क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :
मन के अन्दर, कितनी गाँठों के कितने अजगर, कितना जहर? ताज्जुब होता है! जब एक पढ़ी-लिखी भीड़ सड़क पर मिनटों में अपना उन्मादी फैसला सुनाती है, बौरायी-पगलायी हिंसा पर उतारू हो जाती है। स्मार्ट फोन बेशर्मी से किलकते हैं, और उछल-उछल कर, लपक-लपक कर एक असहाय लड़की के कपड़ों को तार-तार किये जाने की ‘फिल्म’ बनायी जाने लगती है। यह बेंगलुरू की ताजा तस्वीर है, बेंगलुरू का असली चेहरा है, जो देश ने अभी-अभी देखा, आज के जमाने की भाषा में कहें तो यह बेंगलुरू की अपनी ‘सेल्फी’ है, ‘सेल्फी विद् द डॉटर!’
यह अकेले बेंगलुरू की ‘सेल्फी’ नहीं है!
लेकिन यह ‘सेल्फी’ अकेले बेंगलुरू की नहीं है। यह देश की ‘सेल्फी’ है। देश के किसी हिस्से में ऐसी घटना कभी भी हो सकती है। होती ही रहती है। दिल्ली, मुम्बई, गोवा, कहाँ ऐसी घटनाएँ नहीं हुईं, या अकसर नहीं होती रहती हैं! उस तंज़ानियाई लड़की के साथ ऐसा हादसा क्यों हुआ? इसीलिए न कि आधे घंटे पहले एक सूडानी मूल के एक व्यक्ति की कार से कुचल कर एक महिला की मौत हो गयी थी। तो इसमें उस लड़की का क्या दोष? दोष यही था कि लोगों की नजर में वह ‘काली’, ‘हब्शी’, ‘अफ़्रीकी’ थी और ‘देखने में उसकी नस्ल’ के किसी आदमी ने एक ‘स्थानीय’ महिला की जान ले ली थी, इसलिए लोग उसे ‘सजा’ देने पर उतारू हो गये।
बेंगलुरू के लिए नयी बात नहीं है यह
यह साफ-साफ रंगभेद और नस्लभेद का मामला है। और बेंगलुरू में यह बात कौन नहीं जानता। पाँच साल पहले वहाँ के पबों में अफ़्रीकी मूल के लोगों के आने पर पाबन्दी का मामला तो काफी चर्चित हो चुका है। पिछले साल ही शहर के अलग-अलग इलाकों में अफ़्रीकियों पर हमले और मार-पिटाई की कई वारदातें हो चुकी हैं। शिकायतें तो इस हद तक हैं कि आटोवाले उनसे ज्यादा किराया माँगते हैं। किराये पर मकान आसानी से नहीं मिलते और अगर मिलते हैं तो बाजार दर से कहीं ज्यादा किराये पर। यानी यह साफ है कि अफ़्रीकी मूल के लोगों के प्रति वहाँ के स्थानीय लोगों के मन में एक अजीब-सा भाव बैठा है। एक खराब धारणा कि ये लोग खराब होते हैं, शराब पीते हैं, घर में पार्टियों के नाम पर हंगामा करते हैं, ड्रग्स इस्तेमाल करते हैं या ड्रग्स की तस्करी करते हैं, आदि-आदि।
ये धारणाएँ टूटती क्यों नहीं?
यह धारणाएँ कहाँ से आयीं? क्यों नहीं टूटतीं? कैसे टूटें? यह धारणाएँ तो वहाँ तक, सत्ता के शिखर तक उन लोगों के मन में बैठी हैं, जिनकी जिम्मेदारी है कि वह ऐसी धारणाएँ न बनने दें। वरना आम आदमी पार्टी की पहली सरकार के कानून मंत्री सोमनाथ भारती दिल्ली के मालवीय नगर पर अपनी ‘नैतिक सेना’ के साथ रात में धावा न बोलते और उसके साल भर पहले गोवा की बीजेपी सरकार के मंत्री दयानन्द माँडरेकर वहाँ रह रहे नाइजीरियाई लोगों को ‘कैन्सर’ की पदवी से विभूषित न करते! और इसीलिए शर्म की सारी हदें तोड़ कर बेंगलुरू में काँग्रेस के एक नेता इस हिंसा को उचित ठहरा देते है तो राज्य की काँग्रेसी सरकार के गृहमंत्री जी। परमेश्वर इस बात को मानने को तैयार नहीं कि यह नस्लभेदी हिंसा थी। उनका कहना है कि यह लोगों का ग़ुस्सा था, जो फूट पड़ा।
मंत्री जी की मासूमियत के क्या कहने?
वाह, क्या मासूमियत है! मान लीजिए कि यह दुर्घटना किसी कन्नड़ मूल के चालक से हुई होती, उसकी गाड़ी से किसी स्थानीय महिला की मौत हुई होती, तो क्या भीड़ सड़क से गुजरनेवाले हर कन्नड़ गाड़ीचालक की पिटाई करती? अच्छा मान लीजिए, दुर्घटना करने वाला चालक तमिल, तेलुगु या मलयाली होता, तो भी क्या भीड़ उस सड़क से गुजरने वाले हर तमिल, तेलुगु या मलयाली के साथ ऐसा बर्ताव करती? मान लीजिए कि दुर्घटना करने वाला चालक सिख होता, पगड़ी की वजह से आसानी से पहचाने जाने लायक, तो भी क्या भीड़ गुस्से के कारण सड़क से गुजर रहे किसी और सिख को पीट देती? या वह अँग्रेज होता तो भी क्या दूसरे किसी अँग्रेज को जनता निशाना बनाती? इन सब सवालों के जवाब ‘नहीं’ में हैं, लेकिन माननीय मंत्री महोदय को इतनी छोटी-सी बात समझ में नहीं आती! और समझ में आयेगी भी नहीं क्योंकि बेंगलुरू के लोगों के खिलाफ वह कैसे बोल दें? वोटों का मामला है! पिटने वाले अफ़्रीकी थोड़े ही उनके वोटर हैं!
