अजय अनुराग :
विदेश से दो महीने की गुमनामी छुटियाँ (चिंतन अवकाश) बिताकर स्वदेश लौटे राहुल गांधी द्वारा कल संसद में दिया गया भाषण बेहद हैरान व परेशान करने वाला है।
किसानों व मजदूरों की त्रासदी पर इस जुमलेनुमा भाषण और उस पर उनके चारण सांसदों का हँस-हँसकर डेस्क को पीटने वाला दृश्य भी कम त्रासदपूर्ण नहीं था। फिर मीडिया द्वारा इस खबर को तमाशाई अंदाज में दिखाना उसके भी सरोकार को बयाँ करता है।
सवाल है कि जब किसान मर रहें हो तब उनके नाम पर सत्ता पक्ष व विपक्ष की इतनी अगम्भीरता हैरान नहीं करती? क्या सवाल केवल सवाल पूछने के लिए होना चाहिए या उसका कोई मायने है? क्या विपक्ष सवाल कर रहा है इसलिए सवाल बहुत महत्वपूर्ण है? किसानों की अनदेखी करके जब प्रधानमंत्री विदेशों में घूम रहे थे तब विपक्ष का नेता कहाँ घूम रहा था? कंधे पर हल रखकर मीडिया को फोटो देने वाले नेता क्या वाकई किसान-मजदूर की परेशानियों से वाकिफ हैं?
यह कैसी त्रासदी है कि एक आजाद देश में जनता अपनी जंगल और जमीन के लिए लड़ रही है, अन्न उगलने वाली उपजाऊ जमीन पर कंक्रीट के जंगल लगाये जा रहे हैं, सभी सरकारें भस्मासुर बनकर जमीन निगलने लगी हैं। आखिर क्या है इस विकास के मायने? जब सब कुछ किसानों और देश के लिए हो रहा तो फिर इसके विरोध का भी कोई मतलब होगा?
इसी के साथ आज एक बड़ा सवाल नेतृत्व के संकट का भी है। जनता चाहे जैसी भी हो उसका नेता विवेकशील व दूरदर्शी होना चाहिए। ऊंघता हुआ नेतृत्व देश को कहाँ ले जा सकता है? राजनीतिज्ञ होना बेहद आसान है किन्तु राजनेता होना उतना ही कठिन। क्या आज हमें कोई राजनेता दिखायी देता है जो वाकई देश के भविष्य की सोचता हो। इधर हाल के दिनों में नेतृत्व का संकट और गहराया है जब आम जनता की रहनुमाई करने वाला नेता तानाशाह बन जाता है और सत्ता का दैवीय अधिकार प्राप्त नेता आत्म-मोहभंग का शिकार होकर गुमनामी में भटकता है।
देश के अन्नदाता मर रहे हैं और संसद में जुगलबंदी हो रही है कि किसका सुर ठीक लगा है? कभी-कभी तो संसद किसी नुक्कड़ की चाय की दुकान-सी लगती है जहाँ खूब बहसें होती हैं तब तक जब तक प्याली में चाय हो। असल में, आज त्रासदी केवल किसानों की नहीं है बल्कि हमारे नकली विकास और जीवन की भी है, जिसके भरम में हम कुछ बेहद जरूरी सवालों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं!
(देश मंथन, 22 अप्रैल 2015)