राकेश कायस्थ :
साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का जो सिलसिला चल रहा है, उसे लेकर फेसबुक पर हो रही लतीफेबाजी क्या दर्शाती है? आखिर वे कौन लोग हैं, जो चुटकले बना रहे हैं और तालियाँ पीटकर खुश हो रहे हैं? पुरस्कारों की वापसी का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उसके पीछे कोई लंबी चौड़ी कहानी नहीं है।
देश में पिछले एक साल में कई लेखकों और चिंतकों की हत्या हुई है। कन्नड़ के प्रतिष्ठित लेखक एम.एम. कलबुर्गी को मार दिया गया। उन्हे धमकियाँ पहले से मिल रही थीं। कलबुर्गी को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिल चुका था। यह न्यूनतम संस्थागत शिष्टाचार होता, अगर साहित्य अकादमी इस हत्या की निंदा करती और सरकार से लेखकों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की माँग करती। एक स्वायत्त संस्था होने के नाते ऐसा करना साहित्य अकादमी का फर्ज भी था। लेकिन अकादमी चुप रही। पूरा सरकारी कुनबा भी खामोश रहा। जब सरकार की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं आयी तो फिर लेखकों के बोलने का सिलसिला शुरू हुआ। इस बीच देश में लगातार कई ऐसी घटनाएँ हुईं जिनसे लोगो को यह लगा कि सत्ता से जुड़े लोग, सरकारी तंत्र और पूरा भारतीय समाज असाधारण ढंग से असहिष्णु होते जा रहे हैं। किसी को भी जरा सी आलोचना बर्दाश्त नहीं है। जहाँ भी आप संवाद करने में असहज होते हैं, हिंसक हो उठते हैं। इन चिंताओं ने लेखकों को मुखर होने पर मजबूर किया। पुरस्कार लौटाना ध्यान आकर्षित करने का एक तरीका है। उदय प्रकाश के बाद कई भाषाओं के लेखक पुरस्कार लौटा चुके हैं।
अब जरा सोशल मीडिया पर रियेक्शन देखिये– खाली ट्रॉफी लौटाई या पैसा भी लौटाया है? पब्लिसिटी स्टंट है, पंद्रह साल रखने के बात लौटाया तो कौन सा बड़ा काम किया। पब्लिसिटी स्टंट बताने वाले यह भी नहीं देखते कि पुरस्कार लौटाने वालों में कृष्णा सोबती की उम्र 90 साल और नयन तारा सहगल की उम्र 88 साल है। इस पूरी चर्चा में आपने कितनी बार वो सवाल सुने जो लेखक उठा रहे हैं? इल्जाम सिर्फ एक लाइन में यह है कि बढ़ रही असहिष्णुता को लेकर सरकार संवेदनशील नहीं है। अगर सरकार को लगता है कि समाज में असिहष्णुता नहीं बढ़ रही है या वह इस तरह की घटनाओं को लेकर संवेदनशील है तो फिर सामने आकर यह बता देने में क्या हर्ज है? आखिर सरकार लेखकों से यह क्यों नहीं कह पा रही है कि आप गलत हैं, बेकार का बखेड़ा खड़ा कर रहे हैं, हम अपना काम ठीक से कर रहे है।
ऐसा ना कहने कि दो वजहें हैं। पहली बात यह कि सरकार के पास यह कहने की नैतिक ताकत नहीं है। दूसरी बात यह कि सरकार की नजर में लेखकों की कोई औकात नहीं है। अब सवाल यह है कि सरकार की नजर में लेखकों की औकात क्यों नहीं है? इसका जवाब बेहद कड़वा है। ऐसा इसलिए है कि देश के लोगों की नजर में लेखक की कोई औकात नहीं है। हिंदी के सुपर स्टार उदय प्रकाश को देश से बाहर भी लोग जानते हैं। लेकिन आप 25 साल से कम उम्र वालों नाम पूछकर देख लीजिये.. मेरा दावा है कि ज्यादतर लोगो ने नाम तक नहीं सुना होगा। समाज जहाँ लेखक का सम्मान नहीं करेगा तो फिर सरकार क्यों गंभीरता से लेगी?
पुरस्कार लौटाने वाले लेखकों की तादाद बढ़ती जा रही है। उन्हे देखकर ऐसा लग रहा है, जैसे पागलों का कोई हुजूम चला जा रहा है। पुनर्उत्थानवादी संस्कृति मंत्री जी अपनी महान संस्कृति के कंगूरे पर खड़े होकर तमाशा देख रहे हैं। पागलों के पीछे भौंकने के लिए कुत्ते छोड़ दिये गये हैं। फेसबुक और ट्विटर की बालकोनी पर खड़े होकर असंख्य लोग शोहदों की तरह सीटियाँ बजा रहे हैं, इन लोगो में आपको बहुत सारे ऐसे चेहरे भी नजर आएँगे, जिनके बारे में आपको भ्रम था कि ये लोग कुछ पढ़ते-लिखते होंगे। यह मेरे 42 साल के जीवन का सबसे क्रूर, फूहड़ और अश्लील दृश्य है।
(देश मंथन, 13 अक्तूबर 2015)