संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे एक परिचित की बिटिया की शादी थी।
शादी के चन्द इंतजामों में मैं उनके साथ ही रहा। सबसे दिलचस्प रहा शादी पर मेहमानों के लिए खाने का किया जाने वाला इंतजाम।
हम जिस बैंक्वेट हॉल वाले के पास गये थे, वो बहुत विनम्र आदमी था। मेरे परिचित ने बताया कि बिटिया की शादी है, खाने का अच्छा इंतजाम होना चाहिए। बैंक्वेट हॉल वाले ने मेनू में ढेर सारी चीजें गिनाईं- शाही पनीर, मटर मशरूम, वेज बिरयानी, चिकन बिरयानी, मटन रोगन जोश, चिकन करी, रायता, जलेबी, मूंग दाल का हलवा, रबड़ी और न जाने क्या-क्या। काफी मोल-भाव के बाद सौदा तय हुआ कि प्रति प्लेट करीब ढाई हजार रुपये का खर्चा आयेगा।
मेरे परिचित ने अंदाजा लगाया लिया था कि करीब पांच सौ लोग तो आएँगे ही।
जब सब कुछ तय हो चुका, तो बैंक्वेट हॉल वाले ने हाथ जोड़ कर मेरे परिचित से गुजारिश की कि आपकी बिटिया की शादी है, तो समझ लीजिए मेरी बिटिया की शादी है। खाने का सारा मेनू आपने तय कर दिया है, पैसे भी तय हो चुके हैं, तो मेरी ओर से मेहमानों को स्नैक्स का तोहफा कबूल कीजिए।
स्नैक्स?
“जी! दिल्ली की बारात है, तो कुछ चाट, पकौड़े, स्प्रिंग रोल, गोलगप्पे, आलू टिक्की, चिल्ला आदि आप मेरी ओर से अपने मेहमानों की सेवा में जोड़ लीजिए।”
मैं हैरान था। जो आदमी प्रति प्लेट खाने के दाम में इतना मोल-भाव कर रहा था, वही आदमी अचानक बिटिया की शादी के नाम पर इतना विनम्र कैसे हो गया। अचानक उसने चाट-पकौड़े, स्प्रिंग रोल जैसी चीजें मुफ्त देने की बात कह कर हमारा दिल जीत लिया था। मुझे लगने लगा कि बेकार हम इतना मोल-भाव कर रहे थे। अगर वो सौ दो सौ रुपये ज्यादा भी माँग रहा था, तो उसमें कोई बुराई नहीं थी।
बेटी की शादी में वो बैंक्वेट हॉल वाला हाथ जोड़ कर मदद कर रहा था। ठीक है कि वो बिजनेस भी कर रहा था, पर मानवता उसके भीतर जिन्दा थी।
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शहनाई बजने लगी। मेरे परिचित की बिटिया की शादी के मेहमान जुटने लगे। बैंक्वेट हॉल वाले की तरफ से पुख्ता इंतजाम था। जैसे ही कोई आता, सबसे पहले उसे कोल्ड ड्रिंक पिलायी जाती। फिर हाथ में प्लेट लिए उसके लोग वहाँ घूम रहे थे। कोई स्प्रिंग रोल लेकर आता, कोई उबले आलू की चाट हाथ में लिए होता। मैंने भी दो-तीन बार स्प्रिंग रोल का स्वाद लिया, उबले आलू की चाट खायी। फिर मैंने देखा कि गोलगप्पे वाले के पास लोग लाइन लगा कर खड़े हैं, तो मैंने भी तीन-चार गोलगप्पे खाये। फिर किसी ने मुझे इशारा किया कि संजय भईया, पुरानी दिल्ली की चाट है, खाना मत भूलिएगा। मैंने एक प्लेट चाट भी खा ली।
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शहनाई बज रही थी। मेहमान आ रहे थे। फ्री कोल्ड ड्रिंक, स्प्रिंग रोल और आलू चाट से सबका भव्य स्वागत हो रहा था।
आखिर में खाने की बारी आई। मुझे तो रत्ती भर भूख नहीं थी। पर मैंने एक प्लेट उठा ली और अनमने से आधी रोटी ली। वो भी मुझसे नहीं खाई गयी। पेट में आलू टिक्की उछल रही थी। मन ऊपर तक भरा था।
मैंने देखा कि ज्यादातर मेहमान प्लेट में या तो एक चम्मच चावल लिए बैठे हैं, या कोई सिर्फ सलाद उठा कर मुँह जूठा कर रहा है। उसे पूरे समारोह में सभी मेहमान बहुत खुश थे, सबके पेट भरे हुए थे। सबने प्लेट हाथ में उठाई थी, लेकिन खाने का मन किसी का नहीं था। या इसे इस तरह से समझिए कि स्नैक्स से ही सबका दिल भर चुका था।
पर प्लेट तो प्लेट थी। हमारा सौदा पाँच सौ प्लेटों के लिए तय था। ऊपर से यह भी तय हुआ था कि पाँच सौ से ऊपर जितनी प्लेटें होंगी उनके चार्ज अतिरिक्त होंगे। यानी एक प्लेट जूठी हुई तो बैंक्वेट हॉल के खाते में ढाई हजार रुपये गये।
हमने जोड़ा, करीब सात सौ प्लेटें जूठी हो चुकी थीं, पर आधा से अधिक खाना बचा था।
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मैंने मन ही मन अंदाजा लगाया कि करीब सौ आदमी के लिए खाना बना होगा, जिसे सात सौ लोग खा चुके थे। अभी न जाने कितने लोग खा सकते थे।
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ऐसा क्यों हुआ?
