संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
जिसके पाँव में चक्कर हो वो कहीं से कहीं जा सकता है। वो चैन से बैठ ही नहीं सकता।
वो सुबह उठ कर भोपाल चला जाए, भोपाल से मुंबई चला जाये, मुंबई से हैदराबाद पहुँच जाये, मतलब कुछ भी हो सकता है। यात्रा ही उसकी मंजिल होती है, पड़ाव कहीं नहीं।
गर्मी में हैदराबाद पहुँचने का अर्थ होता है खुद को और झुलसाना। वातानुकूलित होटल, वातानुकूलित कार में मुमकिन है कि आदमी का शरीर झुलसने से बच जाये लेकिन आदमी किसी ऐसी घटना के बारे में सुन ले, जिसमें तन नहीं मन झुलसने लगे तो फिर कोई वातानुकूलन यंत्र काम नहीं आता।
अभी मेरी यात्रा का एक पड़ाव हैदराबाद है। बहुत दिनों बाद यहाँ एक जानकार से मिलना हुआ। वो छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक अस्पताल में अधिकारी हैं। बेचारे को कुछ ही दिन पहले दिल का दौरा पड़ा था और उन्हें अस्पताल में अधिकारी होने के कारण इलाज में काफी सहूलियत मिल गयी। उनका हालचाल पूछने के बहाने मैंने यूँ ही उनसे पूछ लिया कि ये प्राइवेट अस्पताल वाले सचमुच मरीजों से लूटपाट करते हैं या ये सब केवल हम जैसे पत्रकारों के मन से निकली काल्पनिक कहानियाँ हैं।
उन्होंने मेरी ओर गौर से देखा। कहने लगे, “इतने बड़े पत्रकार भी नहीं बन गये हो कि तुम हर सच को समझ ही जाओ। सच तो ये है कि तुम्हारे जैसे सौ पत्रकार रोज चक्कर लगा कर भी 5% सच नहीं जान पाते।”
मेरी आँखें चौड़ी हो गयीं।
“क्या कह रहे हैं? इतनी कहानियाँ जो रोज अखबारों में छपती हैं, वो 5% भी नहीं?”
“ जी 5% भी नहीं। अब सुनो। जिस दिन मुझे रायपुर से हैदराबाद के लिए निकलना था, उससे एक रात पहले रात में इमरंजसी में एक मरीज आया। डॉक्टरों ने मरीज को देखा, मैं भी वहीं था। मरीज की नब्ज थम चुकी थी। मैंने बहुत गौर से डॉक्टर की ओर देखा। मैंने उससे आँखों ही आँखों में बातें की और कहा कि ये तो…। अरे चुप रहिए महाराज। इसे अभी इमरजंसी में भरती करते हैं, फिर आईसीयू में डालेंगे। एक ऑपरेशन की योजना बनाते हैं। सुबह बता देंगे जो सच है…।”
मैं हतप्रभ अपने परिचित की ओर देख रहा था।
“मैं जानता था कि स्ट्रेचर पर हमारे अस्पताल जिसे लाया गया था, वो मुर्दा था। डॉक्टर भी जान चुका था कि उस मुर्दा शरीर को संसार में कोई ताकत दुबारा जिंदा नहीं कर सकती थी, लेकिन अस्पताल का वो अनुभवी डॉक्टर ये भी जान चुका था कि जिस मुर्दा शरीर को अस्पताल तक लाया गया है उनके रिश्तेदारों की आँखों में उम्मीद के जो चंद कतरे मौजूद हैं, वो अनमोल हैं। उन आँखों के हर कतरे की एक कीमत है। इमरजंसी, आईसीयू, ऑपरेशन थिएटर हर जगह से कुछ न कुछ मिलेगा। जो मिलेगा उससे मरीज के परिजनों की उम्मीदें बंधी हैं, अस्पाल का पाँच सितारा स्टेटस बंधा है और डॉक्टरों का कमीशन तो बंधा ही है। इतनी रात आया ये शव एक साथ कई लोगों की उम्मीद बन कर आया है। इसे यूँ ही जाया करना तो प्रोफेशन का अपमान है, उम्मीदों का अपमान है, लक्ष्मी का अपमान है।”
परिचित बोलते जा रहे थे। मेरे रोंगटे खड़े होते जा रहे थे।
“तो संजय, सुबह तक सारे डॉक्टरों ने इधर से उधर और उधर से इधर खूब समय काटा। मुर्दे के रिश्तेदारों को खूब ढाढस बंधाया। रिश्तेदारों को भी पता था कि मर कर कोई जिंदा नहीं होता, लेकिन सफेद कोट पहने और स्टेथेस्कोप लटकाये उस ईश्वर रूपी मनुष्य में अगाथ आस्था उनकी मरी हुयी उम्मीदों पर भी ग्लुकोज का पानी चढ़वा लेने को तैयार थीं। ऐसी घड़ी में मरीज़ मान ही लेता है कि डॉक्टर सचमुच भगवान का दूसरा रूप है, और वो खुद को उनके हाथों सौंप देता है।”
“फिर क्या हुआ? मरीज के साथ हुआ क्या?”
