संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
एक साधु बाबा थे। बहुत पहुँचे हुए थे। उनके कई भक्त थे।
एक दिन बाबा अपने एक चेले के साथ अपने एक भक्त के घर गये। भक्त ने बाबा की खूब आवभगत की। पूरा परिवार बाबा की सेवा में बिछ गया। भक्त ने कहा कि बाबा अब आ ही गये हैं, तो कुछ दिन हमारे साथ रहिए। हमें सेवा का मौका दीजिए।
बाबा प्रसन्न हो गये। कहने लगे पाँच दिन तो रहूँगा ही।
अहा, बाबा पाँच दिन घर पर रहेंगे। पाँच दिनों तक बाबा का आशीर्वाद घर पर टपकता रहेगा। पूरे परिवार में उल्लास की लहर फैल गई।
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अब बाबा घर पर रहेंगे। बाबा का चेला भी घर पर रहेगा।
बाबा आने को तो आ गये थे, घर वालों ने उन्हें बड़े प्यार से रोक भी लिया था, लेकिन घर के लोगों को चिन्ता थी कि आखिर बाबा खाते क्या हैं, पीते क्या हैं।
घर का मालिक बाबा के चरणों पर बैठा था, पँखा झलता हुआ।
“बाबा, आपके लिए भोजन में क्या व्यवस्था की जाये, अगर पता चल जाता, तो हमें बहुत खुशी होती।”
“बेटा, तुम हमारे लिए जरा भी चिन्ता मत करो। तुम तो जानते ही हो कि मेरा जीवन बिल्कुल सादा है। सादा जीवन, उच्च विचार।”
“जी बाबा। हम जानते हैं कि आप सादा जीवन और उच्च विचार वाले हैं। फिर भी अगर आप बता देते कि आप नाश्ते में, दोपहर के भोजन में क्या खाना पसन्द करेंगे, तो हमें आपकी सेवा करते हुए बहुत खुशी होगी।”
“बच्चा, अब तुम पूछ रहे हो, तो मैं बता देता हूँ कि मेरे भोजन में कोई झंझट ही नहीं है। तुम मेरे लिए बिल्कुल परेशान मत होना। मेरी खुराक बहुत कम है। बस ऐसा करो कि तुम मेरे लिए पाँच किलो दूध, दो किलो मेवा, तीन किलो खजूर, दर्जन भर केला, दो किलो सेब, ढाई किलो अंगूर और पाव भर बादाम नश्ते में मँगा देना। और दोपहर के भोजन में भी मैं ज्यादा नहीं खाता। तीन किलो दही, दर्जन भर खीरा और मुमकिन हो तो तीन किलो बूंदी के लड्डू मँगा लेना। सुनो, दोपहर में मैं दूध नहीं पीता, लेकिन दूध से अगर खीर बन जाये तो सोने पर सुहागा है। पाँच-छह किलो खीर मैं खा लेता हूँ। वैसे खाने को तो हलवा भी खा लेता हूँ। पर मेरे लिए तुम चावल, दाल, सब्जी का झंझट बिल्कुल न पालना, मेरे प्यारे बच्चे। बच्चा मैं तो ठहरा साधु। मेरे में ज्यादा झंझट नहीं है। लेकिन ये जो हमारा चेला है न, उसके खाने में बहुत झंझट है। ये पगला अभी तक दुनियादारी से मुक्त नहीं हुआ है। इसे नाश्ते में दो रोटी चाहिए, दोपहर में भी दो रोटी और चावल दाल का चक्कर पाले हुये है। बच्चा मैंने इसे बहुत समझाया कि कहीं जाओ तो किसी के लिए परेशानी मत बनो। कौन तुम्हारे लिए रोटी और दाल पकाने का इंतजाम करेगा। पर नादान बिना रोटी खाये खाना को खाना नहीं मानता। तो मेरे प्यारे लाल, तुम बस इस चेले की चिन्ता करना। मेरी फिक्र की कोई जरूरत नहीं।”
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भक्त के हाथों से झला जाता हुआ पँखा गिर पड़ा। भक्त बेहोश हो गया। कहाँ बाबा को बिठा लिए, वो भी पाँच दिन के लिए।”
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माँ जब मुझे ये कहानी सुना रही थी, तब सुनाते हुए वो कहती थी कि ‘परमुंडे फलाहार नहीं करना चाहिए।’ अर्थात किसी और के खाते में उपवास की घोषणा कर खुद को फलाहारी साबित नहीं करना चाहिए।
मैंने माँ का इशारा समझ लिया था, लेकिन मेरे बहुत से मित्र भक्त परिवार का दर्द नहीं समझ पा रहे हैं।
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ऐसा मैंने सुना है कि आदमी जो नहीं होता, वही होने का ढोंग करता है।
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मैंने ऐसे बहुत से साधु देखे हैं, जो अपने भक्तों को जरा परेशान नहीं करते। उन्हें लगता ही नहीं कि जिसके माथे पर वो आतिथ्य करवा रहे हैं, उसे कोई परेशानी उनसे हो भी रही है। उन्हें सचमुच यही लगता है कि परेशानी तो चेले की वजह से है, जो दो रोटी और दाल के बिना जी नहीं सकता।
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मैंने ऐसे तमाम लोग देखे हैं, जो ‘परमुंडे फलाहार’ करते हैं। ध्यान रखिए कि चेला दुख का कारण नहीं होता है, साधु होते हैं। ऐसे साधु जब राजनीति में कदम रख देते हैं, और आप उनसे पाँच साल रुकने का अनुरोध कर देते हैं, तो बस यही समझ लीजिए कि आप पँखा झलते हुए उनकी फरमाइश सुन कर बेहोश होते रहेंगे, उनकी लिस्ट खत्म नहीं होगी। वो दुहाई चेले की देते रहेंगे कि सारा झंझट चेले में है, वो तो सादा जीवन, उच्च विचार में यकीन रखने वाले हैं।
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उनकी सादगी का आलम कुछ ऐसा होता है कि उन्हें किसी चीज की दरकार नहीं होती, चाहिए सब होता है। राजनीति में ऐसे साधु जब आते हैं, तो उन्हें गाड़ी बंगला अपने लिए नहीं, चेले के लिए चाहिए होता है। सारा झंझट चेले में हैं।
(देश मंथन 25 जुलाई 2015)