संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
धर्मांतरण के मुद्दे पर मचे बवाल ने यह साफ कर दिया है कि इस मामले पर शोर करने वालों की नीयत अच्छी नहीं है। किसी का धर्म बदलने का सवाल कैसे एक सार्वजनिक चर्चा का विषय बनाया जाता है और कैसे इसे मुद्दा बनाने वाले धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने के विषय पर तैयार नहीं होते, इसे देखना रोचक है।
भारत जैसे देश में जहाँ बहुत सारे पंथों को मानने वाले लोग रहते हैं यह विषय चर्चा के केंद्र में रहा है। खासकर ईसाई मिशनरियों और मुस्लिम संगठनों की विस्तारवादी नीति के चलते यह मुद्दा हमेशा उठता आया है। लेकिन जादू यह है कि धर्मांतरण के खिलाफ कानून बनाने के लिए अल्पसंख्यक संगठन और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दल तैयार नहीं हैं।
यहीं पर हमारे विचारों के दोहरेपन का पता चलता है और नीयत का भी। यानि हिंदू समाज के लोग धर्म बदलते रहें तो कोई समस्या नहीं, किंतु कोई अन्य धर्मावलंबी हिंदू बन जाए तो पहाड़ सिर पर उठा लो। मतलब आप करें तो ‘लीला’ कोई अन्य करे तो ‘पाप’।
आप देखें तो धर्मांतरण की बढ़ती वृत्ति ने ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार को गिरिजनों और आदिवासियों के बीच जाकर काम करने की प्रेरणा का आधार भी दिया है। आज ईसाई मिशनरियों की तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरित वनवासी कल्याण आश्रम और सेवाभारती जैसे संगठनों के कार्यकर्ता आपको आदिवासियों, गिरिजनों एवं वंचितों के बीच कार्य करते दिख जायेंगे।
बात सिर्फ सेवा को लेकर लगी होड़ की होती तो शायद इस पूरे चित्र में हिंसा को जगह नहीं मिलती। लेकिन ‘धर्म’ बदलने का जुनून और अपने धर्म बंधुओं की तादाद बढ़ाने की होड़ ने ‘सेवा’ के इन सारे उपक्रमों की व्यर्थता साबित कर दी है।
हालांकि ईसाई मिशनों से जुड़े लोग इस बात से इनकार करते हैं कि उनकी सेवाभावना के साथ जबरिया धर्मांतरण का लोभ भी जुड़ा है। किंतु विहिप और संघ परिवार इनके तर्कों को खारिज करता है। आज धर्मांतरण की यह बहस ऐसे मोड़ पर पहुँच चुकी है, जहाँ सिर्फ तलवारें भाँजी जा रही हैं।
तर्क और शब्द अपना महत्व खो चुके हैं। जिन राज्यों में व्यापक पैमाने पर धर्मांतरण हुआ है मसलन मिजोरम, अरुणाचल, मेघालय, नागालैंड, छत्तीसगढ़ के ताजा हालात और कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्या के नाते उत्पन्न परिस्थितियों ने हिंदू संगठनों को इन बातों के लिए आधार मौजूद कराया है कि धर्म के साथ राष्ट्रांतरण की भी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं। जाहिर है यह भयग्रंथि ‘हिंदू मानस’ में एक भय का वातावरण बनाती है।
धर्मांतरण की यह प्रक्रिया और इसके पूर्वापर पर नजर डालें तो इतिहास में तमाम महापुरुषों ने अपना धर्म बदला था। उस समय लोग अपनी कुछ मान्यताओं, आस्थाओं और मानदंडों के चलते धर्म परिवर्तन किया करते थे। वह किसी धर्म की शरण में जाते थे या किसी नए पंथ या धर्म की स्थापना करते थे। लंबे विमर्शों, बहसों और चिंतन के बाद यथास्थिति को तोड़ने की अनुगूँज इन कदमों में दिखती थी।
