संदीप त्रिपाठी :
त्रिपुरा में तृणमूल कांग्रेस के छह निष्कासित विधायक भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गये हैं। इसके साथ ही भाजपा त्रिपुरा विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल बन गयी है। यह सवाल उठता है कि क्या इसे मणिपुर की तरह त्रिपुरा में भाजपा के आने की आहट मानें। त्रिपुरा में वर्ष 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
आपने भाजपा बनी सबसे बड़ी विपक्षी दल
वर्ष 2016 में पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में कांग्रेस द्वारा माकपा के साथ सहयोग किये जाने के खिलाफ छह कांग्रेसी विधायकों ने तृणमूल कांग्रेस का दामन पकड़ लिया था। तृणमूल के इन छह विधायकों द्वारा राष्ट्रपति चुनाव में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के प्रत्याशी रामनाथ कोविंद के पक्ष में मतदान किये जाने पर इन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया। ये सभी विधायक सुदीप राय बर्मन, आशीष कुमार साहा, दिबा चंद्र हरांगखवल, विश्वबंधु सेन, प्रणजीत सिंह राय और दिलीप सरकार सोमवार, 7 अगस्त 2017 को भाजपा में शामिल हो गये। सुदीप राय बर्मन त्रिपुरा के पूर्व मुख्यमंत्री और बड़े कांग्रेसी नेता रहे समीर रंजन बर्मन के पुत्र हैं। सुदीप प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष और कांग्रेस विधायक दल के नेता भी रह चुके हैं। इसके अलावा कांग्रेस के एक अन्य विधायक रतनलाल भी भाजपा के संपर्क में हैं।
पिछले चुनाव में मिले थे डेढ़ प्रतिशत वोट
त्रिपुरा में पिछला विधानसभा चुनाव वर्ष 2013 में हुआ था। इसमें कुल 60 सदस्यीय सदन के लिए 49 सीटों पर माकपा, 10 सीटों पर कांग्रेस और एक सीट पर भाकपा प्रत्याशी ने विजय हासिल की थी। भाजपा इस चुनाव में 50 सीटों पर लड़ी थी, जिसमें उसके 49 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी थी। पार्टी को राज्य में पड़े कुल वैध वोटों में से 1.54% वोट मिले थे। इसके मुकाबले माकपा को 48.11%, कांग्रेस को 36.53% और भाकपा को 1.57% वोट मिले थे। आरएसपी को 1.95% वोट मिले थे। स्थानीय रूप से पंजीकृत दल इंडीजिनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) को 7.59% वोट मिले थे। यानी 2013 के वोट प्रतिशत के आधार पर भाजपा राज्य की छठवें नंबर की पार्टी है और वोट प्रतिशत इतना कम है कि यह अनुमान लगाना व्यर्थ लगता है कि वर्ष 2018 के चुनाव में भाजपा कोई उलटफेर कर सकती है।
भाजपा की पूर्वोत्तर विस्तार नीति
पूर्वोत्तर राज्यों में दखल बढ़ाने की भाजपा की अब तक नजर आयी नीति पर नजर डालें तो यहाँ भाजपा ने दूसरे दलों के नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल कर चुनाव जीतने या सरकार बनाने की नीति अपनायी है। अरुणाचल प्रदेश में तो कांग्रेस विधायक दल के अधिकांश विधायकों को अपने पाले में खींच भाजपा ने सरकार बना ली। असम में भी कांग्रेस के हिमांत विस्वशर्मा जैसे बड़े बागी नेताओं को पार्टी में शामिल कर भाजपा ने चुनाव जीता और सरकार बनायी। मणिपुर में भी सत्ताधारी कांग्रेस के बीरेन कुमार जैसे बड़े बागी नेताओं को भाजपा में शामिल कर पार्टी ने 2012 के विधानसभा चुनाव में शून्य विधायक से 2017 के विधानसभा चुनाव में सरकार बनाने तक का सफर तय कर लिया। नगालैंड में वहाँ की सबसे बड़ी पार्टी के साथ गठबंधन कर भाजपा सरकार में है। अब पूर्वोत्तर में त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम, यही तीन राज्य हैं जहाँ भाजपा नहीं है। इन तीनों राज्यों में वर्ष 2018 में विधानसभा चुनाव होने हैं।
पाँच वर्ष में भाजपा ने की है जमीनी मेहनत
