खेती करके वह पाप कर रहे हैं क्या?

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कमर वहीद नकवी , वरिष्ठ पत्रकार 

किसान मर रहे हैं। खबरें छप रही हैं। आज यहाँ से, कल वहाँ से, परसों कहीं और से। खबरें लगातार आ रही हैं। आती जा रही हैं। किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इसमें क्या नयी बात है? किसान तो बीस साल से आत्महत्याएँ कर रहे हैं।

इन बीस बरसों में करीब तीन लाख किसान आत्महत्याएँ कर चुके हैं। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री तक के नाम सुसाइड नोट छोड़ कर मर चुके। कुछ नहीं हुआ। किसी ने नहीं सुना।

बीस सालों से आत्महत्याएँ

और किसान क्या पिछले बीस सालों से ही मर रहे हैं! मुंशी प्रेमचन्द के जमाने में भी वह ऐसे ही मरा करते थे। ‘मदर इंडिया’ के जमाने में भी किसान ऐसे ही मरा करते थे। अन्दर पिक्चर हाल में नरगिस के बलिदान पर खूब तालियाँ बजतीं, साहूकार कन्हैयालाल को भर-भर गालियाँ पड़तीं, बाहर असली खेतों वाले गाँवों में साहूकार किसानों का टेंटुआ दबाते रहते और किसान मरते रहते! ईस्टमैन कलर से चल कर अब डिजिटल प्रिंट का जमाना आ गया, समय कितना बदल गया न! बस देश के लैंडस्केप में एक चीज नहीं बदली, कर्ज के बोझ तले किसानों का मरना! वह वैसे ही जारी है। बल्कि आँकड़े कहते हैं कि 1995 के बाद से किसानों की आत्महत्याएँ लगातार बढ़ी हैं। 1991 में देश में आर्थिक उदारीकरण की शुरुआत हुई थी। विश्व व्यापार संगठन के खुले बाजार ने देश का नक्शा बदल दिया, जीडीपी बढ़ती गयी और किसानों की आत्महत्याओं की तादाद भी। अब हर आधे घंटे में भारत की जीडीपी में करीब साढ़े छह अरब रुपये जुड़ जाते हैं और एक किसान आत्महत्या कर लेता है! ये हैं विकास की दो तस्वीरें!

कम हुए 77 लाख किसान!

और जब जीडीपी इतनी भारी-भरकम हो जाये कि आप दुनिया में सातवें नम्बर पर पहुँच जायें तो सब तरफ़ विकास ही विकास दिखता है, लेकिन इस विकास के बीच में किसान क्यों लगातार आत्महत्याएँ कर रहे हैं? विकास की इस बहार में 2001 से 2011 की जनगणना के बीच देश में 77 लाख किसान क्यों कम हो गये? उन्होंने खेती क्यों छोड़ दी? वह कहाँ गये, अब क्या कर रहे हैं? यह सवाल गम्भीर नहीं हैं क्या? देश के विकास कार्यक्रमों की प्राथमिकताओं में यह मुद्दा है क्यों नहीं?

बात सिर्फ अभी की नहीं है कि दैवी आपदा आ गयी, अचानक बेमौसम बरसात ने फसलें तबाह कर दी, इसलिए किसान आत्महत्याएँ करने लगे। अगर ऐसा होता तो कभी-कभार ही होता, लेकिन यहाँ तो किसान हमेशा ही आत्महत्याएँ करते रहते हैं। सूखा पड़ जाये तो भी, बरसात हो जाये तो भी, बाढ़ आ जाये तो भी, फ़सल खराब हो जाये तो भी, फसल ज़्यादा हो जाये तो भी! फसल चौपट हो गयी, तो पैसा डूब गया, कर्ज चुका नहीं पाये, इसलिए आत्महत्या पर मजबूर होना पड़ा और फसल अगर जरूरत से ज्यादा अच्छी हो गयी, तो कहीं रखने का ठिकाना नहीं, बाजार में न दाम मिला, न खरीदार, फसल फेंकनी पड़ गयी, न लागत निकली, न कर्ज चुका, तो आत्महत्या ही एकमात्र रास्ता बचा!

गेहूँ बोओ, महज 23 सौ कमाओ!

आँकड़े चौंकाने वाले हैं। हर दिन औसतन 46 किसानों की आत्महत्याएँ, हर दिन करीब 46 परिवारों पर मुसीबत का पहाड़, पिछला कर्ज कैसे चुकेगा, पेट कैसे पलेगा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे होगी, खेती कौन सम्भालेगा, लड़कियों की शादी कैसे होगी? इस भयावह मानवीय त्रासदी को कैसे रोका जाये, इस पर देश में कभी कोई गम्भीर सोच-विचार नहीं हुआ। उलटे बेशर्मी की हद यह है कि छत्तीसगढ़ और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने इन आँकड़ों को छुपाना शुरू कर दिया और ‘शून्य आत्महत्याएँ’ घोषित करना शुरू कर दिया। कहा जाने लगा कि आत्महत्याएँ खेती की वजह से नहीं, बल्कि नशे की लत, पारिवारिक झगड़े, बीमारी की परेशानी, लड़की की शादी या ऐसे ही किसी कारण से लिये गये कर्ज को न चुका पाने के कारण हो रही हैं!

