संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
पिछले दिनों मैं सिंगापुर गया था। वहाँ मुझे एक कांफ्रेंस में शामिल होने का मौका मिला, जिसमें भारत के तमाम बिजनेसमैन आये थे।
व्यापारियों की उस बैठक में मुझे कुछ बोलना नहीं था, सिर्फ सुनना था।
भारत लगातार तरक्की कर रहा है। सारे बिजनेस मैन एक स्वर में यही कह रहे थे। कोई कह रहा था कि होटल उद्योग बहुत फल रहा है, किसी को पर्यटन में अच्छा कारोबार नजर आ रहा था, तो कोई कम्प्यूटर के कारोबार का गुणगान कर रहा था। जितने लोग उतनी बातें। बैठक में भारत के एक बड़े अस्पताल समूह की सीईओ भी मौजूद थीं। उन्होंने स्वास्थ्य सेवाओं में बिजनेस के विकास की संभावनाओं पर अपनी राय रखी और बताया कि भारत में इस समय साठ खरब रुपयों की स्वास्थ्य सेवाओं का कारोबार हो रहा है और यह आंकड़ा और बढ़ सकता है अगर स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े लोग इसमें थोड़ी स्मार्टनेस और दिखाएँ। उन्होंने एक शब्द का इस्तेमाल किया कि भारत आने वाले समय में दुनिया का सबसे बड़ा ‘स्वास्थ्य पर्यटन स्थल’ बन जाएगा।
लोगों ने हेल्थ बिजनेस की कामयाबी पर तालियाँ बजा कर उनका स्वागत किया।
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पिछले दिनों मेरी एक परिचित को बुखार हुआ। डॉक्टर को दिखलाया तो पता चला कि कोई संक्रमण हो गया है। डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया। जाँच के लिए खून लिया गया और बताया गया कि तीन दिनों बाद रिपोर्ट आएगी, तब तक आपको अस्पताल में रहना होगा। तब तक एंटीबॉयोटिक उन्हें दिया जाने लगा। तीन दिनों बाद रिपोर्ट आयी तो पता चला कि जो एंटीबॉयोटिक अब तक दे रहे थे, उसकी जरूरत नहीं थी। इस वाले बैक्टेरिया पर दूसरा एंटीबॉयोटिक दिया जाता है। लीजिए अब हफ्ता भर दूसरा एंटीबॉयोटिक दिया जाने लगा। अस्पताल में हफ्ता गुजर गया।
डॉक्टर आये, उन्होंने मरीज को देखा और कहा कि अब आपका इलाज बिल्कुल ठीक है। पर हम आपको दो हफ्ता और अस्पताल में रखेंगे।
“क्यों?”
“क्योंकि अभी आपकी दवा का कोर्स दो हफ्ते और चलेगा।”
“पर अभी जूनियर डॉक्टर आया था, वो कह रहा था कि आप लोग घर जा सकते हैं। ये दवा घर में लेते रहिएगा।”
“उसे कुछ नहीं पता। आपको कम से कम चौदह दिन यहाँ और रहना ही पड़ेगा। और आपको किस बात की चिंता है? आपका तो हेल्थ इंश्योरेंस है।”
“जी डॉक्टर। पर अस्पताल तो अस्पताल है।”
“जी नहीं आपकी मर्जी नहीं चलेगी। जैसा मैं कह रहा हूँ, वैसा ही होगा।”
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मेरी परिचित का इलाज दिल्ली के बड़े प्राइवेट अस्पताल में चल रहा है। वो कुछ दिनों से बीमार हैं और उन्हें बार-बार अस्पताल जाना पड़ता है। शुरू में तो डॉक्टर पर पूरा भरोसा था, पर अब धीरे-धीरे लगने लगा है कि बीमारी पता नहीं थी या नहीं, पर इलाज बढ़ता जा रहा है। मैं कई बार उन्हें देखने अस्पताल जाता हूँ। मैंने डॉक्टरों को मरीजों से सीधे-सीधे पूछते हुए देखा है कि आपका हेल्थ इंश्योरेंस है कि नहीं। अगर इंश्योरेंस हुआ तो वो मरीजों को फौरन अस्पताल में भर्ती कर लेते हैं। एक दिन सिंगल बेड कमरे का चार्ज होता है करीब दस हजार रुपये। उस कमरे में डॉक्टर जितनी बार हालचाल पूछने आएँगे, उनकी फीस अलग होती है। दवा, खाना सबके अलग चार्ज।
आज मैं सरकारी अस्पतालों के विषय में नहीं लिख रहा, पर होटलनुमा अस्पतालों का सच यही है कि सचमुच ये सोने का अंडा देने वाली मुर्गियाँ हैं। सिंगापुर में जब मैं उस अस्पताल की सीईओ के मुँह से सुन रहा था कि भारत में अस्पताल उद्योग बहुत फल रहा है, तो सबने तालियाँ भले बजायी थी,पर मेरे हाथ बंधे हुए थे। मैं समझ रहा था कि जो लोग तालियाँ बजा रहे हैं उन्हें नहीं पता कि एक दिन वो भी इस दंश का शिकार होंगे।
मुझे वहाँ कुछ बोलना नहीं था इसलिए मैं चुप रहा। पर मैं आपको एक सच ये भी बता रहा हूँ कि जिस देश में स्वास्थ्य और शिक्षा को कारोबार मान लिया जाता है, वो देश चाहे जितना चमकता नजर आए, वहाँ मानवता मर जाती है।
पूरी दुनिया के लिए इस सच को समझना बहुत जरूरी है कि ये दोनों काम व्यापार नहीं हैं। नहीं होने चाहिए।
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मेरे परिचित ने मुझे फोन किया कि डॉक्टर दो हफ्ते और रोक रहे हैं।
मैंने अस्पताल के अधिकारियों से बात की। उन्होंने उस डॉक्टर से बात की कि क्या मरीज को घर में दवा नहीं दे सकते?
“जी दे सकते हैं।”
“इन्हें छोड़ दो।”
मेरी परिचित घर चली आयीं। एक हफ्ते में इंशयोरेंस से डेढ़ लाख रुपये का बिल चुका कर।
यहाँ सचमुच हेल्थ बिजनेस में सचमुच बहुत स्कोप है।
तालियाँ।
(देश मंथन 07 फरवरी 2016)