राजीव रंजन झा :
श्रीराम जन्मभूमि विवाद पर इस देश में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से पहले वैसे तो सबने कसमें खायीं कि जो भी अदालत का फैसला होगा, उसे ही मानेंगे। लेकिन फैसला सामने आने के कुछ लोगों ने इसमें मीन-मेख निकालना भी शुरू कर दिया है।
ये वही लोग हैं, जिन्हें न इस देश की सांस्कृतिक विरासत और परंपरा में कोई आस्था-विश्वास है, न ही वे दिल से इस देश के संविधान को स्वीकारते हैं। ऐसे ही कुछ लोग इस समय जस्टिस डिनाइड जैसी बातें उछाल रहे हैं। ऐसे लोग यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला केंद्र में एक हिंदुत्ववादी सरकार होने की वजह से आया है।
पूरे देश में इस फैसले के बाद कहीं भी लोग न खुशी में जुलूस निकालते नजर आये, न विरोध में, लेकिन जेएनयू में धरना-प्रदर्शन होने की खबरें आ गयीं। यह एक वैचारिक जहर का ही नतीजा है। केवल असदुद्दीन ओवैसी ही नहीं, सेक्युलिबरल गिरोह के तमाम लोग इस फैसले को सिर-माथे बताते हुए भी साथ में जोड़ रहे हैं कि यह फैसला परत दर परत विरोधाभासों से भरपूर है।
वैसे तो कांग्रेस ने इस फैसले का स्वागत किया है और सबको इसे मानने की सलाह दी है, लेकिन कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड की वेबसाइट पर एक कार्टून छपा है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के चित्र के साथ लिखा गया है – जिसकी लाठी उसकी भैंस। आखिर कांग्रेस का मुखपत्र इस कार्टून के जरिये क्या कहना चाहता है? क्या कुछ लाठी वालों के डर से यह फैसला दिया गया है? सर्वोच्च न्यायालय का सीधा अपमान इस कार्टून में है। असदुद्दीन ओवैसी ने तो फैसले के बाद बार-बार बस इतना ही कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला अंतिम है, लेकिन गलती उससे भी हो सकती है। लेकिन कांग्रेस के मुखपत्र ने तो सारी सीमा ही लांघ दी है और यह दिखाने की कोशिश की है कि सर्वोच्च न्यायालय ने किसी दबाव में ऐसा फैसला दिया है। किसी न्यायिक निर्णय से असहमति जताना तो अभिव्यक्ति के अधिकार का हिस्सा हो सकता है, लेकिन अगर कोई ऐसा कहने लगे कि फैसला किसी दबाव या लालच या पक्षपात में दिया गया है तो वह स्पष्ट रूप से न्यायालय की अवमानना है। कांग्रेस को ऐसा वाहियात कार्टून छापने के लिए अपने मुखपत्र की ओर माफी माँगनी चाहिए।
वहीं कुछ लोग इस बात से नाखुश हैं कि चलो मंदिर बनने का तो फैसला अच्छा है, लेकिन सुन्नी वक्फ बोर्ड को 5 एकड़ जमीन क्यों दी जा रही है? उन्हें लगता है कि यह केवल तुष्टीकरण के लिए किया गया है।
जिन भी लोगों को यह लगता हो कि सर्वोच्च न्यायालय का फैसला ठोस कानूनी आधार पर नहीं हुआ है, उनसे मेरा विनम्र आग्रह है कि एक बार फैसले को पढ़ तो लें। हालाँकि इसके लिए थोड़े धैर्य की जरूरत होगी, क्योंकि यह फैसला एक हजार पैंतालिस पन्नों का है। सारा फैसला न भी पढ़ें, और केवल मुख्य-मुख्य हिस्सों पर ही नजर डालना चाहें, तो उसके लिए कुछ समय देने की जरूरत होगी। लेकिन कोई ऐसा तभी कर पायेगा, जब वह पहले से दिमाग में बैठे हुए पूर्वाग्रहों को छोड़ कर खुले मन से इस फैसले को पढ़े। आप इस फैसले को पढ़ेंगे, तो पायेंगे कि मन में उठने वाले तमाम सवालों के जवाब इसमें पहले से लिखे हुए हैं।
(देश मंथन, 11 नवंबर 2019)