संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
हमारी बारहवीं की परीक्षा खत्म हो चुकी थी और आखिरी पेपर के बाद हम ढेर सारे बच्चे सिनेमा देखने गये थे। शाम को घर आये तो पिताजी ने कहा था कि अब तो तुम्हारी कई दिनों की छुट्टियाँ है, तुम बुआ के घर चले जाओ, वहाँ तुम्हारा मन लगेगा।
सच्ची में बुआ के घर मेरा बहुत मन लगता था। बुआ के घर ढेर सारे बच्चे थे, कुछ बुआ के और कुछ बुआ के देवर-देवरानी के। वहाँ हम कैरमबोर्ड से ले कर लूडो और क्रिकेट तक खेलते। बारहवीं की परीक्षा हो चुकी थी और हमें इस बात की रत्ती भर चिंता नहीं थी कि आगे क्या करना है। अब जब रिजल्ट आएगा, तब सोचेंगे। सोचेंगे क्या, कॉलेज में एडमिशन होगा। फिर बीए करेंगे, एमए करेंगे, फिर नौकरी करेंगे। होना सब था, पर चिंता किसी को नहीं थी।
जिन दिनों मैंने बारहवीं की परीक्षा दी थी, तब भी ढेर सारे मम्मी-पापा अपने-अपने बच्चों को मेडिकल, इंजीनियरिंग की कोचिंग कराने में लगे थे। जो खुद इंजीनियर, डॉक्टर नहीं बन पाये थे, उनके लिए तो उनकी संतानें सपनों को पूरा करने की मशीन बनी बैठी थीं। पर मेरे पिता को इस बात की कोई परवाह नहीं थी कि उनका बेटा क्या बनेगा।
वो कहते थे, “जो भी करना, ईमानदारी से करना।”
हालाँकि मैं पत्रकार बनूंगा, ऐसा तो उन्होंने नहीं सोचा होगा, क्योंकि पत्रकारिता तब ऐसा कोई करियर नहीं था। मुझे पूरा यकीन है कि उन्होंने आगे मुझे मेरे मामा के पास इसलिए भी भेजा होगा क्योंकि उन्हें लगता था कि मामा आईपीएस हैं, तो शायद मैं भी सिविल सर्विसेज में जाने की सोचूंगा।
पर मैंने नहीं सोचा। मेरे मामा ने भी नहीं सोचा। कभी इस पर पूरी पोस्ट लिखूंगा कि सिविल सर्विसेज में चयन होने की खुशी और उसके बाद एक अच्छे और ईमानदार अफसर का मन ही मन घुटना, दोनों की फीलिंग कैसी होती है, पर आज नहीं। हालाँकि पिछले दिनों ही सिविल सर्विसेज के नतीजे निकले हैं और मेरे जानने वाले ढेर सारे बच्चे आईएएस चुने गये हैं। मैं उनके बेहतर भविष्य की कामना करता हूँ।
पर आज मैं जो लिखने जा रहा हूँ, वो सब 17 साल की एक लड़की की उस आखिरी चिट्ठी पर आधारित है, जो कल हमारे दफ्तर में खबर बन कर आयी थी।
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आज की पोस्ट मुझे खास तौर पर उन बच्चों के माँ-बाप के लिए लिखनी पड़ रही है, जो अपने बच्चों में अपने अधूरे ख्वाबों को जीने की कोशिश करते हैं। आज मैं तमाम माँ-बाप को अगाह करना चाहता हूँ कि आप अपने बच्चों के करियर में अपना करियर मत तलाशिए। आपको जो करना था, जो बनना था, आप बने। आपके बच्चों को जो करना है, या बनना है, उन्हें बनने दें।
17 साल की एक लड़की ने भारत सरकार और शिक्षा मंत्रालय को एक चिट्ठी लिख कर बताया है कि वो इस संसार से जा रही है, पर अगर सरकार चाहती है कि और बच्चे इस तरह अपनी जान नहीं दें, तो वो कोचिंग संस्थानों को बंद करा दे। उसने कहा है कि डॉक्टर, इंजीनियर, चार्टर्ड अकाउंटेंट और ढेर सारे करियर बनाने वाले ये कोचिंग संस्थान दरअसल मौत की फैक्ट्री हैं। यहाँ बच्चों के मन में सपने जगाए नहीं जाते, कुचले जाते हैं। उन्हें एक प्रोडक्ट मान लिया जाता है और मशीन में रोज उनकी पिसाई होती है।
सरकार को चिट्ठी लिख कर लड़की ने खुदकुशी कर ली।
