होरी के वंशजों की त्रासदी

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अजय अनुराग:

बेशक, ‘गोदान’ का नायक ‘होरी’ गोदान ही नहीं समूचे हिंदी कथा साहित्य का ‘हीरो’ है और उसकी त्रासदी हमें परेशान भी करती है, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि उसकी त्रासदी में कुछ हिस्सेदारी उसकी भी है? होरी के चरित्र में जो एक अजीब किस्म का दब्बूपन है वही उसके शोषण का कारण है, जिससे वह कभी मुक्त नहीं हो पाता।

भाग्यवादी, यथास्थितिवादी, झूठे मान-मरजाद को मानने वाला और लकीर का फकीर होरी अपने गाँव के उन्ही लोगों को सलाम करता है जो उसका शोषण करते हैं।

हम पूर्वी भारत के लोगों में होरी के चरित्र का वह ‘कईयांपन’ अभी भी वैसा ही है। चालाकी, चतुराई और अपना काम निकाल कर धीरे से निकल जाने की प्रवृति, सामन्ती ठसक, खाली जेब मगर खुद को अवध का नवाब समझने की सनक आदि कुछ बातें वैसी ही हैं। यहाँ के लोगों की प्रतिभा पर कोई सवाल नहीं उठाया जा सकता है, लेकिन यह क्षेत्र इतना गरीब क्यों है, यहाँ के लोग पढ़े-लिखे गंवार क्यों हैं, प्रतिभा है तो भीड़ के घोड़े पर सवार क्यों हैं, पैसे और पद पाकर भगवान् बनने पर उतारू क्यों हैं और…और भी बहुत कुछ?

होरी जैसे लोगों को देख कर दुःख होता हैं। वैसे, होरी की अपनी बेबसी भी थी लेकिन आज तो जमाना बदल गया हैं, लोकतंत्र हैं, फिर गोबर जैसा बगावत क्यों नहीं? जो हमारा शोषण करता हैं हम उसे ही अपना उद्धारक समझ बैठे हैं। और हमारा ‘कईयांपन’ यह है कि जो हमसे लोकतान्त्रिक व्यवहार करता है, हमें सम्मान देता है उसे हम ‘घुइयां’ समझते हैं। खुद भले कुछ न लिखें लेकिन दूसरों पर लिखने में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के बड़े भाई बन जाते हैं। जाति और घटिया राजनीति को जिन्दा बनाये रखने की कसम खाए हुए हैं। हद तो यह है कि हम हमीं हैं अब आप चाहे हमें जो समझें।

(देश मंथन, 01 जुलाई 2016)

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