मीडिया के सामने विश्वसनीयता का सवाल

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प्रख्यात पत्रकार और जनसत्ता के संस्थापक संपादक प्रभाष जोशी की पुण्य स्मृति में प्रभाष परंपरा न्यास ने उनके जन्मदिन के सप्ताह में रविवार 20 जुलाई 2014 को राजघाट स्थित गांधी स्मृति दर्शन में एक व्याख्यान प्रभाष प्रसंग – 5 का आयोजन हुआ।

इसमें मुख्य व्याख्यान हिंदुस्तान टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के संपादक रह चुके प्रसिद्ध पत्रकार और लेखक बी. जी. वर्गीज ने दिया। इस कार्यक्रम में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए और अध्यक्षता हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने की। प्रभाष जोशी के सहकर्मी और वरिष्ठ पत्रकार राम बहादुर राय और गांधी दर्शन की निर्देशिका मणिमाला ने भी प्रभाष जोशी से जुड़ी अपनी कुछ यादें सबके सामने रखीं। इस अवसर पर प्रभाष जोशी के लेखों का एक संग्रह ‘कहने को बहुत कुछ था’ का लोकार्पण भी किया गया। व्याखान के बाद रंगकर्मी शेखर सेन ने काव्य नाटक कबीर का एकल मंचन किया।

बी. जी. वर्गीज ने इस अवसर पर जो मुख्य व्याख्यान दिया, वह समकालीन मीडिया की दशा-दिशा और चुनौतियों के बारे में एक गंभीर और विचारोत्तजक दस्तावेज है। प्रस्तुत है उनके व्याख्यान का हिंदी अनुवाद…

आज का मीडिया : बी. जी. वर्गीज का व्याख्यान

प्रभाष जोशी जी की याद में व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किये जाने पर मैं गौरवान्वित महसूस कर रहा हूँ। वे मेरे पारिवारिक मित्र और इंडियन एक्सप्रेस में घनिष्ठ साथी रहे। उससे भी आगे बढ़ कर वे एक सम्मानित पत्रकार थे। हमने बहुत सारे पेशेवर और सामाजिक मूल्य के कामों में साझेदारी की है। मैं प्रभाष जोशी के कार्यों और सरोकारों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रसंशक रहा हूँ। आपातकाल के दौरान हमारे रिश्तों में आयी मजबूती उस आखिरी वक्त तक बनी रही, जब पेड न्यूज की बढ़ती बुराई के खिलाफ उन्होंने अभियान चलाया था। 

मेरी समझ से आधुनिक मीडिया 300 साल से अधिक पुराना नहीं है। यह वैश्विक स्तर पर शुरू हुए सुधार आंदोलनों और नवजागरण के साथ ही सामने आया। प्रौद्योगिकी की खोजों के साथ-साथ इसमें बदलाव आया। प्रिंटिंग प्रेस, टेलीग्राफ, रेलवे, स्टीमर और केबल के आने के बाद इसने गति पकड़ी। रेडियो, फिल्म, टीवी, चिप, कंप्यूटर, सैटेलाइट, इंटरनेट, सेलफोन, आईपैड, फेसबुक और यूट्यूब आदि के आने के साथ मीडिया में क्रांतिकारी परिवर्तन आ गया।

मैं उस काल में पैदा हुआ जब रेडियो ही संचार का प्रमुख माध्यम था। पत्रकारिता की दुनिया में मैंने तब प्रवेश किया जब हॉट मेटल/रोटरी युग था। तब डाक संस्करणों के लिए 24 घंटे काम करना पड़ता था। बहु-संस्करणों और ऑफसेट काल में मैं परिपक्व हुआ। कंप्यूटर युग की शुरुआत में ही रिटायर हो गया। अब मीडिया का अर्थ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, इंटरनेट, ब्रेकिंग न्यूज और सोशल मीडिया है। यह सब मेरी समझ से परे है। हम हर क्षण, 24 घंटे दुनिया से जुड़े रहते हैं। आज मीडिया में कुछ भी पुराने जैसा नहीं है। अब दुष्प्रचार और अफवाह का सूचना के साथ मुकाबला है। 

