संदीप त्रिपाठी :
बिहार के विधानसभा चुनाव अक्टूबर-नवंबर में होंगे, ऐसे संकेत हैं। अभी कोई ऐलान नहीं हुआ है लेकिन चुनाव आयोग की तैयारियाँ ऐसी ही हैं। सियासी दल तो कब से इसी संकेत के इंतजार में बैठे थे। मुख्य चुनाव आयुक्त तो अगस्त के पहले हफ्ते में चुनावी तैयारियों का जायजा लेने बिहार का दौरा करेंगे लेकिन सियासी दल इससे पहले ही चुनाव प्रचार में जुट गये हैं।
नीतीश कुमार के जनता दल (यू), लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, सोनिया गाँधी की कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी एकजुट हो कर चुनाव लड़ेंगी, यह तय हो चुका है। इनका चुनाव प्रचार भी साझा होगा, यह भी तय हुआ है। इस महागठबंधन ने अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के प्रचार अभियान के सूत्रधार रहे प्रशांत किशोर को अपने पाले में खींच लिया है। प्रशांत किशोर ने जदयू के लिए अब तक दो बड़े अभियान शुरू किये हैं – बढ़ चला बिहार और घर-घर दस्तक। इनका क्या असर हुआ है और होगा, इसका आकलन मतगणना के बाद ही हो पायेगा। अगस्त माह में यह महागठबंधन राज्य भर में अपनी साझा रैलियाँ आयोजित करेगा। साझा यानी मंच पर चारों दलों के नेता एक साथ होंगे। महागठबंधन को उम्मीद है कि इससे चारों दलों को मिलने वाले वोट एकसाथ उनके पक्ष में पड़ेंगे और उनके सिर जीत का सेहरा बँध जायेगा।
जदयू के शीर्ष नेता और राज्य के मुख्य मन्त्री नीतीश कुमार लगातार जनता से वादे पर वादे किये जा रहे हैं। नीतीश ने महिलाओं के वोट अपने पक्ष में करने के लिए शराब पर लगाम लगाने का वादा किया है। यह वही नीतीश हैं जिनके कार्यकाल में हर पंचायत क्षेत्र में शराब की दुकान खोलने की नीति बनी। नीतीश बिहार में शराब पर लगाम दिसंबर के बाद लगायेंगे यानी उन्हें वोट मिलेगा और वे फिर से सरकार बनायेंगे, तब। तब तक बिहार की महिलाएँ शराब की बुराइयाँ झेलने के लिए अभिशप्त हैं। इसी तरह के कई वादे नीतीश कर रहे हैं। विपक्ष यानी भाजपा इन सवालों को उठा रही है। नीतीश बिहार में कानून-व्यवस्था की बिगड़ी हालत की बात नहीं कर रहे हैं। सरकार पर से जनता का इकबाल खत्म क्यों हो रहा है, इस पर बात नहीं कर रहे हैं। अनाज से लेकर दवा तक में हाल के वर्षों में उद्घाटित हुए घोटालों पर खामोशी अख्तियार किये हुए हैं लेकिन नीतीश यह बात बखूबी समझ भी रहे हैं कि एक बड़ा वर्ग लालू से उनकी गलबहियाँ के बाद भष्टाचार और सुशासन के उनके वादों पर भरोसा नहीं कर पा रहा है। यही वजह चुनाव प्रचार की उनकी एक रणनीति में झलकती है। नीतीश कुमार की टीम ने एक योजना बनायी है जिसके तहत देश भर में दिल्ली, मुंबई, कोलकाता समेत छह से आठ शहरों में नीतीश वहाँ के बिहारी बहुल इलाकों में रैलियाँ करेंगे। खास बात यह है कि इन रैलियों में लालू प्रसाद यादव की भागीदारी नहीं होगी। यानी नीतीश को मालूम है कि लालू जनता के सामने उनकी जीत के रास्ते में एक बड़ी बाधा हैं लेकिन लालू के बिना नीतीश भाजपा के सामने बहुत बौने दिखने लगते हैं। यानी लालू नीतीश के लिए गले की हड्डी बन गये हैं।
गले की हड्डी केवल लालू प्रसाद यादव ही नहीं बने हैं, दोनों दलों के कार्यकर्ता भी नीतीश के लिए गले की हड्डी हो गये हैं। विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में दौरा करें तो पायेंगे कि नेताओं ने अपने लाभ के लिए भले हाथ मिला लिया हो, लेकिन कार्यकर्ता, जिसने एक-दूसरे को पटकनी देने की जद्दोजहद में एक लंबा समय गुजार दिया है और इस संघर्ष के बदले वे कुछ पाने की उम्मीद रखते हैं, अपनी बारी छिनती देख खिलाफ खड़े हो सकते हैं। जिन कार्यकर्ताओं ने पाँच साल तक चुनाव लड़ने और लड़ाने की तैयारी की, वे अचानक पा रहे हैं कि जिनके खिलाफ तैयारी की, उन्हीं के पक्ष में खड़े हो कर अपनी बारी का त्याग करना है। यह स्थिति दोनों दलों में है। यानी लगभग हर सीट पर महागठबंधन की ओर से जिसे भी टिकट मिलेगा, दूसरी पार्टी के एक या दो स्थानीय नेता, जिन्होंने क्षेत्र में मेहनत भी की है, रसूख भी रखते हैं और पार्टी के काफी स्थानीय कार्यकर्ता भी उनके साथ हैं, अधिकृत प्रत्याशी के खिलाफ जायेंगे ही। लालू की तर्ज पर यह स्थानीय रूप से प्रभावी नेता दावेदार भी क्या जहर पीने को तैयार हैं, यह लाख टके का सवाल है। ऐसे नेता और कार्यकर्ता अभी शान्त हैं। उनकी निगाह है टिकट वितरण पर, उसी के बाद महागठबंधन असल में समझ में आयेगा।
(देश मंथन, 24 जुलाई 2015)