संजय सिन्हा, आज तक :
मेरी माँ किसान नहीं थी, लेकिन जिस साल अप्रैल के महीने में आसमान में काले-काले बादल छाते और ओले बरसते माँ सिहर उठती थी।
कहती कि इस साल आम महँगे बिकेंगे।
मैं माँ से पूछता, “आम का ओलों से क्या रिश्ता?”
माँ कहती कि हर दूसरे साल अप्रैल के महीने में ऐसी आंधी आती है और आम के बौर झड़ जाते हैं।
“माँ, आम के बौर क्या होते हैं?”
“आम का फल बेटा, फल। फल पहले फूल होता है और जब इस तरह आंधी आती है, ओले गिरते हैं तो नाजुक फूल खुद को संभाल नहीं पाते, गिर जाते हैं। फिर कम आम होते हैं और आम जब कम होते हैं तो महँगे बिकते हैं।”
“माँ, क्या ऐसी आंधी में सिर्फ आम को ही नुकसान होता है, बाकी सारे फल-पेड़ पौधे बचे रहते हैं?”
“नहीं बेटा, ऐसी आंधी में तो गेहूँ की फसल भी कम हो जाती है। किसानों का बहुत नुकसान होता है।”
उसके बाद माँ-बेटे का लंबा संवाद चलता। माँ समझाती कि कैसे किसान खेती करता है, फसल उपजाता है, मंडी में बेचता है, फिर वो दुकानों तक पहुँचता है, फिर पिताजी दुकान से घर लाते हैं और फिर माँ उस गेहूँ से आटा बना कर रोटी पकाती है।
माँ अप्रैल की आंधियों से डरती थी। चिंतित भी होती थी। कहती थी कि ऐसी आंधी हर साल आती है। बल्कि हर दूसरे साल ज्यादा आती है।
“लेकिन माँ, किसानों के दुख से आप क्यों दुखी होती हैं? पिताजी तो किसान नहीं हैं। फिर हमें क्या फर्क पड़ता है अगर आंधी और ओले में फसल बर्बाद हो जाए तो?”
“हम सब किसान हैं बेटा। सारा संसार धरती से उगने वाले इन फसलों के सहारे ही चलता है। पिताजी दफ्तर में काम करते हैं, उससे उन्हें जो पैसे मिलते हैं, उससे वो खाने का सामान लाते हैं, खाने का सामान किसान उपजाते हैं, इस तरह हम सब आपस में जुड़े हुए हैं। अगर किसान फसल नहीं उपजायेगा तो फिर दफ्तर में काम करके भी कोई पैसे से क्या लायेगा? पैसे का मोल ही तब है, जब फसल है।”
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“माँ आप तो कहती थीं कि हर साल आंधी आती है। आम के बौर हर साल झड़ जाते हैं। गेहूँ की फसल उलट जाती है। फिर इस बार किसानों को लेकर इतनी हाय-तौबा क्यों मची है?”
“किसानों की चिंता है, बेटा। सबको इस बात की चिंता है कि फसल बर्बाद हो गयी तो क्या होगा।”
“लेकिन माँ, आंधी तो हर साल आती है। कभी थोड़ी ज्यादा, कभी थोड़ी कम। तो क्या इस बार सब कुछ खत्म हो चुका है?”
“नहीं, सबकुछ कभी खत्म नहीं होता, लेकिन ये सच है कि इस बार गेहूँ की फसल थोड़ी कम होगी। आम भी कम होगा, लेकिन तुम चिंता मत करो, संजू बेटा सब कुछ मिलेगा। सबको मिलेगा। भगवान बहुत दयालु है। वो सबके लिए इंतजाम करना जानता है।”
“फिर इस बार टीवी पर खबरों में इतना कुछ क्यों आ रहा है? सभी लोग किसानों की चिंता में रो रहे हैं। फूट-फूट कर रो रहे हैं। क्यों माँ? और माँ, इतनी आंधियों के बावजूद मैंने किसी किसान को फूट-फूट कर रोते नहीं देखा। किसान दुखी होकर मर जाते हैं, लेकिन रोते नहीं, क्यों माँ?”
“जिसकी सारी संपत्ति खुले आसमान के नीचे भगवान भरोसे पड़ी हो और जिसके भरोसे पड़ी हो उसी के हाथों लुट जाए तो दुख तो होगा ही बेटा। जिसे दुख होता है वो या तो उसे सह जाता है, या मर जाता है। रोने वाले दुखी नहीं होते बेटा, वो दुख का प्रदर्शन करते हैं।”
“लेकिन जो रो रहे हैं, वो ऐसा क्यों कर रहे हैं?”
बेमौसम की बरसात से बेशक फसलों को नुकसान होता है, बेटा लेकिन बेमौसम के आंसू कभी जाया नहीं जाते। बेमौसम की बरसात से गेहूँ की फसल बर्बाद होती है, लेकिन बेमौसम के आंसू से वोट की खेती लहलहा उठती है। किसानों ने इस पर शोध नहीं किया है, लेकिन नेताओं ने कर लिया है। इसीलिए जिनकी फसल लुटती है, उनसे ज्यादा वो रोते हैं, जिनकी फसल उन आंसुओं के सहारे लहलहाती है।”
“माँ, क्या आप ये कहना चाहती हैं कि जिनका नुकसान होता है, वो रोते नहीं?”
“हाँ, जिनका सचमुच नुकसान होता है, वो रोते नहीं। वो मर जाते हैं, लेकिन आँखों में आंसू नहीं लाते। जिस दिन वो रोना सीख जायेंगे, फिर मरेंगे क्यों? मरने वाले जानते हैं कि तुम्हारा मीडिया उनके आंसुओं को अपने टीवी पर नहीं दिखाने वाला, इसलिए वो रोते नहीं। वो जिनके आंसुओं को टीवी पर दिखा सकता है, रोते वही हैं। तुमने कभी किसी को अकेले में बैठ कर किसी के लिए रोते हुए देखा है? रोने का फायदा ही तब होता है, जब किसी के सामने रोया जाए। मरने वाले अकेले में मर जाते हैं, रोने वाले तो आंसू पोछने वाले हाथों का इंतजाम पहले करते हैं, फिर रोते हैं।”
“समझ गया माँ। इसबार गेहूँ की फसल कम होगी, आम भी कम होंगे, लेकिन वोटों की खेती लहलहायेगी।”
(देश मंथन 25-04-2015)