फिलहाल, मल्टीमीडिया का वातावरण अलग होने के साथ-साथ लगातार बदल रहा है। मैनेजर और कॉरपोरेट हाउस का प्रभुत्व है। मीडिया का बड़ा हिस्सा विषय-वस्तु के लिहाज से सतही और सनसनी पैदा करने वाला, मनोरंजक और रेटिंग का भूखा हो गया है। आज के दौर में भारतीय मीडिया की असलियत जानने,  हम कहाँ खड़े हैं – यह देखने और हमें किस दिशा में जाना चाहिए, इसको समझने की जरूरत है। जैसा कि कुछ लोगों का विचार है,  इसे तीसरे प्रेस आयोग के जरिये हासिल नहीं किया जा सकता है। प्रिंट मीडिया को अलग करके नहीं देखा जा सकता है, बल्कि यह भी व्यापक मीडिया का ही हिस्सा है।

दूसरा विश्व-युद्ध समाप्त होने के बाद अमेरिका ने अपने प्रेस के हालात की समीक्षा के लिए “हचिंस आयोग” का गठन किया था, जिसके अंतर्गत अमेरिका की ढेर सारी प्रभावी शख्सियतें एकजुट हुईं। आयोग ने कॉर्पोरेट जोड़-तोड़ के उलट सामाजिक जिम्मेदारी निभाने और निष्पक्षता एवं संतुलन की जरूरत पर जोर दिया। युद्ध के बाद भूमंडलीय ताकत के तौर पर उभरने के चलते अमेरिकी मीडिया अंतरराष्ट्रीय मामलों में ज्यादा रूचि लेने लगा। “हचिंस आयोग” की रिपोर्ट का अमेरिका के बाहर भी व्यापक स्तर पर हवाला दिया जाने लगा। 

उसके बाद 1970 के अंत में यूनेस्को ने “मैकब्रिड आयोग” का गठन किया। इसका काम वैश्विक स्तर पर सूचनाओं का बेहतर आदान-प्रदान सुनिश्चित करना था, ताकि उत्तर और दक्षिण (तीसरी दुनिया के देशों) के बीच बेहतर राजनीतिक और सामाजिक संतुलन सुनिश्चित किया जा सके। इस पहल ने भी मीडिया पर काफी प्रभाव डाला।  

आज स्थिति पूरी तरह से अलग है। भारतीय मीडिया का बड़े स्तर पर विस्तार हुआ है। वह संचार के बिल्कुल नये युग में प्रवेश कर गया है, जहाँ सोशल मीडिया में हर पुरुष और महिला एक “सिटिजन जर्नलिस्ट” है। प्रत्येक शुरुआत का एक समय के भीतर प्रसार और विश्लेषण होता है। मैं नये मीडिया के रचनात्मक प्रयोगों का हिमायती हूँ। इसके लिए बुद्धिजीवी और खुले दिमाग के लोगों को आगे आना चाहिए। यदि संभव हो तो सरकार के बाहर एक “ब्लू-रिबन आयोग” का गठन करना चाहिए, जिसमें शिक्षाविद, वैज्ञानिक, प्रशासक, विचारक, राजनीतिज्ञ, कॉर्पोरेट हाउस के प्रमुख, सामाजिक कार्यकर्ता, मजदूर, नेता, संस्कृतिकर्मियों और महिलाओं की भागीदारी हो। यह समिति निश्चित समय में अपनी रिपोर्ट दे। उसके बाद यह सार्वजनिक बहस आगे की कार्रवाई के लिए आधार बन सकती है। हमें अपनी सोच में व्यापक बदलाव लाने की जरूरत है।

वर्तमान समय में भारतीय मीडिया संकट में है। समूची मीडिया के सामने विश्वसनीयता को बनाये रखने का गंभीर सवाल है। प्रबंधकों ने संपादकों का स्थान ले लिया है। वहीं पर गपशप और सनसनी ने खबरों को बेदखल कर दिया है। इस प्रक्रिया में निष्पक्षता को नुकसान पहुँचा है। अगर प्रिंट मीडिया मुसीबत में है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कुछ हिस्से नियंत्रण से बाहर चले गये हैं। प्रेस परिषद कमजोर है तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उससे भी ज्यादा कमजोर और अनियंत्रित है। तेजी से बढ़ता सोशल मीडिया नियंत्रण के ढाँचे से मुक्त है। यह बेहद गैर जिम्मेदाराना, विवादास्पद, चेहरा-विहीन, खुद की सेवा करने वाला और बँटा हो सकता है। यह अक्सर अफवाहों और साजिशों को तरजीह देता है, जो हिंसा और अशांति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

