संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
आइए, आज आपको एक ऐसी कहानी सुनाता हूँ, जिसे याद करके मेरी रूह काँप जाती है।
बात 1992-93 की है। मुझे याद है, इन्हीं दिनों लाल बसें दिल्ली में लाई गयी थीं। शायद पहला मौका था, जब देश में इतने बड़े पैमाने पर प्राइवेट बसें एकसाथ सड़क पर उतारी गयी थीं। मैं आज इस पर नहीं लिखने जा रहा कि रेड लाइन बसों ने कितने लोगों की जान ली। आज मैं जो कहानी आपको सुनाने जा रहा हूँ, उसे सुन कर आपकी भी रूह काँप जाएगी।
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एक शाम दिल्ली के आईटीओ चौराहे से एक लड़की इसी बस में चढ़ी। बस कुछ दूर ही चली होगी कि एक लड़का उस लड़की से बदतमीजी करने लगा। बस तेज रफ्तार से चलती जा रही थी, बस में बैठा हर शख्स यह देख रहा था कि वो लड़का उस लड़की के साथ छेड़खानी कर रहा है। पर कोई कुछ बोलने वाला नहीं था। लड़की रो रही थी, बस रोकने की गुहार लगा रही थी, पर बस चली जा रही थी।
अचानक एक आदमी उठा, उसने लड़के का विरोध किया। चलती बस में लड़के से उसका झगड़ा हुआ। इस झगड़े के बाद लड़का बस से उतर गया।
बस कुछ दूर गयी ही होगी कि लड़का अपने कुछ साथियों के साथ वहाँ पहुँच गया और उसने बीच रास्ते में बस रुकवाई। उन लोगों ने बस से उस आदमी को उतारा, जिसने उसे लड़की छेड़ने से रोका था और उसकी खूब पिटाई की ।
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बीच सड़क पर हुई इस मारपीट के दौरान पुलिस भी वहाँ पहुँच गयी।
उन लड़कों ने पुलिस वालों से कहा कि ये आदमी खालिस्तान समर्थक है और बस में बहुत देर से बदमाशी कर रहा था। यह आदमी देशद्रोही है।
मेरे एक परिचित जो उस बस में सफर कर रहे थे, उन्होंने मुझे पूरी घटना सुनायी। मैंने उनसे पूछा कि आप लोगों ने उस आदमी को बचाने की कोशिश क्यों नहीं की?
मेरे परिचित ने कहा कि जिस लड़की के साथ छेड़खानी हो रही थी, उसी ने जब कुछ नहीं कहा तो कोई और क्या कहता? उन्होंने बताया कि पूरी बस में कई पुरुष थे, पर एक भी मर्द नहीं था। खुद वो भी नहीं।
मेरे परिचित को इस बात का भी डर था कि मैं पत्रकार हूँ, तो कहीं ये सब अखबार में छाप न दूँ। उन्होंने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इसे अखबार में नहीं छापूं, अन्यथा वो गुंडे उन्हें परेशान करेंगे।
उन्हें इस बात की आत्मग्लानि तो बहुत थी कि वे सच को सामने नहीं आने दे पा रहे थे, पर उन्होंने जब मुझे ये कहानी सुनाई थी, तब मेरे रोंगटे खड़े हो गये थे। मैं हैरान था कि सब चुप रहे और सबकी आँखों के आगे दिल्ली में एक लड़की की रक्षा में खड़ा हुआ एक शख्स न सिर्फ बीच सड़क पर गुडों के हाथों पिटा, बल्कि देशद्रोही भी कहलाया।
मुझे नहीं पता कि इस घटना में आगे क्या हुआ, पर मुझे यह पता है कि दिल्ली के लोग अमन-चैन पसंद हैं। यहाँ के लोग लड़कियों की छेड़खानी का विरोध नहीं करते। आप इनसे यह भी नहीं कह सकते कि आपके घर की बहू या बेटी होती तो आप क्या करते, क्योंकि ये तब भी विरोध नहीं करते। इनके मन में डर है। ये इस खबर पर चुप्पी साध लेने वाले लोग है। ये अपनी बहू-बेटियों को ये कह कर चुप कराने वाले लोग हैं कि ऐसी खबरों से तुम्हारी और परिवार की बदनामी होगी, इसलिए तुम चुप ही रहो।
उस दिन वो लड़की भी चुप रही।
मुझे आगे की कहानी नहीं पता। पर सोचता हूँ कि अब तक तो उस लड़की की शादी हो चुकी होगी, उसके बच्चे भी बड़े हो गये होंगे।
जिस आदमी को पुलिस देशद्रोही मान कर ले गयी, उसका क्या हुआ, ये भी नहीं जानता। शायद ज्यादा पिटाई की वजह से मर गया हो, या फिर जेल जाकर जब छूटा हो, तो खुद ही अपराधी बन कर वहाँ से निकला हो। कुछ नहीं कह सकता। मैं कुछ कहने वाला कौन होता हूँ? मैं पत्रकार हूँ, इसलिए आप ऐसा मत सोचिएगा कि आपके उकसाने से मैं झाड़ पर चढ़ जाऊँगा। मैं भी दिल्ली वाला हूँ, जैसे बाकी दिल्ली वाले होते हैं, मुझे भी वैसा ही होने का हक है।
जिसके घर की लड़की छिड़ी, उसकी किस्मत।
जो आदमी उसे बचाने उठा, उसे मार-मार कर अधमरा कर दिया गया, ये उसकी किस्मत। हम तो शांतिप्रिय लोग हैं, हम सब सह सकते हैं। हमारी खाल सहते-सहते मोटी हो गयी है।
आप हमारे घर में घुस कर भी हमें मारेंगे तो हम कुछ नहीं कहने वाले।
हम सहिष्णु हैं। हम सहनशील हैं।
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ये कहानी तब की है, जब फेसबुक नहीं हुआ करता था। फेसबुक वीरों का जन्म तब नहीं हुआ था।
(देश मंथन 20 फरवरी 2016)




संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :












