मोदी या केजरी, किसे पारस साबित करेगा बनारस?

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पुण्य प्रसून बाजपेयी, कार्यकारी संपादक, आजतक :

खाक भी जिस जमी की पारस है, शहर मशहूर यह बनारस है। तो क्या बनारस पहली बार उस राजीनिति को नया जीवन देगा जिस पर से लोकतंत्र के सरमायेदारों का भी भरोसा डिगने लगा है।

बनारस की तहजीब, बनारस का संगीत, बनारस का जायका या फिर बनारस की मस्ती। राजनीति के आईने में यह सब कहाँ फिट बैठता है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल का सियासी अखाड़ा बनारस बना तो फिर बनारस या तो बदल रहा है या फिर बनारस एक नये इतिहास को लिखने के लिये राजनीतिक पन्नों को खंगाल रहा है। बनारस से महज 15 कोस पर सारनाथ में जब गौतम बुद्ध ने अपने ज्ञान का पहला पाठ पढ़ा, तब दुनिया में किसी को भरोसा नहीं था गौतम बुद्ध की सीख सियासतों को नतमस्तक होना भी सिखायेगी और आधुनिक दौर में दलित समाज सियासी ककहरा भी बौध धर्म के जरीये ही पढ़ेगा या पढ़ाने की मशक्कत करेगा। गौतम बुद्ध ने राजपाट छोडा था। मायावती ने राजपाट के लिये बुद्ध को अपनाया। इसी रास्ते को रामराज ने उदितराज बनकर बताना चाहा और केजरीवाल ने तो गौतम बुद्ध की थ्योरी को सम्राट अशोक की तलवार पर रख दिया। सम्राट अशोक ने बुद्धम शरणम गच्छामी करते हुये तलवार रखी और केजरीवाल ने सत्ता गच्छामी करते हुये सियासी तलवार भांजनी शुरू की। बनारस तो मुक्ति पर्व को जीता रहा है फिर यहा से सत्ता संघर्ष की नयी आहट नरेंद्र मोदी ने क्यो दी। मोक्ष के संदर्भ में काशी का ऐसा महात्म्य है कि प्रयागगादु अन्य तीर्थो में मरने से अलोक्य, सारुप्य तथा सानिद्य मुक्ती ही मिलती है और माना जाता है कि सायुज्य मुक्ति केवल काशी में ही मिल सकती है। तो क्या सोमनाथ से विश्वनाथ के दरवाजे पर दस्तक देने नरेंद्र मोदी इसलिये पहुँचे कि विहिप के अयोध्या के बाद मथुरा, काशी के नारे को बदला जा सके। या फिर संघ परिवार रामजन्मभूमि को लेकर राजनीतिक तौर पर जितना भटका, उसे नये तरीके से परिभाषित करने के लिये मोदी को काशी चुनना पड़ा।

अगर ऐसा है तो फिर यह नया भटकाव है क्योंकि काशी को तो हिन्दुओं का काबा माना गया। याद कीजिये गालिब ने भी बनारस को लेकर लिखा, तआलल्ला बनारस चश्मे बद्दूर, बहिस्ते खुर्रमो फिरदौसे मामूर, इबादत खानए नाकूसिया अस्त, हमाना काबए हिन्दोस्तां अस्त। यानी हे परमात्मा, बनारस को बुरी दृष्टि से दूर रखना, क्योंकि यह आनंदमय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों अर्थात हिन्दुओं का पूजा स्थान है, यानी यही हिन्दुस्तान का काबा है। तो फिर केजरीवाल यहाँ क्यों पहुँचे। क्या केजरीवाल काशी की उस सत्ता को चुनौती देने पहुँचे हैं, जिसके आसरे धर्म की इस नगरी को बीजेपी अपना मान चुकी है। या फिर केजरीवाल को लगने लगा है कि राजनीति सबसे बड़ा धर्म है और धर्म सबसे बड़ी राजनीति। संघ परिवार धर्म की नगरी से दिल्ली की सत्ता पर अपने राजनीतिक स्वयंसेवक को देख रहा है। और केजरीवाल काशी की जीत से दिल्ली की त्रासदी से मुक्ति चाहते हैं। वैसे बनारस की राजनीतिक बिसात का सच भी अपने आप में चुनौतीपूर्ण है। क्योंकि जितनी तादाद यहाँ ब्राह्मण की है, उतने ही मुसलमान भी हैं। करीब ढाई-ढाई लाख की तादाद दोनों की है। पटेल डेढ़ लाख तो यादव एक लाख है और जायसवाल करीब सवा लाख। मारवाडियों की तादाद भी ४० हजार है। इसके अलावा मराठी, गुजराती, तमिल, बंगाली, सिख और राजस्थानियों को मिला दिया जाये तो इनकी तादाद भी डेढ लाख से उपर की है। तो 16 लाख वोटरों वाले काशी में मोदी का शंखनाद गालिब की तर्ज पर हिन्दुओं का काबा बताकर मोदी का राजतिलक कर देगा या फिर काशी को चुनौती देने वाले कबीर से लेकर भारतेन्दु की तर्ज पर केजरीवाल की चुनौती स्वीकार करेगा। क्योंकि गालिब बनारस को लेकर एकमात्र सत्य नहीं है। इस मिथकीय नगर की धार्मिक और आध्यात्मिक सत्ता को चुनौतिया भी मिलती रही हैं। ऐसी पहली चुनौती 15 वी सदी में कबीर से मिली। काशी की मोक्षदा भूमि को उन्होंने अपने अनुभूत-सच से चुनौती दी और ऐसी बातों को अस्वीकार किया। उन्होंने बिलकुल सहज और सरल ढंग से परंपरा से चले आते मिथकीय विचारों को सामने रखा और बताया कि कैसे ये सच नहीं है। अपने अनुभव ज्ञान से उन्होने धार्मिक मान्यताओं के सामने एक ऐसा सवाल खड़ा कर दिया, जो एक ओर काशी की महिमा को चुनौती देता था तो दूसरी ओर ईश्वर की सत्ता को। उन्होंने दो टूक कहा-जो काशी तन तजै कबीरा। तो रामहिं कौन निहोरा। यह ऐसी नजर थी, जो किसी बात को, धर्म को भी, सुनी-सुनायी बातो से नहीं मानती थी। उसे पहले अपने अनुभव से जाँचती थी और फिर उस पर भरोसा करती थी।