आज मीडिया का नेतृत्व ऐसे हाथों में है, जिन्हें सच्ची खबरों की परख करने की चिंता नहीं होती है। वे खबर ‘ब्रेक’ करने में लगे रहते हैं। शेष मीडिया ‘ब्रेकिंग न्यूज’ का पीछा करके उसे एक व्यक्तिपरक वास्तविकता बना देता है, जो वास्तविक सच्चाई से बहुत दूर होता है। मीडिया की आपसी प्रतिद्वंद्विता अनर्गल टिप्पणी और गपशप को बढ़ावा देती है। परिणामस्वरूप तथ्यों की जाँच-पड़ताल के बिना मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है। सूचनाओं की सत्यता जानने की जरूरी प्रक्रिया के नष्ट होने से संस्थानों की और व्यक्तिगत प्रतिष्ठा कुछ ही क्षणों में बर्बाद हो सकती है। व्यक्तियों और संस्थानों को निर्दोष साबित होने से पहले कोई भी उन्हें ‘आरोपी’ के तौर पर दोषी करार दे देता है।

सबसे बुरी बात यह है कि खबरों का आसानी से राजनीतिकरण किया जाता है। राजनीतिक दल और वैचारिक समूह अनर्गल भावनाओं को उभारने और फिर उससे खेलने के लिए मैदान में उतर पड़ते हैं। कोई भी सामान्य आदमी गैर-जिम्मेदार रिपोर्टिंग, संदिग्ध स्टिंग ऑपरेशन और बिना सूत्रों की वीडियो क्लिप के अनगिनत मामलों को गिना सकता है। कोकराझार और मुजफ्फरनगर के दंगों के शुरू होने और उसको फैलाने के लिए सोशल मीडिया जिम्मेदार था। “राशोमन परीक्षण” के वो दिन लद गये जब संवाददाताओं को खबरों के सभी पहलुओं को जानना जरूरी होता था। जो भी सच के सबसे करीब होता था, उसे प्रस्तुत किया जाता था। आप देखिये आरुषि हत्याकांड और हाल में एक कानून प्रशिक्षु के यौन छेड़छाड़ के आधार पर आरोपी बनाये गये न्यायमूर्ति गांगुली पर मीडिया के आरोपों की कैसी रिपोर्टिंग की गयी। जज का पीछा किया गया था और ‘पीड़िता’ ने उसके बाद आगे आकर गवाही देने से ही इन्कार कर दिया।

‘इंबेडेड खबर’ की शुरुआत इराक युद्ध की कवरेज के दौरान अमेरिकी सरकार ने की थी। भारतीय मीडिया की मुख्यधारा ने दो साल पहले रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के आमरण अनशन की कवरेज के दौरान और उसके बाद की घटनाओं में बेशर्मी से इसकी नकल की। बहरहाल ढेर सारी अच्छी रिपोर्टिंग और निष्पक्ष विश्लेषणों की प्रशंसा किये बगैर प्रेस को कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं होगा। 

कॉर्पोरेट दुनिया समेत उन प्राधिकरणों का उतावलापन भी चिंता का विषय है, जो अपने विज्ञापनों की ताकत के जरिये अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट देना चाहते हैं। कुछ तथाकथित विवादित किताबों और फिल्मों पर पाबंदी लगा देना आम बात है। ऐसी किताबों और फिल्मों पर देश के एक तबके की भावनाओं को आहत करने का आरोप लगाया जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि वह ‘कथित तबका’ और ‘कारण’ कभी सामने नहीं आता। ऐसे ही एक मामले में एम. एफ. हुसैन का तब तक पीछा किया गया, जब तक वे देश नहीं छोड़ गये। ‘नैतिक पुलिस’ का खौफ परवान पर है। तृणमूल कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और वामपंथी, भाजपा और यहाँ तक कि कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों के हथियारबंद गुंडे अपने विरोधियों पर कहर बन कर टूट पड़ते हैं और उनकी हत्या से भी बाज नहीं आते हैं। राजनीतिक पक्षपात की वजह से कानून अपना काम नहीं कर पा रहा है। इससे अनियंत्रित भाषा और अमर्यादित व्यवहार का चलन बढ़ गया है। दुर्भाग्य से इस तरह के व्यवहारों को अक्सर मीडिया ज्यादा तवज्जो देता है। बहसों और बातचीत को इस तरह संचालित करता है जो भावनाओं को भड़काने, समाज को बाँटने और उच्च नीति के मुद्दों से जुड़े सच को छुपाने और भ्रम को बढ़ाने वाला हो।

