चुप्पी

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संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :

सर्दी के दिन थे। बुआ आँगन में चटाई बिछा कर अपने पोते को सरसों का तेल लगा रही थी। हम ढेर सारे बच्चे वहीं छुपन छुपाई खेल रहे थे।

बुआ के घर किसी भी सर्दी की सुबह का यह एक आम दृश्य था। हम बच्चों को जब भी मौका मिलता नानी घर जाने की जगह बुआ के घर जाने को मचलते। बुआ का घर बहुत बड़ा था। घर के बीच बहुत बड़ा आँगन था। और सर्दी की दोपहर में यह आँगन खूब गुलजार रहता।

एक तरफ हम बच्चे धमाचौकड़ी मचाते, दूसरी तरफ बुआ की बहुएँ सब्जी काट रही होतीं, तीसरी तरफ कुछ भैया लोग अधनंगे होकर धूप सेंकते हुए पढ़ने का अभिनय कर रहे होते और चौथी ओर बुआ घुटने तक अपनी साड़ी उठा कर साल भर के अपने पोते को सरसों के तेल की मालिश करती थीं। आम तौर पर ऐसा हर रोज होता था, एक दो पात्र इधर-उधर हो जाएँ तो और बात है, लेकिन रविवार को तो यह एकदम पक्के तौर पर दिखने वाला सीन था।

फूफाजी वकील थे। एक बार उनके चँगुल में जो मुअक्किल फँस गया तो, समझिए कि उसका तेल निकल गया। किसी की जमीन-जायदाद का विवाद अगर फूफाजी के पास आ गया, तो हमने ऐसा सुना था कि फूफाजी फीस कम लेते थे, उसकी वो जमीन ज्यादा ले लेते थे, जिस पर विवाद होता था। इस तरह मेरे फूफाजी वकील कम, जमींदार ज्यादा थे।

खैर, मेरी आज की कहानी के हीरो फूफाजी नहीं हैं। मेरी आज की कहानी की हीरोइन मेरी बुआ भी नही हैं। हालाँकि मेरी बुआ हमें इतना मानती थीं कि मैं उन्हें अपने जीवन में हीरोइन से ज्यादा बड़ा दर्जा दे सकता हूँ। बुआ की शक्ल दादी से बहुत मिलती थी, और उनका व्यवहार भी दादी की तरह दुलार भरा था। अपने जिस छोटे पोते को वो उस दिन तेल लगा रही थीं, उसे तेल लगाने के बाद अक्सर वो हमारी भी मालिश किया करती थीं। वो कभी किसी बच्चे को नहीं डाँटतीं और एक थाली में ढेर सारा खाना लेकर सारे बच्चों को घूम-घूम कर खिलाती थीं। हम बच्चे दौड़-दौड़ कर उनके पास आते और वो मुँह में चावल-दाल का एक-एक कौर डालतीं। ये मैना है, ये सुग्गा है, ये गौरैया है और हम बच्चों का पेट भरता चला जाता।

आज मैंने जिस कहानी को सुनाने के लिए इतनी भूमिका बाँधी है, वो कहानी बहुत छोटी सी है।

बुआ उस दिन भी अपने घुटने तक साड़ी उठा कर अपने साल भर के पोते को पैर पर लिटा कर सरसों तेल की मालिश कर रही थीं। बाकी सारा दृश्य वैसे ही चल रहा था, जैसा मैंने ऊपर वर्णन किया है। लेकिन तभी एक नई घटना घट गयी। अचानक बुआ की निगाह वहीं चटाई के पास कुंडली मार कर बैठे एक साँप पर पड़ी। बुआ चीख पड़ीं।

साँप-साँप का हल्ला मच गया।

सभी उछल कर भागे। बुआ जिस कोने में बैठी थीं, वहीं उनकी घिग्घी बन्द गयी। हम बच्चे जहाँ खेल रहे थे, वहीं रुक गये।

अब साँप का जो हुआ सो हुआ। पर असल कहानी यहाँ है।

बुआ का एक भतीजा जो उन दिनों नया-नया गाँव से पढ़ायी करने आया था, बुआ के पास आया और उसने कहा, “चाची, हम तो बहुत देर से देख रहे थे, साँप को।”

बुआ बिगड़ीं। “बहुत देर से देख रहे थे, तो बताए क्यों नहीं? किसी को काट लेता तो?”

“चाची हम सोचे कि आपका पालतू साँप है। एकदम आपके बगल में बहुत देर से बैठा था।”

***

परसों पंजाब के गुरुदासपुर में कुछ आतंकवादियों ने जम्मू जा रही एक बस पर हमला किया। फिर एक कार में सवार होकर उन्होंने एक थाने को अपने कब्जे में ले लिया। कई पुलिस वालों को मार दिया। खैर, अंत में वो खुद भी मारे गये। इतनी खबर तो आपने देखी ही होगी, पढ़ी भी होगी।

पर हमारे दफ्तर में एक बहुत मजेदार खबर आयी। खुफिया विभाग ने बताया कि उसे पहले से इस बात की जानकारी थी कि पंजाब में ऐसा कुछ हो सकता है।

खुफिया विभाग के अफसरों ने पंजाब में आतंकवादी हमला होने के बाद यह बयान दिया कि उनके पास इस बात की जानकारी थी कि कुछ आतंकवादी ऐसी वारदात को अंजाम दे सकते हैं।

मुझे नहीं पता कि वारदात के पहले अगर खुफिया विभाग को इस बात की जानकारी थी, तो उसने रोकने के कोई उपाय क्यों नहीं किए। या फिर वारदात से पहले ये अंदेशा उन पुलिस वालों से साझा क्यों नहीं किया, जो बेचारे मुफ्त में मारे गये।

कारण तो मुझे नहीं पता। लेकिन मैं पता लगाने की कोशिश कर रहा हूँ कि कहीं मेरे बुआ का वो भतीजा, जिसने साँप को बुआ के बगल में पहले ही देख लिया था, और उसे पालतू समझ कर चुप रह गया था, इन दिनों पढ़-लिख कर खुफिया विभाग में तो नहीं लग गया!

हमारे बुआ के घर तो उनका एक ही भतीजा ऐसा था। आप भी पता कीजिए कि आपकी जानकारी में तो ऐसे भतीजे नहीं, जिन्हें चीजें पता होता हैं, लेकिन वो उस पर चुप्पी साधे बैठे रहते हैं। घटना के बाद वो यह सत्य जाहिर करते हैं कि उन्हें तो सब पहले से पता था।

जाहिर है और भी लोग ऐसे होंगे ही, वर्ना केवल मेरे बुआ के भतीजे के बूते तो देश का खुफिया विभाग नहीं चल रहा न!

(देश मंथन 29 जुलाई 2015)

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