‘पिच’ नहीं, समग्र प्रदर्शन से तोड़ी द. अफ्रीकियों की दुर्जेयता

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

टेस्ट क्रिकेट की लोकप्रियता पर चाहे जितना भी ग्रहण लगा हो, चाहे दर्शक संख्या में कितनी भी कमी आ रही हो। परंतु यह निर्विवाद स्वीकार करना ही होगा कि किसी भी टीम और खिलाड़ी की श्रेष्ठता का पैमाना यानी उसकी परख खेल के इस दीर्घावधि संस्करण में प्रदर्शन ही है, जिसमें केवल स्किल, तकनीकी पांडित्य ही नहीं, इसमें आपके धैर्य, मनोदशा और एकाग्रता का तेजाबी इम्तहान भी होता है। 

 सच तो यह है कि टेस्ट क्रिकेट वह आग है जिसमें तप कर खिलाड़ी कुंदन बनता है और इसमें किया प्रदर्शन ही प्रशंसक की यादों में चिर काल तक बना भी रहता है। हर किसी को यह तो याद है कि भारत अपने घर में टी-20 और एक दिनी सिरीज गँवा बैठा। मगर कोई भी उस हार पर जो गम गलत करता है वह अल्पकालिक ही बन कर रह जाता है। भले ही बाजार में उन पर हजारों बल्कि लाखों करोड़ के दाँव लगाये जाते हों। लेकिन टेस्ट क्रिकेट बाजार में मात्र जीत-हार का सौदा भर नहीं, उससे भी कहीं बहुत बढ़ कर है। 

यही कारण है कि सन 2015 भारतीय क्रिकेट को जाते-जाते एक ऐसी अनूठी, दुर्लभ और विरल सौगात दे गया जिस पर हर क्रिकेट प्रेमी अनंत काल तक इतराता और गर्व करता रहेगा। ठीक है कि द.अफ्रीका पर भले ही आईसीसी की विश्व कप जैसी प्रतियोगिताओं में चोकर्स अर्थात ऐन मौके पर चूकने वाली टीम का ठप्पा लगा हो मगर जहाँ तक टेस्ट क्रिकेट की बात है तो आपको उसे आँख मूँद कर संप्रति महाबली का दर्जा देना ही होगा। देखिए अपने घर में तो हर कोई शेर होता है, पर असली सिंह तो वही कहलाता है जब दूसरे की माँद में यानी घर में भी वह वैसे ही दहाड़ता हुआ शिकार करे। पिछले नौ बरस से विदेशी धरती पर अपराजेय दक्षिण अफ्रीका का मान मर्दन और वह भी तीन शून्य के एकतरफा परिणाम के साथ…!! उसे हर दृष्टि से आपको ऐतिहासिक मानना ही होगा। सचमुच, विराट के कल्पनाशील नेतृत्व में भारतीय रणबांकुरों की विराट सफलता के लिए टीम बधाई की पात्र है। 

सच तो यह कि बंगलूरू टेस्ट के अंतिम चार दिन यदि बारिश ने धो न दिये होते तो सीरिज का परिणाम आसानी के साथ चार शून्य का भी हो सकता था।

एक ऐसी सीरिज, जिसमें अर्से बाद हमने देखा कि बल्लेबाजी हमेशा पिछले पाँव पर रही और गेंदबाजों विशेषकर स्पिनर्स की तूती बोलती रही हो, भारतीयों ने एकाध सत्र यदि अपवाद मान लिया जाय तो हमेशा मेहमानों को दबोचे रखा। आप हाशिम अमला के इस दल की दयनीयता को इसी से समझ सकते हैं कि पूरी सीरिज की एक भी पारी में वह ढाई सौ की रन संख्या पार नहीं कर सके और 79 के न्यूनतम स्कोर पर उसका बिखरना यह साबित करता है कि स्पिन के खिलाफ उनके बल्ले की धार किस कदर कुंद थी। दो राय नहीं कि चौथा और अंतिम टेस्ट छोड़ कर मेहमानों का पाला ऐसी पिचों पर पड़ गया था, जिसमें पहले ओवर से ही स्क्वायर टर्न था। 