इन रुझानों के नकारात्मक असर के बावजूद यह लगता है कि हमारी सरकार मीडिया का नियमन करने की जरूरत नहीं समझती है। क्या ऐसा करने पर अभिव्यक्ति की आजादी पर लगाम लग जायेगी? यह भी एक पाखंड है। अमेरिका में “फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन” है, जो मीडिया संबंधी मानकों की निगरानी और शिकायतों का निराकरण करता है। ब्रिटेन अपने ‘ब्रॉडकास्ट कंप्लेंट कमीशन’ का फिर से गठन कर रहा है। दूसरे देशों में भी इसी तरह की संस्थाएँ हैं। इस मामले में भारत अनोखा देश है, जिसके पास मीडिया के शिकायत की अपनी कोई कानूनी संस्था नहीं है। प्रसार भारती के गठन के साथ शिकायत आयोग और व्यावसायिक चैनलों के लिए प्रसारण आयोग के गठन का प्रस्ताव था। इससे प्रसार भारती और व्यावसायिक चैनलों के लिए दो अलग-अलग संस्थाओं के होने पर भ्रम पैदा होता। इसलिए शिकायत आयोग के गठन को ही रद्द कर दिया गया और प्रसारण आयोग के गठन की प्रक्रिया ही आगे नहीं बढ़ी। नतीजे के तौर पर भारत में शिकायत के लिए कोई औपचारिक प्रसारण संस्था नहीं है। यह बहुत बड़ी कमी है। प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए एक बड़े मीडिया शिकायत आयोग के गठन का सुझाव अव्यावहारिक है। दोनों मीडिया अपने चरित्र में एक दूसरे से बिल्कुल अलग हैं। इतनी भारी-भरकम प्रस्तावित संस्था खुद अपने बोझ के तले दब कर खत्म हो जायेगी।

सार्वजनिक प्रसारण सेवा के प्रति सरकार की उदासीनता उसकी छिपी दुश्मनी का हिस्सा है। यह दुश्मनी और भी ज्यादा हानिकारक साबित हुई है। सार्वजनिक प्रसारण सेवा की भूमिका को भारत में शायद समझा नहीं गया। नेहरू ने 1948 में संविधान सभा को बताया था कि बीबीसी की तर्ज पर आकाशवाणी को स्वायत्ता दी जायेगी। पर ऐसा कभी नहीं हो पाया। हालाँकि शुरुआती वर्षों में आकाशवाणी एक हद तक स्वतंत्र था, लेकिन समय के साथ-साथ यह सरकार का भोंपू बनता गया। प्रथम सूचना और प्रसारण मंत्री डॉ. केसकर के नेतृत्व में संस्कृतनिष्ठ हिंदी को सरकारी भाषा का दर्जा देने का मूर्खतापूर्ण फैसला किया गया। इसने सबको नाराज कर दिया। इसने आधिकारिक भाषा के लिए भारतीय भाषाओं, खास कर उर्दू से उधार लेने की जरूरत के अनुच्छेद 3351 के जनादेश की अनदेखी की। साथ ही संचार की जगह समझ की जटिलता को बढ़ाने का काम किया।

आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी की संहिता को ही खत्म कर दिया। निजी मीडिया को सरकार विरोधी माना जाता था। ऐसा कहा जाता था कि वह मालिकों के एकाधिकार के साथ ही ‘जूट प्रेस’ के हाथों की कठपुतली है। इसलिए आकाशवाणी को औपचारिक तौर पर ‘सरकारी नौकर’ घोषित कर दिया गया था। आपातकाल के अनुभवों से सबक लेकर जनता पार्टी की सरकार ने प्रसारण के संदर्भ में एक स्वायत्त संस्था को आकार देने के लिए एक समिति गठित की थी। 1978 में उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने बताया था कि “इसे स्वायत्ता पर सलाह देने का काम सौंपा गया था, लेकिन उसने ‘स्वतंत्रता’ की सिफारिश की है।”

अंततः प्रसार भारती कानून 1990 में पारित हुआ, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के 1995 के एक फैसले के चलते सात सालों यानी 1997 तक लागू नहीं हो पाया। विभिन्न पक्षों के बीच पारस्परिक विवाद में कुछ और संशोधन पारित हुए थे, लेकिन इसके बाद भी प्रसार भारती की वित्तीय मामलों और वरिष्ठ पदों को लेकर सरकार पर निर्भरता बनी रही। यह एक बेहद उलझा हुआ विधेयक था, लेकिन फिर भी एक शुरुआत हुई थी। विडंबना यह है कि प्रसार भारती को कभी मौका ही नहीं दिया गया। इस बीच जो उभर कर सामने आया, वह यह है कि प्रसार भारती सूचना और प्रसारण मंत्रालय और नौकरशाहों के नियंत्रण वाली एक सरकारी संस्था है। थोक मात्रा में प्रतिनियुक्ति पर आये सरकारी कर्मचारियो से यह बनी है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को हाल ही में एक मजबूत मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) से विवाद का सामना करना पड़ा है। बहरहाल, स्थिति जस-की-तस बनी हुई है। 