काशी का यह जुलाहा कबीर कागद की लेखी को नहीं मानता था, चाहे वह पुराण हो या कोई और धर्मग्रंथ। उसे विश्वास सिर्फ अपनी आँखों पर था। इसलिये कि आँखों से देखी बातें उलझाती नहीं थी…तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आँखन की देकी। मै कहता सुरझावनहरी, तू देता उरझाई रे। वैसे बनारस की महिमा को चुनौती तो भारतेन्दु ने 19 वी सदी में भी यह कहकर दी…..देखी तुमरी कासी लोगों, देखी तुमरी कासी। जहाँ बिराजे विस्वनाथ, विश्वेश्वर जी अविनासी। ध्यान दें तो बनारस जिस तरह 2014 का सियासी अखाडा बन रहा है और सियासी आँकड़े में कूदने वाले राजनीति के महारथियो को जैसे जैसे बनारस के रंग में रंगने की सियासत भी शुरू हुई है। वह ना तो बनारस की संस्कृति है और ना ही बनारसी ठग का मिजाज। बिस्मिल्ला खां ने अमेरिका तक में बनारस से जुड़े उस जीवन को मान्यता दी, जहाँ मुक्ति के लिये मुक्ति से आगे बनारस की आबो हवा में नहाया समाज है। शहनाई सुनने के बाद आत्ममुग्ध अमेरिका ने जब बिस्मिल्ला खां को अमेरिका में हर सुविधा के साथ बसने का आग्रह किया तो बिस्मिल्ला खां ने बेहद मासूमियत से पूछा, सारी सुविधा तो ठीक है लेकिन गंगा कहा से लाओगे। और बनारस का सच देखिये। गंगा का पानी हर कोई पूजा के लिये घर ले जाता है लेकिन बनारस ही वह जगह है जहा से गंगा का पानी भरकर घर लाया नहीं जाता। तो ऐसी नगरी में मोदी और केजरीवाल किसे बांटेंगे या किसे जोड़ेंगे। वैसे भी घंटा-घडियाल, शंख, शहनाई और डमरु की धुन पर मंत्रोच्चार से जागने वाला बनारस आसानी से सियासी गोटियो तले बेसुध होने वाला शहर भी नहीं है। बेहद मिजाजी शहर में गंगा भी चन्द्राकार बहती है बनारस हिन्दू विश्वविघालय के 35 हजार छात्र हो या काशी विघापीठ और हरिश्चन्द्र महाविघालय के दस-दस हजार छात्र। कोई भी बनारस के मिजाज से इतर सोचता नहीं और छात्र राजनीति को साधने के लिये भी बनारस की रंगत को आजमाने से कतराता नहीं। फिर बनारस आदिकाल से शिक्षा का केन्द्र रहा है और अपनी इस विरासत को अब भी संजोये हुये हैं। ऐसे में पूर्व टैक्स कमीश्नर केजरीवाल हो या पूर्व चायवाले मोदी, दोनों की बिसात पर बनारसी मिजाज प्यादा हो नहीं सकता और दोनों ही वजीर बनने के लिये लालालियत है तो फिर बनारस का रास्ता जायेगा किधर। नजरें सभी की इसी पर हैं। क्योंकि बनारस की बनावट भी अद्भुत है….यह आधा जल में है । आधा मंत्र में है। आधा फूल में है। आधा शव में है। आधा नींद में है। आधा शंख में है। तो केजरीवाल की मोदी को चुनौती देने के अंदाज में बनारसी मिजाज में आधी राजनीति है। लेकिन पहली बार अंदाज गालिब का हो या कबीर का। जीत मोदी की हो या केजरीवाल की। मगर मौका बनारस को ही मिला है कि वह सियासत का पूर्ण विराम तय करें। या फिर दिल्ली की दोपहरी और गुजरात की रात को बनारस की सुबह से नयी रंगत दे दें!

(देश मंथन, 27 मार्च 2014)

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