हालाँकि विराट इस महान जीत का श्रेय टीम के प्रत्येक खिलाड़ी को देते हैं और वे कहीं से गलत भी नहीं हैं, सभी ने मैदान पर अपनी भूमिका निभायी, चाहे वह विकेट के नजदीक जबरदस्त कैचिंग रही हो या बल्लेबाज को सिंगल्स चुराने के लिए तरसा कर रख देना रहा हो। मगर यदि किसी को आपको विशेष श्रेय देना होगा तो अपने छोटे से करियर में पाँचवीं बार ‘मैन आफ द सिरीज’ घोषित रामचंद्रन अश्विन को, जिन्होंने न केवल सबसे ज्यादा 31 विकेट ही लिए बल्कि जरूरत पड़ने पर बल्ले से भी उपयोगी अंशदान किया। हमारी याददाश्त कितनी कमजोर है कि अभी साल भर पहले यह आफ स्पिनर टीम से अपनी जगह तक गँवा चुका था। हम उसे एक ऐसे मैकेनिकल गेंदबाज के रूप में जानने लगे थे जो किसी भी परिस्थिति में राउंड द विकेट से मिडिल-लेग स्टम्प पर गेंद डालता था और बल्लेबाज की गल्तियों पर उसका आश्रित रहना टीम के लिए कितना भारी साबित होता रहा, यह बताने की जरूरत नहीं। ठीक है कि टीम प्रबंधन और कप्तान के निर्देश पर वह ऐसा करते रहे हों। लेकिन जरा सी भी खेल की समझ रखने वाले को झुंझलाहट इस बात की होती थी कि चेन्नई का यह खिलाड़ी जिसने अपना करियर बतौर ओपनिंग बैट्समैन शुरू किया हो, कैसे आफ स्पिन के आफ स्टम्प की लाइन पर गेंद डालने के बेसिक्स भूल गया? हाँ, पिछले विश्वकप के पूर्व अफगानिस्तान के साथ अभ्यास मैच के दौरान अश्विन रूपांतरित दिखे और इसके बाद से इस लम्बोतरे ने फिर मुड़ कर नहीं देखा। अपने तरकश में विविधता के तीरों का सामयिक और अचूक प्रयोग कैसे किया जाना चाहिए, उनकी गेंदबाजी वाकई युवा स्पिनर्स के लिए एक सबक की तरह रही। यही नहीं एक आफ स्पिनर कैसे लेग स्पिनर में ढल जाता है, यह भी कोई उनसे सीखे। चाहे श्रीलंका रहा हो या यह अफ्रीकी टीम, उन्होंने बल्लेबाजों को चैन की साँस लेने का ज्यादा मौका नहीं दिया। यदि यह कहूँ कि वर्तमान में विश्व के नंबर एक अश्विन संपूर्ण स्पिन पैकेज हैं, तो कतई गलत नहीं होगा। अपने नये आक्रामक कप्तान से मिला समर्थन लगता है दूर तलक यानी विदेशी घरती पर भी उनके लिए वैसे ही कारगर साबित होता रहेगा।

हैरत हुई एक बदले हुए रविंद्र जडेजा को देख कर। अश्विन का सही मायने में जोड़ीदार बाएँ हाथ का यह स्पिनर भी टीम से अपनी जगह खो बैठा था और लगता था कि उसके करियर का कहीं असमय अंत तो होने नहीं जा रहा। लेकिन सौराष्ट्र के इस हरफनमौला ने, जिसके नाम प्रथम श्रेणी में तीन तिहरे शतक हैं, अपनी कमियों पर काफी काम किया। राजकोट स्थित अपने स्टड फार्म पर बिना जीन के नगीं पीठ पर घुड़सवारी करने वाले जडेजा शायद इसीलिए टीम के सबसे फिट खिलाड़ी यूँ ही नहीं समझे जाते। वर्तमान सत्र के रणजी मैचों में गेंदबाजी की धार पैनी कर सामने वाली टीमों की कमर तोड़ने वाले जडेजा की इस प्रचंडता ने उनकी राष्ट्रीय टीम में वापसी करायी और उन्होने भी अश्विन की तरह जब तब बल्ले से भी बेहतर हाथ दिखाते हुए 23 विकेट झटक कर टीम की अपार सफलता में अपना अहम अंशदान किया। ठीक है कि विदेशी धरती पर उनकी शैली उतनी कारगर भले ही न हो और समय शायद इसका जवाब देगा। परंतु इस श्रृंखला में तो जडेजा ने बल्लेबाज को किस कदर भरमाया कि मत पूछिए। आप फ्लाइट देंगे तो टर्न और बाउंस मिलना ही मिलना है। फिर गेंदबाजी के अनुकूल विकेट पर जडेजा की स्किड होती गेंद कम माथा दर्द साबित नहीं होतीं। गेंद लेग ब्रेक होगी, या आर्मर सीधी रह जाएगी, इसको भाँपने में मेहमानों को छठी का दूध याद आ गया। गेंद छोड़े या खेलें, वे इसी में ‘मारे गए गुलफाम’ हो गए। जडेजा नें बल्लेबाजी में कुछ सुधार जरूर किया है मगर एक हरफनमौला के रूप में जगह स्थायी करने के लिए उन्हें बल्लेबाजी में अपनी मनोदशा और एकाग्रता पर ज्यादा मेहनत करने की जरूरत है। 