अपने ‘चार्टर’ के मुताबिक देश के विभिन्नता वाले बहुवर्गीय समाज की सेवा करने के लिए प्रसार भारती जरूरी है। निजी चैनल व्यावसायिक होने के चलते अपनी सभी जरूरतों के लिए विज्ञापनों पर निर्भर रहते हैं, जो पूरी तरह से ‘टीआरपी’ और रेटिंग पर निर्भर करता है। ऐसे में क्या प्रसारित किया जायेगा, यह पूरी तरह से विज्ञापन की जरूरतों के मुताबिक तय होता है। नतीजतन उसके द्वारा लोकप्रिय खेल, मनोरंजन और बाजार में माल और सेवाओं का उपभोग करने वालों की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही कार्यक्रम प्रसारित किये जायेंगे। 

आज के मानदंडों के मुताबिक देश का 30% हिस्सा गरीबी की रेखा के नीचे जीवन गुजारता है, जबकि दूसरा 30% इसके ठीक ऊपर। कड़वी सच्चाई यह है कि प्रत्येक उपभोक्ता एक नागरिक है, लेकिन प्रत्येक नागरिक एक उपभोक्ता नहीं है। कटु सत्य यह है कि गरीब के हिस्से में सूचना और ज्ञान उतना ही पहुँचता है, जैसे किसी अमीर के खाने की टेबल से कोई टुकड़ा किसी गरीब की थाली में गिरे। एक गरीब इंसान को प्रीति जिंटा और नेस वाडिया के बीच हुए झगड़े पर घंटों बहस और तीखी टिप्पणियों के साथ बेवजह की सूचना में क्या रूचि हो सकती है?

हालाँकि खबरों के लिहाज से प्रसार भारती सबसे बेहतर स्रोत बना हुआ है। वहाँ गंभीर तरीके से रिपोर्ट की जाती है। पर दुर्भाग्य से संसद, मीडिया, विज्ञापनदाता और मनोरंजन जगत उसका प्रयोग नहीं करते। प्रसार भारती का एक दुष्प्रभाव यह रहा कि टीवी ने रेडियो को निगल लिया। यह देश के लिए एक बड़ी क्षति है। आकाशवाणी एक गरीब रिश्तेदार बन गया है। इसकी बाहरी और निगरानी सेवाएँ तकरीबन गायब हो गयीं। स्थानीय प्रसारणों को पहले ही रोक दिया गया था। सामुदायिक रेडियो को हतोत्साहित कर दिया गया। वहाँ थोड़ा भी बदलाव नहीं आया है। एफएम चैनल का मनोरंजन के क्षेत्र में बड़ा विस्तार हुआ है। स्थानीय चैनलों को खबरों के कुछ बुलेटिनों तक सीमित कर दिया गया है। 

मीडिया में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की कोई भूमिका नहीं है। इसके अधिकांश अंग जैसे फिल्म विभाग, डायरेक्टरेट ऑफ ऑडियो-विजुअल पब्लिसिटी विभाग स्वायत्त निकाय हो सकते हैं। दैनिक सूचनाओं की जरूरत को विभागीय मंत्रालयों के हवाले कर दिया जाना चाहिए। यूपीए सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी ने बेहद ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकार किया था कि शायद अब समय आ गया है, जब इस मंत्रालय को समाप्त कर दिया जाना चाहिए। इस समय एक सुसंगत राष्ट्रीय संचार नीति की जरूरत है, जो राष्ट्रीय आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते’ के होने के बाद भी गायब है।