जबकि सच्चाई यह है कि खेती लगातार किसान के लिए घाटे का सौदा होती जा रही है। उसकी लागत लगातार बढ़ती जा रही है, जबकि बाजार में फसल की कीमत उस हिसाब से बढ़ कर नहीं मिलती, ऐसे में सामान्य हालत में भी किसान के हाथ कुछ नहीं लग पाता। खुद सरकारी आँकड़े बताते हैं कि गेहूँ की फसल पर औसतन एक हेक्टेयर में करीब 14 हजार, सरसों की फसल पर करीब 15 हजार, चने की फसल पर महज साढ़े सात हजार रुपये और धान पर सिर्फ़ साढ़े चार हजार रुपये प्रति हेक्टेयर ही किसान को बच पाते हैं। अब एक छोटा-सा हिसाब लगाइए। गेहूँ की फसल में छह महीने लगते हैं। एक हेक्टेयर में किसान ने अगर गेहूँ बोया और सब ठीक-ठाक रहा तो उसकी मासिक आमदनी करीब 23 सौ रुपये हुई! इसमें तो पेट भरना ही मुहाल है और अगर किसी वजह से कोई ऊँच-नीच हुई, फसल खराब हो गयी, फसल इतनी ज्यादा हुई कि बाजार में कोई खरीदने को तैयार न हो, तो किसान पिछली फसल का कर्ज कहाँ से चुकाये, अगली फसल के लिए पैसे कहाँ से लाये, परिवार को क्या खिलाये, बच्चों को कैसे पढ़ाये? वह आत्महत्या नहीं करेगा तो और क्या करेगा?

भीख से भी गया-गुजरा मुआवजा!

और सरकारों का रवैया क्या रहा? सरकारें चाहे राज्यों की हों या केन्द्र की, किसी भी पार्टी की रही हों, इनमें से किसी ने खेती के इस गणित को सुधारने के लिए कुछ नहीं किया ताकि एक किसान ठीक से परिवार चलाने लायक पैसा कमा सके। होता यह है कि जब कोई आपदा आती है, तो मुआवजे बँट जाते हैं। वह भी अभी तक तब मिलते थे, जब आधी से ज्यादा फसल का नुकसान हुआ हो। भला हो अधर में लटके भूमि अधिग्रहण कानून का कि किसानों को मरहम लगाने के लिए मोदी सरकार ने यह सीमा घटा कर 33% कर दी, लेकिन ऊपर दिये ‘खेती के मुनाफे’ की गणित से आप भी अन्दाजा लगा सकते हैं कि छोटी जोत के किसानों के लिए तो यह तैंतीस प्रतिशत की सीमा भी कितनी बड़ी नाइन्साफी है। वह तो रत्ती भर भी घाटा सह पाने की हालत में नहीं हैं।

और मुआवज़ा क्या मिलता है? आधा-अधूरा। कभी 75 रुपये, तो कभी दो-तीन रुपये भी! याद है न कि दो साल पहले हरियाणा सरकार ने किसानों को दो-दो, तीन-तीन रुपये के चेक बाँटे थे! किसान को कितना नुकसान हुआ, इसके आकलन की कोई व्यवस्था ही नहीं है। उसके ब्लाक में जो औसत नुकसान हुआ, उसके आधार पर सरकारी अफसर अपने दफ्तर में बैठे-बैठे मुआवजा तय कर देते हैं। इस बार हरियाणा सरकार ने न्यूनतम मुआवजा पाँच सौ रुपये और उत्तर प्रदेश सरकार ने पन्द्रह सौ रुपये तय किया है। आप खुद समझ सकते हैं कि इतने मामूली मुआवजे में होगा क्या?

उद्योग के लिए निहाल, किसान के लिए मुहाल!

यह मुआवजा मुँह नहीं चिढ़ाता क्या? इस मुआवजे से न नुकसान की भरपाई होगी, न कर्ज पटेगा, न घर चलाने भर का इन्तजाम हो पायेगा, फिर किसान अगली फसल कैसे बोयेगा? खेती से मुनाफा मामूली, नुकसान होने पर भरपाई की कोई व्यवस्था नहीं, कहने को फसल बीमा योजनाएँ हैं, लेकिन मुश्किल से 10% किसान उसकी कवरेज में हैं, वह भी जबरन उन्हें लेना पड़ता है, जिन्होंने किसी सरकारी एजेन्सी या बैंक से कर्ज लिया है, ताकि बैंक का पैसा न डूबे! वरना इतनी कम कमायी में बीमा प्रीमियम का बोझ कौन उठाये?

पिछले बीस सालों में सरकारों ने उद्योगों के लिए तो बड़ी चिन्ता की, लेकिन मर रहे किसानों को मुआवजे की भीख बाँट देने के सिवा कुछ नहीं किया गया। देश में आधे से ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र उपलब्ध कराता है? फिर भी कृषि क्षेत्र की इतनी बुरी हालत क्यों? उद्योगों के पहाड़ जैसे मुनाफ़े के बदले किसान को राई जैसा मुनाफा क्यों मिलता है? उसको न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी क्यों नहीं? खेती करके वह पाप कर रहे हैं क्या?

(देश मंथन, 20 अप्रैल 2015)

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