अश्विन और जडेजा के बाद यदि तीसरा नायक कोई था तो वह आजिंक्य रहाणे ही है। घरेलू स्तर पर बरसों से धाकड़ प्रदर्शन में मशगूल इस मुंबइकर को अनावश्यक टेस्ट टीम के लिए कितना लंबा इंतजार कराया, यह इसी से जाहिर हो जाता है कि पहला टेस्ट खेलने जब वह उतरे थे, तब उनके कोष में उन्नीस प्रथम श्रेणी के शतक थे। द. अफ्रीका रहा हो या न्यूजीलैंड, इंग्लैंड अथवा आस्ट्रेलिया, सर्वत्र बल्ले से स्वयँ को पुजवाने में कामयाब रहाणे बस अपने घर में ही नाकाम हो रहे थे। दिल्ली टेस्ट के पहले उनका घरेलू सीरिज में छह या सात का अकिंचन सा औसत और पंद्रह का सर्वश्रेष्ठ स्कोर उनकी काबिलियत पर सवाल तो नहीं खड़ा करने वाला था पर चिंता जरूर थी उनके चाहने वालों को कि पिच पर सबसे ज्यादा आश्वस्त दिखने वाला आखिर कब अपने देशवासियों के सामने रंग में आएगा ? रहाणे ने उन्हें निराश नहीं किया और पूरी धमक के साथ दिल्ली टेस्ट की दोनों पारियों में शतकीय प्रहारों से उन्होंने न सिर्फ सीरिज में सारी कसर निकाल ली बल्कि वह ऐसी विरल उपलब्धि अर्जित करने वाले अपने महान पूर्ववर्ती साथियों विजय हजारे, गावस्कर (3), राहुल द्रविड़ (2) और विराट कोहली के क्लब में शामिल भी हो गये। उन्होंने गल्तियों से सीखा और पाया कि धैर्य से बड़ा कुछ भी नहीं। गेंद के आने का इंतजार करो, न कि चढाई करो। क्या पेस और क्या स्पिन दोनों पर समान अधिकार वाकई अब उनकी थाती बन चुका है। किस तरह से उन्होंने मेहमान स्पिनर्स को पावों के चपल प्रयोग से भोथरा बनाया, वह देखते ही बना।

रहाणे के अलावा इस सीरिज में ओपनर मुरली विजय ने, जो पिछले इंग्लैंड दौरे के बाद से लगातार न सिर्फ बल्ले से स्थायित्व दिखा रहे हैं बल्कि उन्होंने देर ही सही, अंतत: टीम में भी अपनी जगह पक्की कर ली है, एक बार फिर एक छोर संभाला लेकिन उनके दूसरे साथी शिखर धवन के लिए यही बात नहीं कही जा सकती। नजरें जमाने के बाद बढ़िया शुरुआत को बड़ी पारी में बदल पाने की नाकामी नें उनके टीम में बने रहने पर सवालिया निशान खड़े कर दिए हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो रोहित शर्मा को लेकर है कि आखिर कब तक…? पिछले सात-आठ सालों से अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में मौजूदगी के बावजूद अभी तक टेस्ट में खुद को स्थापित करने में नितांत असफल रोहित की समस्या सुरेश रैना की मानिंद तकनीकी नहीं वरन खुद की आत्मघाती मानसिकता है। सचिन जिस रोहित को कोहली के साथ अपना सच्चा उत्तराधिकारी मानते हों, शायद उनको भी अपने इस मुंबई के साथी के हाहाकारी शाट्स चयन पर कम मायूसी नहीं हो रही होगी। भाग्यवान हैं रोहित कि सचिन की विदाई सिरीज में वेस्टइंडीज के खिलाफ टेस्ट पदार्पण में लगातार दो शतकों के बाद मिली लगातार असफलताओं के बावजूद वह टीम में बरकरार हैं। मगर आखिर कब तक…? यह सवाल वह स्वयँ से पूछें।

