संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
26 जनवरी, वर्ष 2001 को मैं अहमदाबाद में था। नहीं, अहमदाबाद में था नहीं, दोपहर में वहाँ पहुंच गया था।
उस दिन भी मैं हर सुबह की तरह दिल्ली में पत्नी के साथ सुबह की चाय पी रहा था और यही कोई पौने नौ बजे अचानक बहुत तेज हमारी बिल्डिंग हिलने लगी थी।
भूकंप आया था। कई सेकेंड तक धरती का यह कंपन रहा। जिस तरह धरती हिली थी मैंने महसूस कर लिया था कि कहीं न कहीं बहुत तबाही मची है।
फटाफट भाग कर दफ्तर पहुँचा। जी न्यूज में तब इनपुट एडिटर ए सूर्य प्रकाश (फिलहाल अध्यक्ष प्रसार भारती) हुआ करते थे। हमारे पुराने साथी थे, इंडियन एक्सप्रेस में वे हमारे सीनियर रह चुके थे।
जैसे ही मैं दफ्तर पहुँचा, सूर्य प्रकाश ने कहा कि फटाफट गुजरात निकलो। वहां भयंकर तबाही हुयी है। भूकंप से पूरा गुजरात हिल गया है। भुज भूकंप का केंद्र था।
ज्यादा सोचने समझने का समय नहीं था, मैं फटाफट हवाई अड्डा पहुँचा और जो पहली फ्लाइट मिली उसे लेकर अहमदाबाद पहुँच गया। इस तरह मैं 26 जनवरी 2001 को अहमदाबाद में था।
अहमदाबाद की बर्बादी की कहानी आपने बहुत सुनी होगी। बहुत से लोगों को 14 साल पुरानी यह घटना याद होगी। आपने अहमदाबाद के बारे में काफी कुछ पढ़ा भी होगा।
26 जनवरी को एयरपोर्ट से अपने दफ्तर जाते-जाते मानसी कॉम्लेक्स के बाहर ठहर कर मैंने पूरा उपन्यास ही लिख दिया था, जो बाद में ‘6.9 रिक्टर स्केल’ के नाम से छपा।
लेकिन एक कहानी मैंने पूरी रिपोर्टिंग में छिपा ली थी। मैंने बहुत हल्के से उसका जिक्र तो किया लेकिन मेरी हिम्मत नहीं हुई कि उस खबर को मैं बतौर रिपोर्ट टीवी पर दिखा पाऊं!
अहमदाबाद से मैं ‘अंजार’ गया था। एक बहुत छोटा सा कस्बा। मुझे किसी ने बताया था कि गणतंत्र दिवस के दिन “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा…” गाते-गाते सैकड़ों बच्चे स्कूल की इमारत के नीचे दब गये थे।
जिस दिन मैं अंजार पहुंचा, मैंने देखा कि खँडहर बन गये उस स्कूल में यूनीफार्म पहने बहुत से मासूम मलबा बन गये थे। मलबा हटाने के लिए क्रेन लाए गये थे, और जब वो ईंट, मिट्टी उठाते तो दूर से मुझे उसमें आदमी के बच्चे मलबे की तरह निकलते हुये दिखते।
मैं देख नहीं पाता। कैमरा ऑन करने की बात तो बहुत दूर की बात है। सरसरी नजर से मैंने चाहे जो कुछ दिल्ली के अपने दफ्तर में बताया हो, लेकिन सच ये है कि बतौर रिपोर्टर अंजार में रहते हुये मैंने एक भी रिपोर्ट वहां से फाइल नहीं की।
आप में से बहुत से लोगों से मैंने गाहे बेगाहे चर्चा की है कि एक समय था, जब मैं सचमुच तुर्रम खाँ रिपोर्टर हुआ करता था। एक समय था, जब कांग्रेस, बीजेपी, संसद के अलावा दुनिया भर में कहीं कुछ हो जाये तो सबसे पहले वहां पहुंचने वाले रिपोर्टरों में मेरा नाम हुआ करता था।
सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी से जब चाहता मिल लेता था। नरेंद्र मोदी का नाम इसलिए नहीं लिख रहा, क्योंकि तब उनसे कोई भी मिल लेता था। खैर, आज 14 साल पुरानी उस घटना को याद करने के पीछे मेरा मकसद यह बताना नहीं कि मैं रिपोर्टर कैसा था।
