पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
तीस मई को बीत गया पत्रकारिता दिवस। सुबह अखबारों में देख रहा था वरिष्ठ पत्रकार भाई पुण्य प्रसून वाजपेयी का बीएचयू में सिद्धांत झाड़ने वाला व्याख्यान तो वाराणसी पत्रकार संघ और काशी विद्यापीठ में आयोजित संगोष्ठियों के समाचारों में एक समानता यह नजर आयी कि वक्ताओं नें लंबी चौड़ी बातें की और जताने की कोशिश की कि पत्रकारिता परवान चढ़ी है। परंतु किसी ने भी यह जमीनी सच कहने की हिम्मत नहीं की कि मुख्य धारा की पत्रकारिता राह से भटक चुकी है।
संपादक मैनेजर हो चुके हैं। युवा प्रतिभाओं को तराशने का काम लगभग बंद है। यदि हम भाषायी पत्रकारिता की बात करें तो हिंदी का बुरा हाल है। कभी साइकिल पर अखबार बेचने वाले आज मीडिया घराने बन गये। हजारों करोड़ का टर्न ओवर हो गया। क्या यह पत्रकारिता की देन है? नहीं, कतई नहीं यह तो आक्रामक मार्केटिंग की देन है। खुद को बड़े अखबार का दावा करने वाले समाचार लेखन की गुणवत्ता के बजाय ईनामी ड्रा – कूपन, समाचार पत्र बिक्रेताओं को ज्यादा कमीशन आदि बैसाखियों और प्रतिस्पर्धी अखबार के आगमन के साथ ही दाम घटाने की होड़ से प्रसार बढ़ाने की चेष्टा की जा रही है।
समाचार पत्र खास कर हिंदीं के दिनोदिन ज्यादा दर्शनीय होते जा रहे हैं मगर इसी चक्कर में उनकी पठनीयता में भयावह कमी आयी है। अब अखबार मालिक नहीं रह गये, उनका स्थान कारपोरेट हाउस ने ले लिया है जहाँ मैनेजमेंट की सर्वोच्चता में संपादक, पत्रकार और उसकी लेखनी को तय करने वालों को पत्रकारिता से कोई सरोकार नहीं होता। उन्हें मतलब है कि किन हथकंडों से प्रसार बढ़े और यही उनकी पहली और अंतिम चिंता है। वे दिन लद गए जब अखबार स्वामी का समाचार संपादक के नाम पत्र में छपा करता था। क्योंकि संपादक की नजर में वह स्तरीय नहीं होता था। आज संपादक नहीं मालिक तय करता है कि क्या जाना है और क्या नहीं।।पेड न्यूज अब तरह तरह का चोला ओढ़ कर सामने आ रही है। क्या पत्रकारिता के लिए आप इसे सुखद मानेंगे ?
प्रिंट में आप देखिए कि कितने स्वनाम धन्य संपादक या भिन्न क्षेत्रों की विधाओं के पत्रकार ऐसे बचे रह गये हैं, जिनको पढ़ने के लिए पाठक सुबह बेकरार हो? कुछ चुनिंदा स्तंभकारों को छोड़ दिया जाये तो बस कुछ सूचनात्मक खबरों के अलावा पठनीय सामग्री के लिए आप तरस कर रह जाएंगे।
व्यावसायिकता ने वास्तव में पत्रकारिता का बेड़ा गर्क कर दिया है। संपादक की कुर्सी पर बैठा शख्स सिर्फ मैनेजमेंट के आगे पीछे रहने को ही अपनी असली ड्यूटी समझता है। युवा पत्रकार की कापी चेक करने की किसी को फुरसत नहीं। सूचना क्रांति के दौर में कापी-कट-पेस्ट का बोलबाला है। संपादन के अभाव में अशुद्ध भाषा पढ़ने के लिए आप अभिशप्त हैं। वर्तनी, लिंग, व्याकरण आदि बीते जमाने की वस्तु हो चुकी हैं। भाषा का क्षरण आज की हिंदी पत्रकारिता की सबसे बड़ी त्रासदी है।