उसका पत्र है, लड़की नहीं है। मैं चाहूँ तो लड़की का नाम लिख सकता हूँ, उसका पता भी बता सकता हूँ, पर पता नहीं क्यों मेरी उंगलियाँ काँप रही हैं, उसकी चर्चा करते हुए। लड़की राजस्थान के कोटा शहर में इंजीनियरिंग की कोचिंग के लिए गयी थी। वहाँ उसे जिस दबाव और घुटन से गुजरना पड़ा, उससे उसका जिन्दगी से मोह भंग हो गया। वहाँ वो ढेरों ऐसे बच्चों से मिली, जो अपने माँ-बाप के सपनों की भट्ठी में तप रहे हैं।
किसी को इंजीनियर नहीं बनना है, पर वो आईआईटी की तैयारी कर रहा है। किसी को बॉयोलाजी विषय से ही नफरत है, लेकिन उसके पिता अपने कंधे पर स्टेथेस्कोप नहीं लटका पाये, इसलिए बच्चा मेडिकल की तैयारी कर रहा है।
मैं जिस बच्ची की कहानी लिख रहा हूँ, या ये कहिए कि जिस बच्ची ने मरने से पहले अपना आखिरी खत सरकार के नाम लिखा है, वो बच्ची भी इंजीनियर नहीं बनना चाहती थी।
उसने अपने पत्र में लिखा है, “मैं भारत सरकार और मानव संसाधन मंत्रालय से कहना चाहती हूँ कि अगर आप चाहते हैं कि कोई बच्चा नहीं मरे, तो जितनी जल्दी हो सके इन कोचिंग संस्थानों को बंद करवा दें। ये कोचिंग वाले छात्रों को खोखला कर देते हैं। पढ़ने का इतना दबाव होता है कि बच्चे घुट जाते हैं।”
इस लड़की ने अपने पत्र में लिखा है कि उसने कोटा के कोचिंग संस्थान में कई बच्चों को आत्महत्या से बचाने की कोशिश की है, पर आज वो खुद को नहीं रोक पा रही। उसने पत्र में आखिरी लाइन जो लिखी है, वो बहुत भयावह है। उसने लिखा है कि आप सोच नहीं सकते कि मेरे दिल में अपनी माँ के लिए कितनी नफरत बैठी है।
बच्ची ने लिखा है, “माँ, मुझे अंग्रेजी और इतिहास पढ़ना पसंद था। लेकिन आपने मुझे विज्ञान पढ़ने के लिए मजबूर किया। मुझे नहीं पता कि आपका सपना क्यों था कि आपकी बेटी इंजीनियर ही बने। आगे उसने माँ को चेतावनी भी दी है कि छोटी बहन, जो अभी 11वीं में है, उसे ऐसा करने के लिए मत उकसाना। उसे वही पढ़ने देना, जो वो पढ़ना चाहती है। माँ, मैं इस संसार से जा रही हूँ, हालाँकि आईआईटी में मेरी रैंक 144 आयी है, पर मुझे इंजीनियर बनना ही नहीं था, और मेरा मन अब आडंबर की इस दुनिया से पूरी तरह उचट गया है। माँ, मैं आपको हमेशा खुश भले ही दिखती रही, दिखाती रही, पर मैं बहुत दिनों से बहुत दुखी थी। अब नहीं सहा जाता। माँ, मैं तो पिछले महीने की 22 तारीख को ही मरने जा रही थी, पर मेरी दोस्त लीना ने मुझे तब बचा लिया था। पर अब मैं बचना चाहती ही नहीं।”
……. इससे आगे अब मैं, संजय सिन्हा, एक शब्द भी नहीं लिख पा रहा। मैं समझ पा रहा हूँ कि उस बच्ची की पीड़ा इस खत को लिखते हुए क्या रही होगी, जो न जाने कब से अपनी माँ के सपनों को जी रही थी। पत्र लिख कर वो इस संसार से चली गयी। हमें सोचने पर मजबूर करके चली गयी कि दिखावे और भेड़चाल के समाज में हम अपने बच्चों के साथ कितना जुल्म कर रहे हैं।
मैं जब-जब ऐसी खबरें पढ़ता या देखता हूँ तो मुझे अपने पिता पर बहुत मान होता है क्योंकि जब मैंने उनसे कहा था कि मैं पत्रकार बनना चाहता हूँ, तो पल भर को वो रुके जरूर थे, फिर मुस्कुराते हुए उन्होंने कहा था कि बहुत अच्छा। तुम जो भी करना, मन से करना। पैसा कितना कमाया, इसकी परवाह मत करना। कैसे कमाया, इसकी करना।
काश, हम समय रहते समझ पाएँ कि हमारी संतान हमारी फैक्ट्री का उत्पाद नहीं है, जिसका बाजार में मोल लगे। वो ईश्वर की नेमत है। उसे उसकी खुशी से जीने दें और खुद भी खुश रहें। आप उसके मार्गदर्शक बनें, रिंग मास्टर नहीं।
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RIP, लीना की दोस्त। तुम्हारी वजह से शायद कुछ लोगों की आँखें खुल जाएँ।
(देश मंथन, 12 मई 2016)