ऐसा नहीं है कि अन्य दलों के बड़े नेता अनायास भाजपा में आ रहे हैं और भाजपा महज दलबदल के जरिये ही त्रिपुरा में काबिज होने की फिराक में है। पिछले विधानसभा के बाद, खास कर वर्ष 2014 के केंद्रीय आम चुनावों में भाजपा की देशव्यापी फतह के बाद त्रिपुरा में पार्टी ने जमीनी स्तर पर काफी मेहनत की है। इसी का नतीजा रहा कि वर्ष 2015 और वर्ष 2016 में हुए 5 विधानसभा उपचुनावों में भाजपा ने कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए वोट के लिहाज से दूसरा स्थान प्राप्त किया। कुछ जगह तो माकपा उम्मीदवार बहुत मामूली वोटों से जीत हासिल कर पाये। इसके अलावा स्थानीय निकाय चुनावों में भी भाजपा ने मजबूत प्रदर्शन किया। यही कारण है कि माकपा को टक्कर देने के लिए अन्य दलों के नेता अब भाजपा में शामिल होने को वरीयता दे रहे हैं।
शासन व्यवस्था की दयनीय स्थिति
त्रिपुरा में वर्ष 1993 से माकपा की सरकार है। माणिक सरकार वहाँ के मुख्यमंत्री हैं जो अपनी सादगी के लिए प्रचारित हैं। ट्रेनों में द्वितीय श्रेणी में यात्रा करने और रिक्शे पर चलने, महज 5000 रुपये वेतन लेने की बात को उनकी सादगी और ईमानदारी के लिए प्रचारित किया जाता है। यह दीगर है कि त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य में यात्रा करने के लिए उनके हेलीकॉप्टर चॉपर का खर्च 10 करोड़ रुपये है। प्रदेश में शिक्षा, स्वास्थ्य और कानून-व्यवस्था की हालत खराब है। माणिक सरकार के शासन में शुरुआती 17 वर्ष तक एक भी प्राथमिक शिक्षक की नियुक्ति नहीं हुई। इसके बाद 10,323 शिक्षकों की नियुक्ति हुई, लेकिन इसमें इतना घपला हुआ कि सुप्रीम कोर्ट को इन सभी शिक्षकों की नियुक्तियाँ रद करनी पड़ीं। इसके अलावा आदिवासी क्षेत्र जिला स्वायत्त परिषद की शक्तियाँ बढ़ाने, बांग्लादेशी शरणार्थियों के संदर्भ में नागरिकता संशोधन कानून जैसे मुद्दे राज्य के बड़े मुद्दे हैं।
माकपा से त्रस्त लोगों को भाजपा से उम्मीद
ऐसी हालत में माकपा को टक्कर देने के लिहाज से कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस से निराश लोगों के लिए भाजपा उम्मीद की किरण बन गयी है। यही कारण है कि बीते मार्च में तृणमूल कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रतन चक्रवर्ती समेत 400 तृणमूल कार्यकर्ता भाजपा में शामिल हो गये। इसमें तृणमूल प्रदेश कार्यसमिति के 65 सदस्यों में से 16 सदस्य शामिल थे। इसके अलावा समय-समय पर कांग्रेस, तृणमूल और माकपा के कार्यकर्ता भाजपा में शामिल होते रहे। माकपा के कई मुस्लिम कार्यकर्ता भी भाजपा में शामिल हुए। इसमें जून महीने की दो घटनाएँ महत्वपूर्ण हैं, जिसमें एक घटना में पश्चिम त्रिपुरा के बिशालगढ़ इलाके के मनू मियाँ को भाजपा में शामिल होने पर मस्जिद में जाने से रोक दिया गया। इसके डेढ़ हफ्ते बाद ही ईद से पूर्व दक्षिण त्रिपुरा के शांति बाजार में 25 मुस्लिम परिवारों के भाजपा में शामिल होने पर उनके मस्जिद में घुसने पर रोक लगा दी गयी। प्रदेश में भाजपा की बढ़ती पैठ के कारण केरल की तर्ज पर त्रिपुरा में भी भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्याएँ शुरू हो गयीं। कुछ माह पहले ही में एक भाजपा कार्यकर्ता की हत्या से इतना आक्रोश बढ़ा कि 42 हजार लोगों ने गिरफ्तारी दी और स्थानीय स्टेडियम में भाजपा की सभा में 50,000 लोग एकत्र हुए जहाँ 2014 तक 5,000 लोगों को जुटाने में भाजपा को एड़ी-चोटी एक करनी पड़ती थी।
आदिवासी क्षेत्रों पर नजर
प्रदेश विधानसभा में 60 में से 20 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं। सामान्य सीटों पर तृणमूल और कांग्रेस को तोड़ने की रणनीति के बाद भाजपा ने आदिवासी सीटों के लिए खास रणनीति बनायी है। आदिवासी सीटों में से लगभग आधे पर आईएनपीटी का जोर रहा है। हालाँकि इन क्षेत्रों में भी माकपा ही मुख्य दल है। इसके अलावा आदिवासी क्षेत्रों में इंडीजिनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा (आईपीएफटी) नामक पार्टी संघर्षरत है। भाजपा आदिवासी क्षेत्र जिला स्वायत्त परिषद को ज्यादा शक्तियाँ और नागरिकता संशोधन विधेयक जरिये इन क्षेत्रों में पैठ बना रही है। विशेषज्ञ मानते हैं कि आदिवासी सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन ही राज्य में कोई उलटफेर कर सकता है। हालाँकि अभी से त्रिपुरा के बारे में स्पष्ट रूप से कोई अनुमान लगाना दूर की कौड़ी है, लेकिन मणिपुर के नतीजों को देखते हुए नामुमकिन भी नहीं है।
(देश मंथन, 10 अगस्त 2017)