उत्तर-पूर्व के लोगों के साथ भी यही रवैया!
जवाब साफ है और एक लाइन का है। यह गाँठ है, जो अफ़्रीकियों के खिलाफ हमारे मन में बैठी हुई है। हमने एक साधारणीकरण कर लिया है कि सारे अफ़्रीकी बस ‘ऐसे’ ही होते हैं। और यह गाँठ सिर्फ अफ़्रीकियों के खिलाफ नहीं है। ऐसी तरह-तरह की गाँठें हैं। अफ़्रीकी तो खैर विदेशी हैं, उत्तर-पूर्व के लोग तो अपने ही देश के हैं, लेकिन उन्हें भी वैसी ही ‘खराब नजरों’ से देखा जाता है। उनके साथ भी हर जगह कमोबेश ऐसा ही होता है। 2014 में दिल्ली में ही अरुणाचल के छात्र निडो तानिया (Nido Tania) की बिन बात पीट-पीट कर हत्या की जा चुकी है।
गाँठें ही गाँठे : कहीं कम, कहीं ज्यादा
और कहीं कम, कहीं ज्यादा यही गाँठें हर जगह हैं। उत्तर भारत में दक्षिण भारतीयों के खिलाफ गाँठें हैं, तो मुम्बई में ‘भय्या’ लोगों को लेकर, तो कहीं ‘बिहारियों’ को लेकर गाँठें हैं, तो कहीं ‘सरदार जी’ को लेकर चुटकुले, और पुरुषों में तो आमतौर पर महिलाओं को लेकर तरह-तरह की गाँठे हैं, जो आये दिन हर जगह, हर मौके पर सामने आती रहती है। दलितों और मुसलमानों के खिलाफ तो गाँठें ही गाँठें हैं। दलित बस्तियाँ गाँवों में हमेशा दूर कोने पर ही क्यों होती हैं? गाँव तो छोड़िए, शहरों में भी दलित और मुस्लिम बस्तियाँ सबसे अलग-थलग क्यों होती हैं? दलित दूल्हे का घोड़ी पर बैठना क्यों अखरता है? मुसलमान हो कर किराये का मकान पा लेना क्यों मुश्किल होता है? यह तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। ईमानदारी से अपने दिल पर हाथ रख कर बताइए कि रोजमर्रा की जिन्दगी में, अपने दफ्तर, स्कूल-कालेज या पास-पड़ोस के दलितों या मुसलमानों के बारे में लोग जब आपस में बातें करते हैं, तो किन शब्दों में, किन जुमलों में बातें करते हैं। दूर क्यों जायें, फेसबुक ही खँगाल लीजिए, तो सच्चाई सामने आ जायेगी।
हम बनाम वह ‘दूसरे’ लोग!
ऐसा क्यों है? क्योंकि हमने कुछ धारणाएँ बनायी हुईं हैं। कुछ मनगढ़न्त धारणाएँ! हम बनाम वह ‘दूसरे’ लोग! हम श्रेष्ठ, दूसरे निकृष्ट! हम मराठी, तो ‘भइया’ लोग घटिया! हम उत्तर भारतीय बढ़िया, लेकिन ‘मद्रासी लुंगीवाले’ कह कर सारे दक्षिण भारतीयों की खिल्ली उड़ाना हमारा मजेदार शगल है! और अगर बात बिहारियों की हो तो उन पर खींसें निपोर दीजिए! यह क्या है? नस्लभेद नहीं है तो और क्या है? और क्या यह हमारे आसपास की हर दिन की, हर पल की घटनाएँ नहीं हैं? क्या हम इन ‘दूसरों’ के बारे में हमेशा घटिया नहीं सोचते? उनके बारे में हम जानते कुछ नहीं। उनसे मिलते-जुलते-घुलते नहीं, बस उनके बारे में धारणाओं के अजगर मन में बैठा लिये हैं कि वे जो ‘दूसरे’ हैं, हमारे जैसे नहीं हैं, वह हमारे साथ रहने लायक नहीं हैं। पढ़ने-लिखने के बाद इन अजगरों को मर जाना चाहिए था, लेकिन दुर्भाग्य से ये और बलवान हो गये हैं।
भीड़तंत्र के आदिम युग की ओर!
एक और बात, जो इससे भी कहीं गम्भीर, कहीं चिन्ताजनक है। वह है भीड़तंत्र। भीड़ का उन्माद। न सबूत, न गवाही, न पुलिस, न अदालत। सुनी-सुनायी बात पर सड़क पर फैसला। क्योंकि धारणा बना ली कि इसने तो अपराध किया ही होगा। क़रीब साल भर पहले नगालैंड में बलात्कार के आरोप में एक व्यक्ति की भीड़ ने हत्या कर दी। बलात्कार का आरोप सच था या नहीं, इसकी छानबीन किये बिना भीड़ ने सज़ा-ए-मौत सुना दी। इसके कुछ ही दिनों बाद आगरा में एक दलित युवक की हत्या कर दी गयी। महज़ इस शक में कि वह किसी लड़की को अश्लील इशारे कर रहा था। और अब सिलिकॉन वैली वाले पढ़े-लिखे ‘सभ्य’ बेंगलुरू में भी वही हुआ! हम आगे जा रहे हैं या आदिम युग में पीछे लौट रहे हैं?
(देश मंथन, 07 फरवरी 2016)