जहाँ तक विराट कोहली का प्रश्न है तो बल्ले से उनका भी दिल्ली टेस्ट के अलावा प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा। आफ स्टम्प पर उनकी संदिग्ध प्रतिभा नें यहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा। लेकिन आखिरी टेस्ट की दोनों पारियों में वह किस कदर निखर कर सामने आये यह बताने की जरूरत नहीं और यह भी नहीं कि देश को एक ऐसा कप्तान मिला है जिसकी आँख में एक आग हमेशा धधकती नजर आती है और जिनकी कल्पनाशीलता सचमुच उनकी आक्रामकता में चार चाँद लगा देती है। हालिया वर्षों में हम अक्सर पाते थे कि सामने वाली टीम अगर प्रतिरोध करती तो उस पर प्रत्याक्रमण की कमी से विदेशी धरती पर सामने दिख रही जीत ने कई मौकों पर भारतीय टीम मुंह चिढाया। लेकिन यह कप्तान अपनी जवाबदेही खूब समझता है। वह इस तथ्य से भी खूब वाकिफ है कि आक्रमण ही सर्वश्रेष्ठ सुरक्षा है। मोहाली रहा हो या नागपुर वहाँ उनको स्पिन मूलक पिच पर इस तरह की कसौटी पर घिसने की जरूरत नहीं पड़ी। लेकिन देश की राजधानी के फिरोजशाह कोटला मैदान पर परंपरागत धीमें और कम उछाल वाले विकेट पर वह तेजाबी परीक्षण में 100% खरे निकले। सामने बल्लेबाजों नें जब पिच को पकड़ कर खेलने का जिगरा दिखाया तब भी विराट ने आक्रामकता का परित्याग नहीं किया और आठ आठ फील्डर्स से उनको घेरे रखा और सफलता ने कैसे कदम चूमें, यह अब एक स्वर्णिम इतिहास है। गेंदबाजों ने जो फील्ड चाहा, उनको मिला, किस बल्लेबाज के खिलाफ कौन सी रणनीति अपनानी है, उसको हमने पूरी शिद्दत से पाया। फिर, आप लाख मनमाफिक पिच बना लीजिए, सफलता के लिए आपको वैसी ही गेंदबाजी करनी होगी।

कप्तान की इसमें सबसे अहम भूमिका होती है। याद कीजिए इंग्लैंड के खिलाफ तीन साल पहले क्या हुआ? हम टापते रहे और मेहमान स्पिनर्स स्वान और मोंटी पनेसर ने भारतीय बल्लेबाजों की खाट खड़ी करते हुए सीरिज मेहमानों के नाम कर दी थी। एक बात पूछता हूँ कि कोहली की कप्तानी के पहले तेज गेंदबाज उमेश यादव जो विकेट के चारों ओर गेंदबाजी के लिए बदनाम थे, क्या आप सोच सकते हैं कि दिल्ली में उनका गेंदबाजी का हैरतअंगेज विश्लेषण 21-16-9-3 का हो सकता था? कप्तान जब भरोसा करता है तब गेंदबाज भी अपना कलेजा निकाल कर रख देता है। उमेश की यह गेंदबाजी दूर तक जाएगी, यह मानने में हर्ज नहीं और इसमें भी नहीं कि कलाई के लेग स्पिनर अमित मिश्रा को अंतिम टेस्ट में बाहर जरूर बैठना पड़ा मगर घर के बाहर वह अश्विन के साथ टीम के अमोघ अस्त्र साबित होंगे, इसमें भी संदेह नहीं।

मेहमानों का पिच को लेकर प्रलाप समझ से परे रहा। आज की क्रिकेट में सिद्धांत और परंपरा जैसे शब्द बेमानी हो चुके हैं। जब जीत सब कुछ हो जाती है तब पहली वरीयता घरेलू परिस्थितियों का अधिकतम दोहन की ही एकमात्र बची रह जाती है। द। अफ्रीकी यहां दो अंकों में सिमटे तो वे यह क्यों भूल जाते हैं कि अपने घर में भी भारतीयों को घसियाली और बला की उछाल वाली तेज पिचों पर भारतीयों का भी उन्होंने ऐसे ही काम तमाम किया था। फिर टेस्ट क्रिकेट संपूर्णता का दूसरा नाम है। पेस और स्पिन पर बल्लेबाज का समान अधिकार होना हर दृष्टि से अपरिहार्य है।