ऐसा इसलिए हुआ कि ज्यादातर मेहमान स्नैक्स से संतुष्ट थे। सबने यही कहा कि खाने का इंतजाम बहुत अच्छा था। किसी ने ये सोचने की जहमत नहीं उठाई कि उन्होंने जो आलू की टिक्की और गोलगप्पे खाये हैं, वो पचास-सौ रुपये से अधिक का नहीं था, लेकिन उसके बदले में बेटी के बाप को ढाई हजार रुपये प्रति प्लेट का पैसा भरना पड़ा।
यानी बैंक्वेट हॉल वाले को प्रति प्लेट दो हजार से अधिक रुपये की बचत।
मुझे सारा खेल समझ में आ गया। मुझे याद आया कि बैंक्वेट हॉल वाले ने सारा कुछ तय होने के बाद क्यों कहा था, “आपकी बिटिया तो मेरी भी बिटिया हुई। तो स्नैक्स मेरी तरफ से।”
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मैं दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में घूम रहा था। फुटपाथ पर दुकानें सजी थीं। लोग बेतरतीब इधर-उधर ठेला लगाए बैठे थे। ऑटो, रिक्शा, आदमी सब एक-दूसरे पर चढ़े जा रहे थे। गाड़ियाँ इधर-उधर पार्क की हुई थीं। पैदल चलना तक मुश्किल लग रहा था। अन्दर की तो दुकानें भी एक दूसरे पर सवार थीं।
मैंने एक दुकानदार से पूछा कि भाई आपको अजीब नहीं लगता कि आप सारा दिन इतने प्रदूषण, इतनी शोर, इतनी भीड़ के बीच बैठ कर बिजनेस करते हैं।
दुकानदार ने मुस्कुराते हुए कहा कि साहब दुकान ठीक चल रही है। सरकार की तरफ से यही मेहरबानी बहुत है कि वो हमें फुटपाथ पर दुकान लगाने से नहीं रोक रही। गाड़ियों के चालान नहीं काट रही, हमें तो इसी बात की खुशी है।
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मैं मन ही मन हंस पड़ा।
सरकार ने ये सुविधा दी हुई है? अरे भाई! सरकार ने तुम्हें स्नैक्स दिया हुआ है। तुम्हारा पेट स्नैक्स से भर दिया है। तुम्हारे नाम पर ढाई हजार रुपये का खाना न खिलना पड़े, इसलिए उसने दूसरे की बेटी अपनी बेटी बता दी है। उसने ऐसा इसलिए किया है कि खाना सौ लोगों का बने और पैसे सात सौ लोगों के लिए वसूल लिए जाएँ।
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आपने जिन नेताओं को वोट दिया था, जिसके बदले में आपको अच्छी सड़क, अच्छी हवा, साफ सुथरे शहर का वादा किया गया था उसे भुला कर वो आपके ऊपर इसी बात का अहसान लाद रहे हैं कि वो आपकी फुटपाथ की दुकान चलने दे रहे हैं, आपको सड़कों पर गाड़ी पार्क करने दे रहे हैं, आपको अपनी ही दुकान के पीछे छुप कर सुसु करने से नहीं मना कर रहे हैं। आपको सारा दिन बदबू से गुजरने से नहीं रोक रहे।
आप जिसे अपने ऊपर अहसान मान रहे हैं, वो दरअसल उनकी साजिश की स्नैक्स है। आपको चाट पकौड़ी मेहमानवाजी में नहीं खिलायी जा रही, साजिश में खिलायी जा रही है।
आपके लिए बेहतर शहर का इंतजाम करना सरकार की जिम्मेदारी है, पर आप गोलगप्पे में खुश हुये जा रहे हैं।
मत भूलिए कि जो नेता रूमाल नाक पर लगा कर आपसे वोट माँगने आये थे, वो बीच-बीच में आपके पास चालान काटने के लिए सिर्फ इसलिए पुलिस भेजते हैं, और फिर आपको छोड़ देते हैं, ताकि आपको उनके अहसानों का अहसास हो।
वो नगर दुरुस्त करने नहीं आते हैं। उनके घरों से कई किलोमीटर दूर तक बदबू नहीं आती, रिक्शे नहीं चलते। आपके ढाई हजार रुपयों से वो आपको ही पचास रुपयों की आलू टिक्की खिला कर आपको खुश किये जा रहे हैं।
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मुफ्त कुछ नहीं मिलता। दुर्भाग्य यह है कि आपको अपनी ही कीमत का अंदाज नहीं।
(देश मंथन 24 जुलाई 2015)