ब्राडकास्ट मीडियम जिसका सही मायने में प्रादुर्भाव देश में वैश्वीकरण होने के बाद नब्बे के दशक में हुआ, उसने तो पत्रकारिता की रेड मार कर रख दी। प्रिंट में तो चलिए समाचारों को लेकर कहीं-कहीं कुछ गंभीरता भी नजर आती है। मगर इलेक्ट्रानिक मीडिया में तो सिर्फ और सिर्फ टीआरपी ही पहली और अंतिम मंजिल है। इसी आधार पर कमर्शियल के रेट तय होते हैं और चैनल हेड के सामने एक लक्ष्मण रेखा खिंची हुई है और सब कुछ बस उसी के भीतर उन्हें करना है। स्टिंग और तरह तरह के हथकंडों जिसमें डिस्ट्रीब्यूशन यानी चैनल के हाकरों (केबल आपरेटर और डीटीएच) को मोटी रकम पहुँचाना मुख्य है, आदि के इस्तेमाल से रेटिंग बढ़ाना ही उसका अभीष्ट बन कर रह गया है। विधा विशेष में विशेषज्ञता नहीं चाहिए, पत्रकार को हरफनमौला होना आज के दौर में अपराहार्य है। नतीजा यह कि ‘न माया मिली न राम’ वाली मसल लागू होती है। उसका अंजाम पाठक और दर्शक दोनों के सामने है।
मुख्य धारा के मीडिया के चारीत्रिक पतन और सूचना क्रांति नें पत्रकारिता या यूँ कहिए समाचार लेखन में नया द्वार खोला है बीते कुछ वर्षों में। उसका नाम है सोशल मीडिया, जिसे उसके शुरुआती दौर में हल्के मे लिया गया। परंतु मन की बात जब लगातार भिन्न सोशल साइट्स, पोर्टल और वेबसाइट के माध्यम से सामने आने लगी, तब उसकी स्वीकार्यता में तेजी के साथ हो रहे विस्तार ने अब घरानों के कान खड़े कर दिये हैं। सिंहासन डोलता देख कर बदलाव की प्रक्रिया आरंभ करना उनकी विवशता बन गया। सच तो यह कि इस सोशल मीडिया के आगमन ने हिंदी को वह स्थान देना शुरू कर दिया है जो सरकारें और अखबार नहीं दे सके। भाषा में गिरावट आयी पर आम जन जो समाचार चाहता है और जो उसे अखबारों और टीवी चैनलों में नहीं मिलता, वह उसे सोशल मीडिया में जब मिलने लगा तो वह उसकी ओर मुड़ गया। ठीक है कि समाचारों की विश्वसनीयता का संकट अभी है पर उसमें दिनों दिन सुधार भी हो रहा है। जिन समाचारों को गोल कर दिया जाता था, उन्हें सोशल मीडिया के चलते अब स्थान देने की सोच मीडिया का शीर्ष नेतृ वर्ग रखने लग गया है। भविष्य के मद्देनजर अखबारों में डिजिटलाइजेशन की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। प्रिंट हो या ब्राडकास्ट सभी वेबसाइट और पोर्टल पर पूरा जोर देने में लग गये हैं। समाचार भी अब लगातार अपडेट किए जा रहे हैं। पाठक को सुबह का इंतजार नहीं करना। इंटरनेट के माध्यम से वह अपने मोबाइल पर जब चाहे ताजा और नवीन समाचार देख लेता है। मुझे लगता है कि वह दिन ज्यादा दूर नहीं जब अखबार और चैनल आपके छोटे से मोबाइल में ही सिमट कर रह जाएंगे और जनता पत्रकारिता को नया आयाम देगी और उसका नाम होगा सोशल मीडिया। अंत में एक बात और बताना चाहता हूँ, मैं रहूँ न रहूँ पर दस बरस बाद प्रिंट मीडिया यानी अखबार, मैगजीन आदि इतिहास बन चुके होंगे और पाठ्यक्रम में पढ़ाया जाएगा कि कागज के अखबार होते थे, स्याही लगती थी आदि-आदि। यदि ऐसा हुआ तो इस नाचीज को याद जरूर कीजिएगा।
(देश मंथन, 01 जून 2016)