सुशांत झा, पत्रकार :
सलमान प्रकरण में सबसे अच्छी बात ये हुई है कि पब्लिक की निष्पक्ष और त्वरित न्याय पाने की व्यग्रता अपने विराट रूप में प्रकट हुई है।
अखबारों या टीवी जैसे संस्थागत माध्यमों से वो संभव नहीं था। कोई भी बड़ी पून्जी पर चलने वाला माध्यम, सलमान जैसी हस्तियों के खिलाफ एक सीमा से ज्यादा नहीं लिख या बोल सकता। सबके अपने समीकरण और सीमा रेखाएँ हैं।
अखबारी युगों में जिन सुधारों को हासिल करने में दशकों लग जाते थे, सोशल मीडिया में वो संभावना है कि उसे सालों और महीनों में हासिल करवा सकता है। हाँ, मुद्दे जमीनी हों – हवाई न हो – वरना सोशल मीडिया भी माध्यम ही है। वो सिर्फ इतना करता है कि कम खर्चे और झँझट में आपकी बातों को बड़ा मन्च प्रदान कर देता है।
सोशल मीडिया और इन्टरनेट अब मेनस्ट्रीम मीडिया को महज प्रभावित ही नहीं कर रहा, उसे ओवरटेक कर रहा है। पब्लिक के पोस्ट पढ़कर एंकर शब्द गढ़ रहे हैं, सवाल दाग रहे हैं। इसमें कोई बुराई नहीं है – मैं बस प्रभाव की बात कर रहा हूँ। समय आ गया है कि मेनस्ट्रीम मीडिया की परिभाषा में थोड़ी फेरबदल की जाए। ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो प्राइम टाइम नहीं देखते, अखबार नहीं पढ़ते। उनके लिए उनका मोबाइल हर समय प्राइम टाइम है। बल्कि स्थिति यह है कि लोग वेबसाइट्स की होमपेज नहीं देखते, सीधे मेन पेज पर चले जाते हैं।
कल तहलका के इंटरव्यू में पप्पू यादव जैसे एक जमाने के कुख्यात सांसद ने फेसबुक जेनरेशन की बात की, तो लगा कि बातें भू-गर्भ तक पहुँच गई है। कल्पना कीजिए कि सलमान खान का मामला सोशल मीडिया – पूर्व युग में घटित होता (ऐसे मामले तो आम ही थे), तो क्या अखबारों या टीवी चैनलों पर उस स्तर का आक्रोष दिखता? संभव नहीं था। सोशल मीडिया और इंटरनेट ने कई समीकरणों को ध्वस्त करके रख दिया है। सलमान खान, दो ही दिन में थोड़े कम बड़े स्टार हो गये हैं।
हाँ, इंटरनेट को क्रान्ति कहने की हड़बड़ी में मैं नहीं हूँ। लेकिन सलमान खान सोच रहे होंगे कि काश, भारत में इंटरनेट थोड़ी देर से आता।
(देश मंथन, 08 मई 2015)




सुशांत झा, पत्रकार :












