संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
“सुनो कृष्ण, क्या तुम जानते हो कि इस संसार में सबसे बड़ा बोझ क्या है?”
“आप ही कहें, धर्मराज।”
“इस संसार में सबसे बड़ा बोझ होता है अपने कंधों पर अपने पुत्रों का शव उठाना। अर्जुन पुत्र अभिमन्यु का शव, द्रौपदी के पाँच-पाँच पुत्रों का शव, भीम के पुत्र घटोत्कच का शव।”
“यह सोचने में तो आपने बहुत देर कर दी, बड़े भैया। अब जब युद्ध खत्म हो चुका है तो आपके पास आँसू बहाने का विकल्प कहाँ बचा है? हाँ, फिर भी आप रो सकते हैं। पर ध्यान रहे, आपके आँसू सिर्फ मन के सारे कलुष को धोने के लिए होने चाहिए, अफसोस के लिए नहीं। युद्ध से पहले चाहे जितना अफसोस आप कर लेते, पर युद्ध के बाद नहीं।”
“पर मैं तो युद्ध का कभी अभिलाषी नहीं रहा।”
“आप भले युद्ध के अभिलाषी न रहे हों, बड़े भैया, पर आप फेसबुक पर जिन लोगों के संसर्ग में थे, वो तो युद्ध के अभिलाषी ही थे। आपको युद्ध करना कहाँ था, आपको तो युद्ध सहना था।”
“कान्हा, पूरा हस्तिनापुर खाली-खाली सा लग रहा है। मुझे नहीं लगता कि अब यहाँ बच्चे, वृद्ध और विधवाओं के अतिरिक्त कोई और बचा है। पूरा नगर शोकग्रस्त सा लग रहा है। बचे हुए सभी लोग शिथिल और सिसकियों से भरे हैं। क्या हर युद्ध का अंत यही होता है?”
“हाँ, बड़े भैया, हर युद्ध का अंत यही होता है। खेमा कोई भी हो, सिसकियों को तो सहना ही पड़ता है। कंधा किसी का हो, शव का बोझ तो उसे उठाना ही पड़ता है।”
“ओह! इतना विनाशकारी होता है युद्ध?”
“हाँ, बड़े भैया, युद्ध इतना ही विनाशकारी होता है। युद्ध का अर्थ ही होता है, धरती का रक्तमय होना और आकाश का रक्तवर्णी होना। पर भैया, आप इन बातों से क्यों परेशान हो रहे हैं? रक्त से कायर विचलित होते हैं। आप जैसे योद्धा तो उठ कर रक्त का पान करते हैं।”
“क्या कह रहे हो, कान्हा? तुम तो खुद धर्म के संरक्षक हो। तुमने ऐसा प्रचारित होने दिया है कि धर्म की स्थापना के लिए तुम्हारा जन्म हुआ है। ये कौन सा धर्म है? सत्य बात तो ये है कि इस युद्ध में धर्म था ही कहाँ? तुमने इस युद्ध में तमाम छल का सहारा लिया। तुमने सत्य को असत्य और असत्य को सत्य भी साबित किया। सच कहूं तो धर्मराज के व्यक्तित्व को भी कलुषित किया। तुमने मुझसे भी झूठ बुलवाया। कहो, कान्हा ये कैसे धर्म था?”
“सुनिए, बड़े भैया, मैंने आपात धर्म का पालन किया। जब मनुष्य का खुद का अस्तित्व खतरे में पड़ जाता है, तो इस धर्म का पालन करना पड़ता है। तब आदमी को न चाहते हुए भी युद्ध में उतरना पड़ता है।”
“पर कान्हा, युद्ध का कुछ और विकल्प भी तो हो सकता था।”
“बड़े भैया, जो संसार मुझे धर्म के संस्थापक के रूप में जानता है, वही संसार आपको धर्मराज के नाम से जानता है। मैं तो अपने किए पर रत्ती भर शोक नहीं कर रहा। फिर आप धर्म की व्यवस्था से क्यों परेशान हो रहे हैं? आपने युद्ध नहीं किया, आपने धर्म का पालन किया है। आप अगर युद्ध धर्म का पालन नहीं करते, तो वह भी पाप को प्रोत्साहन देना ही होता।”
“तो इसका अर्थ हुआ कि मैं यह युद्ध जीत चुका हूँ।”
“नहीं, बड़े भैया। युद्ध में कोई नहीं जीतता। अगर आप जीते होते तो शोक न कर रहे होते। आपने सिर्फ धर्म को जीत लिया है। इस युद्ध से आपने सिर्फ दुबारा यह साबित होने दिया है कि बुराई का अंत इतना ही हिंसक होता है, जितना हुआ।”
“कान्हा, कुछ अच्छा नहीं लग रहा।”
“बेशक आपको अच्छा नहीं लग रहा, बड़े भैया। लेकिन आसमान में गिद्धों को देखिए, उन्हें तो अच्छा लग रहा है। बहुत सारे श्वानों और सियारों को अच्छा लग रहा है।”
“ओह! तो क्या इस संसार में हर युद्ध की अंतिम परिणती गिद्ध भोज ही है?”