गौतम बुद्ध, महावीर द्वारा नए मार्गों की तलाश इसी कोशिश का हिस्सा था वहाँ भी एक विद्रोह था। बाद में यह हस्तक्षेप हमें आर्य समाज, ब्रह्म समाज, रामकृष्ण मिशन जैसे आंदोलनों में दिखता है। धर्म के परंपरागत ढांचे को तोड़कर कुछ नया जोड़ने और रचने की प्रक्रिया इससे जन्म लेती थी।
कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक का बौद्ध धर्म स्वीकारना, एक लालच या राजनीति से उपजा फैसला नहीं था। यह एक व्यक्ति के हृदय और धर्म परिवर्तन की घटना है, उसके द्वारा की गयी हिंसा की ग्लानि से उपजा फैसला है।
बाद के दिनों में बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर का बौद्ध धर्म स्वीकारना एक लंबी विचार-प्रक्रिया से उपजा फैसला था। इसी प्रकार केशवचंद्र सेन भी ईसाई धर्म में शामिल हो गये थे। उदाहरण इस बात के भी मिलते हैं कि शुरुआती दौर के कई ईसाई धर्म प्रचारक ब्राम्हण पुजारी बन गये। कुछ पादरी ब्राह्मण पुजारियों की तरह रहने लगे।
इस तरह भारतीय समाज में धर्मांतरण का यह लंबा दौर विचारों के बदलाव के कारण होता रहा। सो यह टकराव का कारण नहीं बना। लेकिन सन 1981 में मीनाक्षीपुरम में 300 दलितों द्वारा हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम ग्रहण करने की घटना ने एक बड़ा रूप ले लिया।
सामंतों और बड़ी जातियों के अत्याचार से संतप्त जनों की इस प्रतिक्रिया ने कथित हिंदूवादियों के कान खड़े कर दिेये। सही अर्थों में मीनाक्षीपुरम की घटना आजाद भारत में धर्मांतरण की बहस को एक नया रूप देने में सफल रही।
इसने न सिर्फ हमारी सड़ांध मारती जाति-व्यवस्था के खिलाफ रोष को अभिव्यक्त दी वरन हिंदू संगठनों के सामने यह चुनौती दी कि यदि धार्मिक-जातीय कट्टरता के माहौल को कम न किया गया तो ऐसे विद्रोह स्थान-स्थान पर खड़े हो सकते हैं।
इसी समय के आसपास महाराष्ट्र में करीब 3 लाख दलितों ने हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया। 26 जनवरी 1999 को तेजीपुर (उ.प्र.) में कई दलित काश्तकारों ने बौद्ध धर्म अपना लिया। लेकिन इन घटनाओं को इसलिए संघ परिवार ने इतना तूल नहीं दिया, क्योंकि वे बौद्धों को अलग नहीं मानते।
लेकिन मिशनरियों द्वारा किये जा रहे धर्मांतरण की कुछेक घटनाओं ने उन्हें चौकस कर दिया। संघ परिवार ने धर्म बदल चुके आदिवासियों को वापस स्वधर्म में लाने की मुहिम शुरू की, जिसमें स्व. दिलीप सिंह जूदेव जैसे नेता आगे आये। इस सबके साथ ईसाई मिशनों की तरह संघ परिवार ने भी सेवा के काम शुरू किये।
इससे बिहार के झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, गुजरात, महाराष्ट्र के कुछ क्षेत्रों में जमीनी संघर्ष की घटनाएं बढ़ी। जिसकी परिणति कई प्रदेशों में हिंसक संघर्ष रूप में सामने आयी। इसका इस्तेमाल कर पाक प्रेरित आतंकियों ने भी हिंदू-ईसाई वैमनस्य फैलाने के लिए कुछ सालों पूर्व चर्चों में विस्फोट कराये थे।
इन तत्वों की पहचान दीनदार अंजमुन के कार्यकर्ताओं के रूप में हो चुकी है। पूर्वाचल के राज्यों में आईएसआई प्रेरित आतंकियों से चर्च के रिश्ते भी प्रकाश में आये हैं। ऐसे एकाध उदाहरण भी देश के सद्भाव व सह अस्तित्व की विरासत को चोट पहुंचाने के लिए काफी होते हैं।
जाहिर है ऐसे संवेदनशील प्रश्नों पर नारेबाजियों के बजाय ठंडे दिमाग से काम लेना चाहिए। लेकिन भारत जैसे विशाल देश में जहाँ साक्षरता के हालात बदतर हैं, लोग भावनात्मक नारों के प्रभाव में आसानी से आ जाते हैं।
