके साथ ही विरोधियों पर आरोप लगाने में आप नेता वाणी संयमित नहीं रख पा रहे हैं जो कहीं न कहीं उनकी हताशा को उजागर करता है। यही वजह है कि केजरीवाल भी आप को हराने के लिए भाजपा द्वारा साजिश रचे जाने का संदेह जता रहे हैं और भाजपा द्वारा चुनाव जीतने के लिए कार्यकर्ताओं की ताकत झोंकने को गलत बता रहे हैं।

तो क्या होगा…

यहाँ यह सवाल उठता है कि क्या भाजपा या चुनाव लड़ रहे अन्य दलों को केजरीवाल की जीत के लिए रास्ता छोड़ देना चाहिए? जाहिर है, जो भी दल चुनाव लड़ेगा, यथाशक्ति जीतने की भरपूर कोशिश करेगा ही। केजरीवाल अमित शाह की रणनीति और जीतने की क्षमता के आतंक से आतंकित हैं, इसलिए नौसिखुआ नेता की तरह भाजपा द्वारा वाकओवर नहीं दिये जाने पर रोना-धोना मचाये हुए हैं।

दरअसल मिशन 60+ का एक मतलब यह भी है कि आप का दिल्ली की राजनीति से साफ हो जाना। अल्पसंख्यक बहुल छह सीटों पर कांग्रेस को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में भाजपा के लक्ष्य को देखते हुए आप के लिए लड़ाई बहुत सीमित हो जाती है। अमित शाह के मिशन 60+ को रोकने के लिए आप के पास वक्त बहुत कम बचा है। निश्चत तौर पर चुनाव के इस मोड़ पर अपनी लड़ाई पर फोकस करने की बजाय प्रतिद्वंद्वी की ताकत से घबराने को अच्छा लक्षण नहीं कहा जा सकता।

(देश मंथन, 31 जनवरी 2015) 

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