सरकार के वादे और टूटती उम्मीदें

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

भोपाल में मेरे इतिहास की प्रोफेसर मिसेज मित्तल की आँखें ये पढ़ाते हुए चौड़ी हो जाती थीं कि फासिज्म ‘प्रचार’ पर बहुत जोर देता है।

वो बताती थीं कि हिटलर इस खेल को बखूबी जानता था और वो कहता था कि प्रचार इस बौद्धिक स्तर का होना चाहिए कि जिनके लिए ये हो रहा है उसे मूर्ख से मूर्ख व्यक्ति भी समझ जाए। जिन दिनों मिसेज मित्तल ये पढ़ा रही थीं, टीवी घर-घर पहुँच चुका था। लेकिन जिस दौर को वो पढ़ा रही थीं, उस दौर में टीवी की कल्पना भी नहीं की गयी थी। मिसेज मित्तल की कोशिश तो मुझे यूरोप के इतिहास को समझाने की थी, लेकिन एमए की उस पढ़ाई के दौरान मेरी आँखों में इमरजंसी, जय प्रकाश नारायण का आन्दोलन, स्कूल बन्द, धरना, जुलूस, सुनयना दीदी की पिटाई, माँ का अखबार पढ़ कर सुनाना घूमा करते थे।

हमारे घर में गैस का चूल्हा आ चुका था, प्रेशर कूकर भी आ चुका था। पड़ोस में रहने वाली पुतुल की माँ से किसी ने कह दिया था कि गैस के चूल्हे पर रोटियाँ नहीं सेंकनी चाहिए, क्योंकि इस पर पकी रोटियाँ खाने से पेट में गैस भर जाती है। कूकर में भी खाना बनने के दौरान सीटी बजती थीं और उससे रेल गाड़ी के इंजन की तरह भाप बाहर निकलता था। किसी ने ये भी प्रचारित कर ही दिया था कि खाने की सारी पौष्टिकता इस भाप में बाहर निकल जाती है। जाहिर है, माँ के लिए गैस के चूल्हे का आना और प्रेशर कूकर में दाल पकाना बहुत राहत की बात थी। एक तो उन्हें दमा की बीमारी थी और कोयले वाले चूल्हे के धुँए से उन्हें परेशानी होती थी, दूसरे जेपी आन्दोलन और इमरजंसी जैसे उस दौर में उनकी बहुत दिलचस्पी शाम को रेडियो पर आने वाले समाचारों में थी।

तो, पुतुल की माँ के ऐसा कहने के बावजूद कि गैस पर रोटी नहीं पकानी चाहिए, और कूकर में खाना नहीं बनाना चाहिए माँ इन दोनों सन्साधनों का इस्तेमाल करती थी। खाना शाम को जल्दी बन जाता। रेडियो पर शाम सात बजे प्रादेशिक और नौ बजे राष्ट्रीय समाचार आते। पहले हिन्दी में फिर अंग्रेजी में। 

मेरी समझ में न तो हिन्दी वाले समाचार आते न अंग्रेजी वाले। हाँ, इतना हो चुका था कि अंग्रेजी वाले समाचार में जब रेडियो के पीछे बैठी किसी लड़की की सुन्दर सी आवाज गूंजती, “दिस इज ऑल इन्डिया वेडियो, द न्यूज वेड बाई…” तो मैं सोच में पड़ जाता कि माँ तो रेडियो कहती है, और ये अंग्रेजन वेडियो बोलती है। मुझे उसकी आवाज बहुत प्यारी लगती थी। पिताजी उस अंग्रेजी समाचार को बहुत ध्यान से सुनते। बाद में मुझे समझाते कि अंग्रेजी में ‘आर’ शब्द का इस्तेमाल बहुत अनूठे अन्दाज में होता है, और इस एक ‘आर’ के उच्चारण से समझा जा सकता है कि सामने वाले को कैसी अंग्रेजी आती है।