आज मैं यह याद करने की कोशिश कर रहा हूं कि अंजार के उस सच से गुजरने के बाद मैंने कैसे रिपोर्टिंग छोड़ देने का फैसला किया। मेरा यकीन कीजिये दिल्ली लौटने के बाद मैंने अपने दफ्तर से सबसे पहली गुजारिश यही की कि अब मैं रिपोर्टिंग नहीं करना चाहता।
मुझे डेस्क पर भेज दिया जाये। मैं लोगों की रिपोर्ट को दुरुस्त किया करुंगा, लेकिन अब यह सब मैं और नहीं देख सकता। मेरी आंखें गुजरात भूकंप की उस रिपोर्टिंग में पथरा गयी थीं।
कल दफ्तर में बैठा था। तभी खबर आयी कि पाकिस्तान में आतंकवादियों ने एक स्कूल पर हमला कर 100 से ज्यादा बच्चों को मार दिया है। पूरा दफ्तर सन्न रह गया।
मेरा एक जूनियर दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया,”सर बहुत बड़ी खबर आयी है, तालिबानियों ने पेशावर में एक आर्मी स्कूल को घेर लिया है। ताबड़तोड़ गोलियां चला रहे हैं। कह रहे हैं कि स्कूली बच्चों को मार कर वो आतंक के खिलाफ हुयी सैनिक कार्रवाई का बदला ले रहे हैं। पूरा स्कूल बच्चों के शव से पटा पड़ा है।”
वो बोलता जा रहा था। मेरे कान बंद हो चुके थे। उसके सिर्फ होंठ हिल रहे थे। जिस कुर्सी पर मैं बैठा था, वो कुर्सी हिल रही थी। मेरा पूरा केबिन हिल रहा था। काँच के उसके दरवाजे हिल रहे थे। मेरा फोन हिल रहा था। सामने लगे ढेर सारे टीवी सेट हिल रहे थे।
मैं गुजरात के अंजार कस्बे में खड़ा था। सामने वो सरकारी स्कूल मलबा बना पड़ा था। क्रेन मलबा उठा रहे थे। उन मलबों से भयंकर दुर्गंध उठ रही थी। क्रेन हर बार सीमेंट, मिट्टी, ईंट का ढेर उठाता और उसमें निकर और शर्ट में लिपटे कुचले हुए मासूम मलबे की तरह बाहर निकलते।
सफाई में लगे सभी कर्मचारियों ने मुँह पर रूमाल बांधा हुआ था। कोई उधर देखना ही नहीं चाहता था। सब के सब किसी तरह जल्दी से जल्दी मलबा हटाना चाहते थे।
मेरा कैमरामैन बार-बार कहता कि सर कुछ रिपोर्ट तो तैयार कीजिये। एक पीटीसी कर दीजिये। कह दीजिये कि गणतंत्र दिवस पर यह बच्चे गा रहे थे, “सारे जहां से अच्छा, हिंदुस्तां हमारा….और तभी धरती हिल उठी।”
कल मेरा मेरा जूनियर मुझसे कह रहा था, “सर पाकिस्तान में आज यह बच्चे स्कूल में गुनगुना रहे थे।” मेरे कानों में उस दिन अंजार में बज रहा था, अल्लामा मुहम्मद ‘इक़बाल’ का लिखा, “सारे जहां से अच्छा हिंदुस्तां हमारा….”
जब हम छोटे थे, स्कूल में पढ़ते थे तब गणतंत्र दिवस पर मैं भी इकबाल की इन पंक्तियों को गुनगुनाता हुआ स्कूल जाता था, “सारे जहां से अच्छा…..”अंजार में उस दिन मैंने रिपोर्टिंग छोड़ दी। मैं क्यों गवाह बनूं उन घटनाओं का, जिनको देखना और दिखाना दोनों मेरे वश की बात नहीं।
कल मैं टीवी नहीं देख पा रहा था। अपने कमरे के सभी टीवी चैनल मैंने बदलवा दिये। कह दिया कि जिसे जो खबर चलानी हो चला लो। मैं आज कोई निर्देश नहीं दूंगा। मेरे कानों में अल्लामा मुहम्मद ‘इक़बाल’ की ही पंक्तियां कल से बज रही हैं, जिसे पाकिस्तान के उस स्कूल के बच्चे अपने हुक्मरानों से पूछ रहे हैं….
“नवा-ए-सुबह-गाही ने जिगर खूं कर दिया मेरा,
ख़ुदाया! जिस ख़ता की यह सजा है वो खता क्या है”
(देश मंथन, 17 दिसंबर, 2014)