“मरीज? मैंने कब कहा कि उस रात हमारे अस्पताल में मरीज आया था? मैंने तो शुरू में ही कह दिया था कि मुर्दा लाया गया था। तुम पत्रकार भी न भोले होते हो। अपने मन में कहानियाँ गढ़ते रहते हो। पूरी बात सुनने से पहले इमोशनल हो जाते हो। अरे उस रात मुर्दा हमारे अस्पताल लाया गया था। हमारा अस्पताल रायपुर शहर का सबसे बड़ा अस्पताल है। बड़ा इसलिए नहीं कि वहाँ के सारे डॉक्टर बहुत बड़े हैं। अस्पताल इस बात से बड़ा होता है कि वहाँ के डॉक्टर कितने अनुभवी हैं इस सच को समझ पाने में कि किस मरीज के परिजन में दम है, मुर्दे को भी जिंदा कराने की कोशिश कर पाने का। किस मरीज के परिजन अपने आँसुओं की कीमत चुकाने को तैयार हैं। यही अनुभव अस्पताल को शहर में बड़ा बनाता है, यही अनुभव अस्पताल को पाँच सितारा तमगा दिलवाता है तो, उस रात हमने उस मुर्दे को भर्ती कर लिया। सबकी नाइट ड्यूटी सार्थक रही। सुबह तक जब करीब डेढ़ लाख रुपयों का बिल बन गया, तो अपनी ड्यूटी खत्म करते-करते डॉक्टर ने बता दिया कि सॉरी, हमारी सारी कोशिशें…, सबकुछ तो ईश्वर के हाथ में है…, ओह! सचमुच हमें बहुत अफसोस है।”
मैं सुन्न हो रहा था।
“रिश्तेदार बिलख उठे। मैंने खुद देखा कि एक महिला जो शायद उसकी पत्नी रही होगी, एकदम खामोश हो गयी। रात से मैं उसकी आँखों में उम्मीद की जिस झूठी किरण को देख रहा था, वो सुबह होते होते बुझ गयी थी। सारे लोग इधर से उधर दौड़ रहे थे। कोई काउंटर पर पैसे जमा करा रहा था। कोई शव को ले जाने की तैयारी कर रहा था। डॉक्टर मेरी ओर देख कर मुस्कुरा रहा था। उसकी आँखें चमक रही थीं। कह रही थीं कि अगली सुबह अक्षय तृतीया है, कल सोना खरीदने का दिन है। सोना खरीदना शुभ होता है। आज की रात उसी शुभ की तैयारी के नाम।”
अब मैं आगे सुन पाने की स्थिति में नहीं था।
हैदराबाद की झुलसा देने वाली गर्मी मेरे तन का कुछ नहीं बिगाड़ सकती, क्योंकि मै तो एसी होटल में बैठा हूँ, लेकिन मेरे झुलसते मन को शीतल कर पाने वाला होटल कहाँ है?
आपको पता हो तो बताइयेगा।
बहुत परेशान हूँ। ऐसी कहानियाँ मुझे विचलित कर देती हैं। मैं जानता हूँ, आपको भी विचलित करती हैं।
(देश मंथन, 23 अप्रैल 2015)