खैर, वेडियो हो या रेडियो मेरी दिलचस्पी माँ की टिप्पणियों में होती थी।

समाचार सुन कर माँ कहती कि आजकल खबरों में केवल जेपी और विपक्षी दलों के खिलाफ ही खबरें होती हैं। वो विद्याचरण शुक्ला का नाम लेतीं, और कहतीं कि ये महाराज तो हिटलर की उस कहे का पूरी निष्ठा से पालन कर रहे हैं कि प्रचार ऐसा होना चाहिए कि मूर्ख से मूर्ख भी उसे समझ जाए। माँ के पास राजनीतिक टिप्पणियों का भन्डार था। बहुत सी बातें वो किसी को संबोधित करके नहीं बोलती थी, वो बस जोर से बुदबुदा देती, जिसके कान में पड़ जाए, उसके कान में पड़ जाए। ऐसी एक शाम माँ ने कहा था कि आजकल खबरें ऐसी पढ़ी जाती हैं, जैसे सारा कुछ मूर्खों के लिए भी नहीं, बल्कि मूर्खों के लिए ही हो रहा है। माँ को इस बात की बहुत चिन्ता रहती थी कि सरकार चाहे जो करे, लेकिन जनता को उसका सच और मंसूबा समझ में आना चाहिए।

भोपाल में हमीदिया कॉलेज की प्रोफेसर मिसेज मित्तल, हिटलर के जिस दौर को पढ़ाती थीं, उस दौर में रेडियो का सरकारी इस्तेमाल हो रहा था। हिटलर ने अपनी सत्ता को चमकाने के लिए रेडियो का सबसे शानदार तरीके से इस्तेमाल किया। माँ जब रेडियो पर खबरों को सुनती थी, तब शायद टीवी की कल्पना की जा चुकी होगी, लेकिन हमारे घर तक वो कल्पना नहीं पहुँची थी। लेकिन माँ ने इन्दिरा गाँधी के उस दौर में रेडियो को बुद्धू बक्सा नाम दे दिया था।

बुद्धू बक्से से उसका मतलब था कि अब खबरों में कुछ बचा नहीं, ये बुद्धुओं के लिए रह गया है।

इन्दिरा गाँधी ने अपने किसी बीस सूत्री कार्यक्रम की घोषणा कर दी थी। सरकारी तन्त्र ये बात जनता के मन में घुसाने के लिए पिले पड़े थे कि अच्छे दिन लाने वाला कोई कार्यक्रम है, लेकिन क्या कार्यक्रम है, ये कोई ठीक से नहीं बता पा रहा था। हकीकत ये थी कि जिनके लिए इस कार्यक्रम का ढांचा खड़ा किया गया था, जिन्हें इससे वाकई लाभ होना था, उन तक तो इसका एक सूत्र भी नहीं पहुँच पा रहा था।

प्रचार की पहली और बड़ी शर्त होती है कि उसे बहुत कम मुद्दों तक सीमित रहना चाहिए, और उसे अनंत बार दोहराना भी चाहिए। इन्दिरा गाँधी हिटलर के इस फॉर्मूले को जानती थीं, इसलिए उन दिनों उनके भाषणों में इस बीस सूत्री कार्यक्रम की खूब चर्चा होती थी। उन्होंने रेडियो से अपने भाषण में भी इसकी चर्चा की थी। पर इस प्रचार में सिर्फ इतना ही प्रचारित हो सका कि इन्दिरा गाँधी ने कोई बीस सूत्री कार्यक्रम बनाया है, लेकिन वो असल में है क्या वो किसी को कभी पता नहीं चला।

