संदीप त्रिपाठी :
बिहार विधानसभा चुनाव की आहट सुनायी देने लगी है। चुनाव आयोग भी यह संकेत दे रहा है कि सितंबर-अक्टूबर में चुनाव होंगे।
हालाँकि यह तय भी था लेकिन एक गुंजाइश यह भी थी कि शायद एक-दो माह पहले ही चुनाव संपन्न करा लिये जायें। इस आहट के साथ ही विभिन्न दलों की चुनावी तैयारी भले दिखने लगी है। लेकिन समीकरण उलझ गये हैं।
नीतीश-लालू में उठापटक
मुख्यमन्त्री और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) नेता नीतीश कुमार अगला मुख्यमन्त्री बनने के लिए दाँव पर दाँव चल रहे हैं। राष्ट्रीय जनता दल (राजद) नेता लालू प्रसाद यादव भाजपा को रोकने में अपनी अहमियत जानते हैं, इसलिए अपना दाँव छोड़ने के मूड में नहीं दिखते। नीतीश ने जहाँ कांग्रेस को अपने पक्ष में करके भावी चुनावी गठबंधन की राह में एक बढ़त ले ली है, वहीं लालू यादव ने जीतन राम मांझी के प्रति नरमी दिखा कर निशाना साधने का जौहर दिखाया है। लालू खुद जहाँ नीतीश पर कोई हमला नहीं कर रहे, वहीं उनके खास सिपहसालार रघुवंश प्रसाद सिंह लगातार नीतीश को दंश मारने वाले बयान दे रहे हैं। माना जा रहा है कि रघुवंश जी के बयान लालू यादव की सहमति के बिना नहीं हैं। तो नीतीश की ओर से वृष्णि पटेल ने कमान संभाली है। जिद गठबंधन के नेतृत्व और सीटों के बँटवारे पर फँसी है। जब बात बिगड़ने लग रही है, लालू यादव एक शान्ति दूत भेज कर फिर उम्मीद की आस जगा देते हैं। अब नीतीश एक नया समीकरण रच कर राजद को पटकनी देना चाहते हैं। उन्होंने कांग्रेस को अपने नेतृत्व पर राजी कर लिया है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अशोक चौधरी ने जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मुलाकात की तो सोनिया ने बिहार में नीतीश के नेतृत्व पर हरी झंडी दिखा दी। नीतीश वामपंथी दलों और आम आदमी पार्टी का भी समर्थन जुटाने के क्रम में हैं। लेकिन इन सबके बीच समय निकलता जा रहा है और भाजपा विरोधी गठबंधन की तस्वीर स्पष्ट नहीं हो पा रही है और असमंजस की स्थिति कायम है, जिसका असर उसकी तैयारियों पर भी पड़ रहा है। इसका लाभ भाजपा लेती दिख रही है।
सीट और नेतृत्व पर पेंच
पिछले साल जीतन राम मांझी सरकार के विश्वास मत और विधानसभा उपचुनाव के मौके पर जदयू और राजद की गलबहियाँ का लाभ दिखा था। लोकसभा चुनाव में जनता का अपार समर्थन बटोरने वाली भाजपा को मात खानी पड़ी थी। इन नतीजों को देखते हुए बिहार में भाजपा के विजय रथ को थामने के लिए पूर्व जनता परिवार के विभिन्न गुटों को एकजुट करने का अभियान चला। अप्रैल तक जनता परिवार से जुड़े रहे छह दलों का विलय कर एक राष्ट्रीय दल बनाने की घोषणा भी हो गयी। लेकिन इसके बाद इस पूरे घटनाक्रम में नाटकीय बदलाव आ गया और विलय पचड़े में फँस गया। सपा इस विलय से उत्तर प्रदेश में सपा को कोई लाभ न होने को देखते हुए उदासीनता दिखाने लगी। उसने जदयू और राजद को बिहार में गठबंधन करके लड़ने की सलाह दी। बिहार में जदयू के पास भले विधानसभा में फिलहाल ज्यादा सीटें हों, लेकिन इसमें भाजपा समर्थक वोटों का बड़ा योगदान है। (पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त जदयू-भाजपा का गठबंधन था)। लोकसभा चुनाव में राजद ने साबित कर दिया कि अकेले-अकेले की लड़ाई में उसकी ताकत जदयू से ज्यादा है। निश्चित रूप से ऐसी स्थिति में राजद भावी