पहले भी कहा गया है कि मीडिया के बड़े हिस्से से विषय-वस्तु गायब हो चुकी है। उसका स्थान राजनीतिक पक्षपात और सनसनीखेज खबरों ने ले लिया है। पाक आतंकी हाफिज मोहम्मद सईद से वेद प्रताप वैदिक की मुलाकात पर कुछ चैनलों के ‘राष्ट्रवादी पागलपन’ से किसी को क्या मिलने जा रहा है? इस घटना के मूल्यांकन के लिए किसी का वैदिक की राजनीति और बाबा रामदेव के साथ उनकी घनिष्ठता से सहमत होना जरूरी नहीं है। एक पत्रकार के तौर पर भारत के सबसे बड़े शत्रु के साथ उन्हें एक ‘सनसनीखेज साक्षात्कार’ करने का मौका मिला। इसमें कोई अपराध नहीं है। इसमें ऐसा कुछ नहीं है जिसे हाफिज सईद या फिर पाकिस्तान उसका इस्तेमाल करे। यह बात अलग है कि साक्षात्कार या फिर बातचीत बेहद कमजोर थी। इसमें महत्वपूर्ण मुद्दों पर कोई जोर नहीं दिया गया था और न ही उसमें कोई तत्व था। इसलिए वैदिक ने कमजोर तरीके से इसका इस्तेमाल किया। हालाँकि इस पर एक स्तंभ तो बनता ही था। जो भी हो, उन्हें गद्दार करार देकर लगातार उनका पीछा किया जाना और जेल में डालने की माँग निश्चित तौर पर गलत है।

ऐंकरों और आलोचकों का यह पूछना बिल्कुल अजीब है कि वे किसी इजाजत से गये थे? वे कुछ सवालों को पूछने में क्यों नाकाम रहे? और क्या वे प्रधानमंत्री के दूत बनकर वहाँ गये थे? अगर पत्रकारों को किसी को किसी शख्सियत का साक्षात्कार करने से पहले किसी अधिकारी से इजाजत लेनी पड़े, ऐसे में उन्हें पत्रकारिता की दुकान यहीं बंद कर देनी होगी। भारतीय और अमेरिकी पत्रकारों ने प्रभाकरण और ओसामा बिन लादेन का साक्षात्कार किया था। ‘डेजर्ट स्टॉर्म’ की खबरें भेजने के लिए सीएनएन के संवाददाता पीटर ऑरनेट बगदाद में मौजूद थे। उनकी खबरें अमेरिका के लिए बेहद शर्मनाक और दुनिया के लिए बेहद फायदेमंद साबित हुई थीं। 

इस मामले में सरकार ने साफ कर दिया है कि वैदिक ने अपनी मर्जी से काम किया है। सरकार का इस मुलाकात से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है। भाजपा ने निश्चित तौर पर दोहरा मापदंड अपनाया। पिछले दिनों दिल्ली के कुछ विश्लेषकों के जरिये कश्मीर के कुछ हुर्रियत नेताओं के संदर्भ में संपर्क की बात को ही उसने देशद्रोह के तौर पर पेश कर दिया था। दुखद बात यह है कि कुछ रिपोर्टर और चैनल कश्मीर पर वैदिक की टिप्पणी को पकड़ कर उन्हें राष्ट्रविरोधी और देशद्रोही बताने में जुट गये, जबकि टिप्पणी बिल्कुल तर्कसंगत थी। 

मैं पुराने जमाने का पत्रकार हूँ और सोशल मीडिया के बारे में कुछ नहीं जानता हूँ। लेकिन मैं प्रधानमंत्री के सभी नौकरशाहों, मंत्रियों और आम लोगों को ट्विटर के जरिये सीधे संदेश भेजने की अपील से चिंतित हूँ। यह लोक-लुभावनवाद है, जो सर्वशक्तिमान होने का भ्रम पैदा कर सकता है। आम आदमी पार्टी ने ट्विटर और एसएमएस के जरिये शासन चलाने की कोशिश की थी। आम आदमी पार्टी का यह निर्णय मनोरंजक था, पर इससे कुछ होने वाला नहीं था। लोग सच में संप्रभु हैं। लेकिन हमें मूर्ख भीड़ से सावधान रहना चाहिए।

आज के दौर में यह लगता है कि मीडिया चौथा स्तंभ नहीं बल्कि पहला स्तंभ बन गया है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका अब उसके बाद आते हैं। संचार क्रांति ने अपने भीतर बहुत ताकत जुटा ली है। इसका पूरी जिम्मेदारी के साथ इस्तेमाल होना चाहिए। अंततः मीडिया ‘समय के भीतर सच’ लोगों तक पहुँचाने के लिए प्रतिबद्ध हो। उसे अपनी ताकत के अनुपात में जिम्मेदारियों का निर्वाह करना चाहिए। मीडिया को केवल कमाई ही नहीं, बल्कि मिशन के अपने मौलिक उद्देश्यों की तरफ लौटना चाहिए। 

(देश मंथन, 26 जुलाई 2014)

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