संदीप त्रिपाठी :
दिल्ली विधानसभा चुनाव में पंजाबी खत्री मतदाता बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने जा रहे हैं। आमतौर पर यह मतदाता भाजपा के समर्थक वर्ग के रूप में माना जाता रहा है। भाजपा ने अपने शुरुआती दिनों से इसी वोटबैंक के बूते दिल्ली में अपना आधार मजबूत किया। लेकिन दिसंबर, 2013 में आप की लहर का असर इस वोट बैंक पर भी पड़ा।
हालांकि लोकसभा चुनाव में यह वोटबैंक दोबारा दोगुनी मजबूती से भाजपा के साथ आ गया और भाजपा ने सातों संसदीय सीटें फतह कर लीं। चूंकि पिछले विधानसभा चुनाव में इसी वर्ग के टूटने से आप ने कामयाबी पायी थी। ऐसी स्थिति में इस बार यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि 7 फरवरी को यह मतदाता किस करवट रुख करते हैं।
भाजपा का पारंपरिक आधार
पंजाबी खत्री मतदाता वर्ग दिल्ली के कुल मतदाताओं का महज 7 प्रतिशत है। इसमें सिख मतदाताओं का 4 प्रतिशत जोड़ दें तो 11 प्रतिशत होता है। सिख मतदाता तो आमतौर पर भाजपा के साथ ही रहा है। लेकिन दिल्ली की राजनीति में पंजाबी खत्री मतदाता वर्ग की करवट बड़ी भूमिका अदा करती आयी है। याद कीजिए, दिल्ली में भाजपा के आधार स्तंभ रहे मदनलाल खुराना, विजय कुमार मल्होत्रा और केदारनाथ साहनी ने इस वर्ग को पार्टी से जोड़ा। निश्चित तौर पर भाजपा को दिल्ली में अपनी जड़ें जमाने में इसका लाभ मिला और यह वर्ग शुरुआत से भाजपा का साथ देता आया। वर्ष 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद बड़े पैमाने पर सिखों के कत्लेआम और मदनलाल खुराना के सकारात्मक कामों के चलते यह वर्ग भाजपा के साथ मजबूती से जुड़ गया। उस वक्त दिल्ली में कांग्रेस के मुकाबले कोई पार्टी थी तो वह भाजपा ही थी। भाजपा को इसका लाभ मिला। भाजपा ने भी इस वर्ग की उम्मीदों को कभी झटका नहीं दिया।
शीला ने लगायी थी सेंध
1996 में मदनलाल खुराना के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने और फिर भाजपा द्वारा उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री न बनाने के बाद खुराना थोड़ा नाराज रहे। इसी बीच कांग्रेस ने पंजाबी खत्री परिवार की बेटी शीला दीक्षित के हाथ प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंप दी और शीला दीक्षित 1998 में दिल्ली की मुख्यमंत्री बन गयीं। अब पंजाबी खत्री वोटरों का एक हिस्सा कांग्रेस के साथ चला गया। इन हालात में शीला दीक्षित ने वर्ष 2003 के चुनावों में भी फतह हासिल कर ली। इसी बीच खुराना को केंद्र की तत्कालीन भाजपा सरकार ने राज्यपाल बनाकर राजस्थान भेज दिया। लेकिन महज साढ़े नौ महीने बाद ही वह इस्तीफा देकर दिल्ली की राजनीति में लौट आये। लेकिन भाजपा आलाकमान से उनकी लाग-डांट बनी रही और 2005 और 2006 में उन्हें कुछ-कुछ समय के लिए दो बार पार्टी से निष्कासित भी किया गया। इसके बाद खुराना भाजपा को समर्थन तो देते रहे। लेकिन उन्होंने सक्रिय राजनीति छोड़ दी।
आप की लहर में बहे
ऐसे में वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में भी शीला दीक्षित ने फतह हासिल की। मदनलाल खुराना के उतार और शीला दीक्षित के चढ़ाव के दिनों में इस मतदाता वर्ग का एक हिस्सा तो कांग्रेस के साथ गया। लेकिन एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा के साथ बना रहा। लेकिन फिर भी इस मतदाता वर्ग के दो फाड़ होने से भाजपा सत्ता से वंचित ही रही। वर्ष 2008 के विधानसभा चुनाव में पंजाबी खत्री वर्ग के 59 प्रतिशत वोट भाजपा को मिले जबकि 29 प्रतिशत वोट कांग्रेस को मिले। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में इस मतदाता वर्ग का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस और भाजपा से टूटकर आप के समर्थन में खड़ा हो गया। इस चुनाव में पंजाबी खत्री वोटों का 36 प्रतिशत भाजपा को और 22 प्रतिशत कांग्रेस को मिला जबकि नवगठित आम आदमी पार्टी को इस वर्ग से 39 प्रतिशत वोट मिला। यही वजह रही कि इस मतदाता वर्ग के गढ़ में आप को काफी कामयाबी मिली। तकरीबन 16 सीटों पर पंजाबी मतदाता प्रभावी हैं। दिसंबर, 2013 में इसमें नौ सीटें आप को, 6 सीटें भाजपा को और एक सीट कांग्रेस को मिली थी।
लोकसभा में की वापसी
वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में इस मतदाता वर्ग ने बहुत तेज पलटी मारी और एक बार फिर भाजपा के साथ पूरे दमखम से खड़ी हो गयी। इस चुनाव में इस मतदाता वर्ग से भाजपा को 62 प्रतिशत, कांग्रेस को 8 प्रतिशत और आम आदमी पार्टी को 15 प्रतिशत वोट मिले। यानी लोकसभा चुनाव में इस वर्ग के मतदाताओं का जितना समर्थन आप और कांग्रेस को मिलाकर मिला, उसका लगभग तीन गुना अकेले भाजपा को मिला। साफ है कि विभिन्न चुनावों में विभिन्न दलों का साथ देकर इस मतदाता वर्ग ने अपना ठेहा तय कर लिया है। भाजपा ने इस मतदाता वर्ग की भावनाओं को समझा और किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया। आप इस मतदाता वर्ग में फिर से घुसपैठ की कोशिश कर रही है। लेकिन उसके पास किरण बेदी का कोई असरदार जवाब नहीं दिख रहा है। ऐसे में आप के सामने सीधी चुनौती है कि क्या वह इस मतदाता वर्ग में पुन: सेंध लगा पाती है। अगर ऐसा नहीं हुआ तो आप की सीटों की संख्या में गिरावट तय है। अब यह तो भविष्य के गर्त में है कि 7 फरवरी को यह मतदाता हमेशा की तरह भाजपा के साथ खड़े होंगे या दिसंबर, 2013 की तरह टूटेंगे।
(देश मंथन, 30 जनवरी 2015)