यहाँ मेहमान बल्लेबाज कुछ ज्यादा ही नक्कारे साबित हुए। हाँ यह हर किसी को निर्विवाद स्वीकार करना होगा कि एवी डीविलियर्स वर्तमान में दुनिया के नंबर एक बल्लेबाज हैं सभी फार्मेट में। पूरी सिरीज में यही एकमात्र ऐसा योद्धा था जिसनें दिखा दिया कि विपरीत स्थिति में कैसे बल्लेबाजी की जाती है। वह और कप्तान हाशिम अमला नें नागपुर टेस्ट की दूसरी पारी और दिल्ली में दिखाया स्पिन के खिलाफ धैर्य, शेष सभी के दिमाग में टर्न और स्पिन घुसे हुए थे और अधिकांश सीधी गेंदों को टर्न समझ कर छोड़ते रहे और उनका काम भी लगता रहा। हालाँकि दिल्ली टेस्ट सीरिज में एकमात्र था जो पाँचवें दिन के अंतिम सत्र तक खिंचा। अन्यथा दोनों टेस्ट तीन दिन में ही निबट गये। लेकिन जिस तरह से मेहमानों नें पौने पाँच सौ से भी ज्यादा के लगभग नामुमकिन से टारगेट के सम्मुख पहली ही गेंद से जो डिफेंसिव नजरिया अपनाया, उसकी यदि तारीफ नहीं की तो यह सरासर अन्याय होगा। एक दिनी में 31 गेंदों पर तीव्रतम शतक लगाने वाले विश्व रेकार्डघारी डीविलियर्स नें आप कल्पना नहीं कर सकते थे कि खाता खोलनें में उन्होंने 33 गेंदों का सामना किया। यहीं नहीं 297 गेंदों पर उनके 43 और 244 गेंदों पर अमला के 25 रन को आप क्या जीवट भरा प्रदर्शन नहीं कहेंगे? यही नहीं डुप्लेसी की भी 92 गेंदों पर दस रन की पारी सचमुच टेस्ट क्रिकेट की जबरदस्त मार्केटिंग रही। 143.1 ओवरों में द. अफ्रीकियों के बने उतने ही रनों ने यद्यपि भारत को रनों के लिहाज से सबसे बड़ी जीत से जरूर नवाजा। परंतु इस वास्तविकता से भी इनकार नहीं कि मेहमानों ने दिल्ली में अपनी इसी रक्षात्मक बल्लेबाजी से अंतिम दिन चायपान के समय ड्रा की उम्मीदें रौशन कर दी थीं। जब मेहमान पाँच विकेट पर 135 रन बना चुके थे। यह बात दीगर है कि सात रनों के भीतर पाँचों बल्लेबाजों को चलता कर कोहली के जाबाँजों नें सीरिज को यादगार बना दिया। 

अब देश को टेस्ट सिरीज जून में ही खेलनी पड़ेगी। इसके पहले फटाफट क्रिकेट से ही उसका पाला पड़ना है जिसमें अगले वर्ष घर में ही होने जा रहा टी-20 विश्व कप भी शामिल है। फिजाओं में यह सवाल तैरने लगा है कि क्या कोहली को सभी फार्मेट में कप्तान नियुक्त करने का समय नहीं आ चुका है?

अंत में चलते चलाते यह कहना ही होगा कि यह वर्ष खेलों के लिहाज से संतोषजनक रहा। बैडमिंटन में सायना और सिंधु के अलावा श्रीकांत का जलवा बरकरार रहा तो हाकी में सरदारा की अगुवाई में 33 बरस बाद भारत को किसी विश्व स्तरीय हाकी स्पर्धा में पदक मिला। क्यों न मान कर चला जाये कि भारतीय हाकी में अच्छे दिनों की एक बढ़िया शुरुआत है और अब टीम को आगे ही देखना है। क्रिकेट और हाकी की ये सफलताएँ बीते इसी दिसंबर में आयीं, यानी अंत भला तो सब भला।

(देश मंथन, 15 दिसंबर 2015)

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