गठबंधन में बड़ा हिस्सेदार बनने की इच्छा रखेगी। लेकिन अदालती कारणों से लालू प्रसाद यादव के चुनाव लड़ने में सक्षम न होने और उनकी छवि सुशासक की न होने के बिना पर नीतीश कुमार इस भावी गठबंधन के नेता बन कर चुनावों के बाद फिर से मुख्यमन्त्री बनना चाहते हैं। राजद राज्य विधानसभा की 243 सीटों में से 140 सीटें अपने खाते में चाहती है। नीतीश कुमार इसके लिए किसी भी तरह तैयार नहीं दिखते। लालू यह भी समझ रहे हैं कि बिहार में एक बार नीतीश का नेतृत्व स्वीकार कर लेने के बाद उनकी राजनीति खत्म हो जाती है। इन्हीं जिद से एकजुट होकर भाजपा को रोकने की रणनीति को पलीता लग गया है।
भाजपा मुतमईन नहीं
भाजपा भी पूरी तरह मुतमईन नहीं दिख रही है। भाजपा यह समझ रही है कि सारे विरोधियों के एकजुट होने की स्थिति उसके लिए खतरे की घंटी है। कुछ समय पूर्व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने भी अंदरखाने भाजपा को नीतीश से मेलमिलाप करने की सलाह दी थी। हालाँकि मौजूदा स्थिति में यह संभव नहीं दिखता। भाजपा की रणनीति अपने समर्थक वोट बैंक के अलावा अन्य सामाजिक समूहों से ठीक-ठाक वोट खींचने की है। साथ ही भाजपा विरोधी पक्ष के कुछ हिस्सों को अपने साथ लेने की रणनीति पर भी चल रही है। पूर्व मुख्यमन्त्री जीतन राम मांझी इसी रणनीति का अँग दिख रहे हैं। जीतन राम मांझी लगातार मोदी सरकार की तारीफ करते और नीतीश पर पूरा हमला बोलते नजर आ रहे हैं। लालू प्रसाद यादव के प्रस्ताव पर वे लालू को पहले नीतीश से किनारा करने की शर्त रख रहे हैं। भाजपा को मांझी और पप्पू यादव जैसे नेताओं की नवगठित पार्टियों से लाभ मिलता दिख रहा है। ये पार्टियाँ भले भाजपा से गठबंधन न करें, लेकिन अपने-अपने इलाकों में इन पार्टियों द्वारा जुटाया जाने वाला समर्थन भाजपा विरोधी धड़े में ही सेंध लगायेगा।
मौजूदा परिदृश्य पर निगाह डाली जाये तो यह दिख रहा है कि भाजपा विरोधी खेमा फिलहाल अपनी ताकत भाजपा के खिलाफ लगाने के बजाय एक-दूसरे को चित करने में लगा रहा है। चुनाव आते-आते अगर भाजपा की जीत की आशंका में इऩमें अगर मिलकर चुनाव लड़ने पर सहमति बन भी जाये, जो बहुत मुमकिन है, तो यही सहमति बनती दिखती है कि बराबर सीटों पर राजद और जदयू अपने प्रत्याशी उतारें और शेष सीटों पर दोस्ताना दंगल हो। नेतृत्व के सवाल पर यह राय बन सकती है कि मतगणना के बाद की स्थिति पर नेतृत्व तय हो। ऐसी स्थिति में इन दलों की रणनीति अपनी ज्यादा से ज्यादा सीटें निकालने के साथ-साथ सहयोगी की सीटों पर क्षति पहुँचाने की रह सकती है।
ऐसी स्थिति में भी भाजपा को फायदा होता दिख रहा है। लेकिन विरोधी खेमे में असमंजस या अविश्वास का लाभ उठाने के लिए भाजपा को अपना दाँव बहुत संभल कर और सोच-समझ कर चलना होगा। भाजपा को चुनावी गलतियों से बचना होगा। भाजपा के लिए सबसे मुश्किल मुख्यमन्त्री पद का दावेदार तय करना है। सुशील मोदी राज्य में पार्टी के सबसे बड़े चेहरे हैं लेकिन सर्वमान्य नहीं। जनता में भी सुशील मोदी की कोई कारगर सकारात्मक अपील नहीं दिखती। किसी अन्य नेता के नाम पर सुशील मोदी सहमत होते नहीं दिखते। ऐसे में भाजपा को सेनापति के नाम की घोषणा किये बगैर मैदान में उतरना पड़ सकता है। लेकिन ऐसे में भाजपा को दिल्ली विधानसभा चुनाव के दौरान की गयी गलतियों के दोहराव से बचना होगा।
(देश मंथन, 06 जून 2015)