अदालतों से अंग्रेजी हटे

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डॉ वेद प्रताप वैदिक, राजनीतिक विश्लेषक : 

भारत को आजाद हुए 67 साल हो गये लेकिन हमारी न्याय-व्यवस्था अभी भी गुलामी की शिकार है। एक वकील ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है और उसमें माँग की है कि सर्वोच्च न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालयों में अब राजभाषा हिंदी का प्रयोग होना चाहिए।

अभी भी इन अदालतों में अंग्रेजी का प्रयोग अनिवार्य है। सारी बहस और फैसले अंग्रेजी में होते हैं। ये राजभाषा में तभी हो सकते हैं, जबकि संविधान की धारा 348 में संशोधन हो। सर्वोच्च न्यायालय ने वकील शिव सागर तिवारी की याचिका के आधार पर केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है और उससे पूछा है कि आपकी प्रतिक्रिया क्या है?

केंद्र सरकार क्या प्रतिक्रिया करेगी? भारत की न्याय व्यवस्था के लिए तो खुद अदालतें ही जिम्मेदार हैं। केंद्र सरकार अदालतों से पूछेंगी कि आप सारी बहस और फैसले राजभाषा में कर सकती हैं या नहीं? यदि संसद संविधान में संशोधन कर दे तो भी अदालतों का काम-काज तो अदालतों को ही करना पड़ेगा। यदि अदालतें मना कर दें तो सरकार क्या कर लेगी? संवैधानिक संशोधन भी धरा का धरा रह जायेगा। इसीलिए जरुरी यह है कि भारत की अदालतें ही हिम्मत करें कि वे अपना काम-काज स्वभाषाओं में करना शुरू करें।

यदि छोटी अदालतों में मुजरिम, मुवक्किल, वकील और जज स्थानीय भाषा इस्तेमाल कर सकते हैं तो यही काम बड़ी अदालतों में क्यों नहीं हो सकता। उनके जज और वकील तो ज्यादा अनुभवी और ज्यादा योग्य होते हैं। इसके अलावा उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि दुनिया के बड़े और शक्तिशाली राष्ट्रों की अदालतें अपनी भाषाओं में ही काम करती हैं। सिर्फ अंग्रेज के पूर्व गुलाम राष्ट्रों में ही आज भी अंग्रेजी चल रही है। भारत के समान किसी भी बड़े राष्ट्र की अदालतें विदेशी भाषा में काम नहीं करतीं। नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए यह स्वर्णिम अवसर आया है कि वह एक ही झटके में यह संशोधन पारित करवा दे ताकि 67 साल बाद ही सही, हमारी अदालतों को आजादी मिल सके।

हमारी अदालतों में आजकल 3 करोड़ 40 लाख मुकदमे लटके हुए हैं। एक-एक मामले को निबटने में दस-दस बीस-बीस साल लग जाते हैं। इसका मुख्य कारण है, अंग्रेजी का एकाधिकार! एक तो हमारे कानून अंग्रेजी राज की जरुरतों के मुताबिक बने हुए हैं और दूसरा वे अंग्रेजी में बने हुए हैं। इस संपूर्ण न्याय-व्यवस्था का भारतीयकरण करना बेहद जरुरी है। ऐसा करने से न सिर्फ मुकदमे जल्दी-जल्दी निपटेंगे बल्कि भारत की न्याय-व्यवस्था से जादू-टोना खत्म होगा। अभी भारत के साधारण लोग अदालतों में जाने से घबराते हैं, क्योंकि अंग्रेजी में चलनेवाली बहस और फैसले किसी भी जादू-टोने से कम नहीं होते। यदि हमारी अदालतों से अंग्रेजी हटेगी तो राज-काज और संसद से भी वह शीघ्र ही विदा होगी।

(देश मंथन, 21 अगस्त 2014)

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