जिन दिनों मैं भारतीय जनसंचार संस्थान में पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था, मेरी पढ़ाई का एक अध्याय ये भी था कि सही व्यक्ति तक सही बात को पहुँचाना खबर का सबसे बड़ा आधार होता है। पत्रकारिता की पढ़ाई में बीस सूत्री कार्यक्रम को इंदिरा सरकार की बहुत बड़ी विफलता के रूप में बताया जाता था। प्रोफेसर समझाते कि अगर वाकई ये कार्यक्रम लागू हो जाता तो जिनके लिए ये कार्यक्रम था, उन्हें बहुत फायदा होता। लेकिन दुर्भाग्य ये था कि जिनके लिए ये कार्यक्रम था, उन तक वो कभी पहुँच ही नहीं पाया। इन्दिरा गाँधी के सारे सलाहकार उनके चंपू बन गये थे। उनमें से किसी को इस कार्यक्रम के एक भी सूत्र का खुद ही पता नहीं था।

देश में ढेरों गिरफ्तारियाँ हो चुकी थीं। इमरजंसी एक बार फिर अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार की तरह प्रचारित हो चुका था। हालाँकि खबरों में गिरफ्तार व्यक्तियों के नाम और संख्या बताने की जगह छिपाने की परिपाटी चल पड़ी थी। रेडियो और अखबार झूठ बोलने लगे थे। सत्ता पक्ष के मन में बैठ गया था कि गिरफ्तारों के नाम बताने से लोगों में उनके लिए सहानुभूति उपजेगी। और सरकार मूल रूप से हिटलर की सलाह मानते हुए बड़े झूठ को बार-बार बोलने से सच में तब्दील हो जाने के सिद्धान्त को प्रतिपादित होते हुए देख रही थी।

मैं माँ से पूछता था, “आप क्यों कहती हैं कि बड़े झूठ को बार-बार बोलने से वो सच साबित हो जाता है?”

माँ कहती, “आम आदमी छोटा झूठ तो रोज सुनता और बोलता है, लेकिन बड़े झूठ से उसका पाला नहीं पड़ता, इसलिए सरकारें अपने तन्त्र से बड़े झूठ बोलती हैं। ऐसे झूठ बोलती हैं, जिन पर आम आदमी आसानी से यकीन कर लेता है। जैसे सरकार फैला रही है कि उसके बीस सूत्री कार्यक्रम से देश में अच्छे दिन आ जायेंगे।अच्छे दिन का आना हर आदमी के लिए सपना है। लेकिन वो अच्छा दिन कौन सा होगा उसे भी नहीं पता। इसलिए सरकार इस झूठ को रेडियो और अखबार से प्रचारित करा रही है कि इन्दिरा गाँधी का ये बीस सूत्री कार्यक्रम अच्छे दिन लायेगा। तुम देखना, हम बेचारों तक उसका पहला सूत्र भी नहीं पहुँचेगा। असल में ये सूत्र फायदा पहुँचाने के लिए नहीं, जुमला चलाने के लिए होते हैं।”

कल मैंने जेपी और इन्दिरा गाँधी की बात शुरू की थी तो उन्हीं यादों में खोया रहा। लिखने चला था भोपाल की अपनी प्रोफेसर के पढ़ाने के तरीके की कहानी, लेकिन बीच में माँ का कहा भी याद आ गया और फिर सरकारी प्रचार के जरिए बोले जाने वाले झूठ की भी याद आ गई। ये याद आ गया कि माँ ने कितना पहले कहा था कि जनता जब तक लोभी है, सरकार उसे मूर्ख बनाती रहेगी। हिटलर ने भी लोगों के लोभ को भुनाया, इन्दिरा गाँधी ने भी। और आने वाली तमाम सरकारें लोभ दिखा कर मूर्ख बनाती रहेंगी।

इन्दिरा गाँधी का शासन तो मुझे याद है। बीस सूत्री कार्यक्रम भी मुझे याद है। जेपी का आन्दोलन भी याद है। जेपी के आन्दोलन की कोख से निकली सरकार के वादे भी मुझे याद हैं। अन्ना का आन्दोलन भी याद है और इस आन्दोलन की कोख से निकली सरकारों के वादे भी याद हैं। यादों का ये सफर चालीस साल से सिर्फ उम्मीदों पर टिका है।

(देश मंथन, 21 मई 2015)

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