जरूरत इस बात की है कि हिंदू समाज धर्मांतरण के कारकों एवं कारणों का हल स्वयं में ही खोजे। धर्म परिवर्तन प्रत्येक व्यक्ति का बुनियादी हक है। कोई भी व्यक्ति का यह हक उससे ले नहीं सकता, लेकिन इस प्रश्न से पीड़ित जनों को चाहिए कि वे लड़ाई हिंदू समाज में पसरी अमानवीय जाति प्रथा और पाखंडपूर्ण बहुरूपियेपन के खिलाफ शुरू करें।
समाज को जोड़ने, उसमें समरसता घोलने का दायित्व बहुसंख्यक समाज और उसके नेतृत्व का दावा करने वालों पर है। सामाजिक विषमता के दानव के खिलाफ यह जंग जितनी तेज होती जायेगी।
धर्मांतरण जैसे प्रश्न जिनके मूल में अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा और शोषण है, स्वतः समाप्त करने के बजाय वंचितों के दुख-दर्द से भी वास्ता जोड़ना चाहिए। इस सवाल पर बहुसंख्यक समाज को सकारात्मक रुख अपनाकर बतौर चुनौती इसे स्वीकारना भी चाहिए। इसके दो ही मंत्र हैं-सेवा और सद्भाव।
राज्यसभा और लोकसभा को रोककर यह सवाल हल नहीं होंगें। हमें उस मानसिकता को भी देखना होगा जो पूरी दुनिया को एक रंग में रंगना चाहते हैं। क्यों उनमें विपरीत पूजा पद्धतियों के प्रति स्वीकार्यता नहीं है। यह दुनिया इंसानों के रहने लायक दुनिया बने। अगर हम विविधता और बहुलता का सम्मान नहीं करते तो ऐसे संकट हमारे सामने हमेशा खड़े होंगें।
धर्म के लिए खून बहाते लोग अपने धर्म बंधुओं के भी खून की होली खेल रहे हैं। मानवता पर ऐसे विचार बोझ समान ही हैं। हमारी देश की परंपरा सबको आदर देने और सभी पंथों को मान देने की रही है। यहाँ धर्म जीवन शैली के रूप में पारिभाषित है। यह अधिनायकवादी वृत्तियों का वाहक नहीं है।
हमारा धर्म उदात्त मानवीय संवेदना और सहअस्तित्व पर आधारित है। इसे खून बहा रही जमातों, लालच के आधार पर या धोखे के आधार धर्म बदलने के प्रयासों की प्रतिस्पर्धा में मत देखिये। हमारी अपनी पहचान और स्वायत्ता दूसरों को ही नहीं, विरोधियों को भी आदर देने में है।
यही भारतीयता है, इसे आप कायरता कहते हैं तो कहते रहिये। क्योंकि आपकी बहादुरी के किस्सों ने सिर्फ खून बहाया है, अब इसे रोकने की जरूरत है। भारतीय विचार सबको साथ लेकर चलने वाला विचार है, वह किसी के खिलाफ कैसे हो सकता है?
हम उन हथियारों से नहीं लड़ सकते, जो दुनिया में अशांति का कारण बने हुये हैं। हमारे समय के सबसे बड़े हिंदू नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी इसी हिंदू दर्शन को व्यक्त करते हुये जो लिखते हैं, वह कविता उनके समर्थकों को जरूर पढ़नी चाहिए। क्योंकि दूसरे विचारों से प्रेरित होकर अपना मूल विचार और स्वभाव छोड़ने की जरूरत कहाँ हैं? श्रेष्ठ होने का मतलब सभ्य होना भी है, शिष्ठ होना भी है। वह भाषा में भी, व्यवहार में भी और आचरण में भी। बकौल अटल जी-
“होकर स्वतन्त्र मैंने कब चाहा है कर लूँ सब को गुलाम
मैंने तो सदा सिखाया है करना अपने मन को गुलाम।
गोपाल, राम के नामों पर कब मैंने अत्याचार किया
कब दुनिया को हिंदू करने घर-घर मे नरसँहार किया।
कोई बतलाये काबुल में जाकर कितनी मस्जिद तोड़ी
भूभाग नही शत-शत मानव के हृदय जीतने का निश्चय।
हिंदू तन–मन, हिंदू- जीवन रग-रग हिंदू मेरा परिचय॥“
(देश मंथन, 22 दिसंबर, 2014)