“हाँ, बड़े भैया। अंतिम परिणती गिद्ध भोज ही है।”
क्या युद्ध के बाद उन्हें भी मेरी तरह विचलित होना पड़ता है, जिन्होंने मुझे युद्ध में उतरने के लिए ललकारा? जिन्होंने संजय (सिन्हा) के मना करने और समझाने के बाद भी युद्ध में उतरने के लिए मुझे विवश किया? क्या गिद्ध भोज के इस दृश्य को देख कर उनकी आत्मा भी उन्हें धिक्कारती होगी, जिन्होंने बार-बार यही कहा कि युद्ध ही विकल्प है, युद्ध ही संकल्प है।”
“हाँ, बड़े भैया।”
“कान्हा, अगर तुमने मुझे पहले यह सब समझाया होता, तुमने अहसास दिलाया होता कि अपने पुत्रों के शव को अपने कंधे पर उठाना कितना मुश्किल होता है, तो मैं कभी युद्ध का हिमायती न होता। मैं न माँगता सुई की नोक बराबर जमीन भी। मैं आपकी भी न सुनता। मैं द्रौपदी को मजबूर करता कि वो अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दे। मैं युद्ध से बचने के लिए कुछ भी करता। संजय (सिन्हा) की बात सुनता। विदुर की बात समझता।”
“बड़े भैया, यह इस संसार का आखिरी युद्ध नहीं। ऐसे हजारों मौके आएंगे, जब आप चाहें तो युद्ध को टाल सकते हैं, लेकिन आप ऐसा नहीं कर पाएंगे। आप सब जानते और समझते हुए भी फिर युद्ध में कूदेंगे। आप फिर अपने पुत्रों के शव को कंधे पर उठा कर अफसोस करेंगे। आप सब करेंगे, पर आप युद्ध भी करेंगे।
बड़े भैया, जैसे गिद्ध भोज किसी भी युद्ध की अंतिम परिणती है, वैसे ही हर सत्ता मोह की अंतिम परिणती युद्ध ही है।”
“कान्हा, इतनी बड़ी-बड़ी बातें न करो। जाओ, मुझे मन ही मन पश्चाताप करने दो।”
“करिए, बड़े भैया। युद्ध के बाद शवों के बोझ से मुक्त होना भी युद्ध का ही एक हिस्सा है। पर बड़े भैया, मत भूलिएगा कि जो जीवित हैं, वो मैं ही हूँ। जो मर गये, वो भी मैं ही था। मैं ही मैं। समझिए बड़े भैया, न कोई मरने वाला होता है, न कोई मारने वाला। यह तो बस नियती होती है। वही रह जाती है।
युद्ध के बाद सब कुछ नियती के हाथों में होता है। हमारे हाथ में तो जो होता है, वो युद्ध से पहले होता है। अगर पुत्रों के शव को कंधों पर उठाने का अफसोस ही करना है, तो युद्ध से पहले सोचना पड़ेगा। जिन्होंने युद्ध की पृष्ठभूमि तैयार की, जिन्होंने युद्ध के लिए ललकारा और जिन्होंने युद्ध के लिए उकसाया वो सभी आज अफसोस कर रहे हैं। पर अब क्या लाभ? पश्चाताप और भविष्य की आशंकाओं के बारे में सोचने वाले युद्ध में नहीं उतरते, बड़े भैया।”
“कान्हा, तुम तो हमारे साथ रहोगे न? अब तुम्हीं हमारा सहारा हो।”
“नहीं बड़े भैया, जले हुए वृक्ष पर पक्षी भी नहीं रहते।”
“सब शांत हो गया है कान्हा।”
“युद्ध की नियती यही है, जीवन की अंतिम परिणती यही है, बड़े भैया।”
“ओह! काश!”
(देश मंथन 24 सितंबर 2016)