यह कैसा ‘बचकाना न्याय’ है?

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कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :  

लोग अब खुश हैं। अपराध और अपराधियों के खिलाफ देश की सामूहिक चेतना जीत गयी। किशोर न्याय (Juvenile Justice) पर एक अटका हुआ बिल पास हो चुका है। अब कोई किशोर अपराधी उम्र के बहाने कानून के फंदे से नहीं बच पायेगा। किसी अटके हुए बिल ने आज तक देश की ‘सामूहिक चेतना’ को ऐसा नहीं झकझोरा, जैसा इस बिल ने किया। जाने कितने बिल संसद में बरसों बरस लटके रहे, लटके हुए हैं। लोकपाल तो पचास साल तक कई लोकसभाओं में कई रूपों में आता-जाता, अटकता-लटकता रहा। देश की सामूहिक चेतना नहीं जगी। महिला आरक्षण बिल भी बरसों से अटका हुआ है। उस पर भी देश की ‘सामूहिक चेतना’ अब तक नहीं जग सकी है! और शायद कभी जगे भी नहीं!

किशोर न्याय और ‘सामूहिक चेतना!’

यह ‘सामूहिक चेतना’ अक्सर अचानक ही प्रकट हो जाती है। लोकपाल के मसले पर भी वह ऐसे ही अचानक जगी थी। यूपीए सरकार के कई मंत्री भ्रष्टाचार के नये महाकाव्य लिख रहे थे। अचानक अन्ना हजारे खड़े हुए और भीड़ खड़ी हो गयी। शहर-शहर, गली-गली धरने हुए। देश की ‘सामूहिक चेतना’ जग चुकी थी। लेकिन तब संसद ने आनन-फानन में लोकपाल कानून नहीं बनाया। क्यों? बड़ा वाजिब तर्क था। कानून सड़क पर नहीं, संसद में बनता है। सोच-समझ कर बनता है। चर्चा होती है, बहस होती है। महीन-महीन बिन्दुओं की पड़ताल होती है। समय लगता है। पचास साल से आखिर उस पर चर्चा हो ही रही थी। कुछ तय नहीं हो पा रहा था। इस बार क्यों पास हो गया? क्योंकि कोई पार्टी नहीं चाहती थी कि लोकपाल को अटकाने का ठीकरा चुनाव में उसके सिर फूटे। इसलिए लोकपाल बिल पास हो गया, लेकिन लोकपाल का बनना दो साल से अटका हुआ है। अब न भीड़ है, न नारे हैं, न अन्ना का कोई नामलेवा है, न मीडिया में कोई चर्चा है, न सोशल मीडिया में कोई शोर है। भ्रष्टाचार अब वैसी उत्तेजना पैदा नहीं करता!

ऐसी जल्दी क्या थी?

‘निर्भया कांड’ ने विकृति, बर्बरता और पाशविकता की सारी हदें तोड़ दी थीं। उस पर देश का ऐसा आवेश, आक्रोश, क्षोभ होना ही चाहिए था, जो हुआ। उसके सारे अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए, इससे शायद ही कोई असहमत हो। इसलिए इस मामले में एक किशोर की रिहाई के बाद तूफान उठना भी बिलकुल जायज था, लेकिन यह संवाद बलात्कार खिलाफ बड़ा संघर्ष चलाने की दिशा में होना चाहिए था और ‘निर्भया’ उस संघर्ष की प्रतीक होती।

लेकिन जनभावनाओं के उबाल के बाद जिस तरह आनन-फानन में राज्यसभा में किशोर न्याय बिल (Juvenile Justice Bill) पास कराया गया, उसके कई बड़े खतरे हैं। भावनाओं के शोर में गढ़े गये कुछ झूठों और कुछ कपोल-कल्पित अवधारणाओं को स्थापित कर एक ऐसा माहौल बनाया गया कि जो पार्टियाँ पहले इस मुद्दे पर ठहर कर और समय लेकर विवेकपूर्ण चर्चा करने की बात कर रही थीं, वे भी लोकभावना के दबाव में बिल के समर्थन में आ गयीं। इस बिल के पास होने न होने से उस किशोर की स्थिति पर कोई फर्क नहीं पड़ना है, क्योंकि उसका फैसला तो पहले ही चुका, जिसे अब बदला नहीं जा सकता। फिर यह कानून बनाने की इतनी जल्दी क्यों थी?

भावनाओं में बहने के खतरे

क्या संसद को इस तरह भावनाओं में बह जाना चाहिए? और अगर संसद आज इस मुद्दे पर भावनाओं के आगे इस तरह झुक और दब सकती है, तो क्या यह बहुत खतरनाक नहीं है। कल को किसी भावनात्मक मुद्दे पर, किसी ‘आस्था’ के सवाल पर, किसी राजनीतिक-सांस्कृतिक एजेंडे पर जनता को भड़का कर, इकट्ठा कर क्या ऐसा दबाव नहीं बनाया जायेगा कि संसद ‘लोकभावना’ का आदर करते हुए वैसे कानून बना दे। क्या मीडिया और सोशल मीडिया पर बने दबाव के आगे राजनीतिक पार्टियाँ भविष्य में अपनी नीतियाँ और सिद्धाँत किनारे कर आत्मसमर्पण की मुद्रा में नहीं आयेंगी। आखिर वोट किसे प्यारे नहीं होते? भारत जैसे देश में यह खतरे की बहुत बड़ी घंटी है।

अजीब तर्क और सच्चे-झूठे तथ्य

खास कर तब, जबकि इसके लिए अजीब-अजीब तर्क और सच्चे-झूठे तथ्य दिये गये। ठीक वैसे ही जैसे कोई भीड़ अपने ‘हिंसक न्याय’ के पहले देती है। मसलन यह कि अगर कोई सोलह साल में बलात्कार करने लायक हो जाता है, तो वह उस अपराध की सजा भुगतने लायक क्यों नहीं? सवाल यह है कि कानून का मकसद अपराध कम करना होना चाहिए या अपराधी बनाना? तमाम दुनिया के आँकड़े इस बात को साबित करते हैं कि वयस्क कैदियों के मुकाबले सुधारगृहों से निकले युवाओं में अपराधों को दोहराने का प्रतिशत काफी कम रहता है। यानी किशोरों को अगर सुधारगृह के बजाय जेल भेजा जायेगा, तो सुधरने के बजाय उनके अपराधी बनने की सम्भावनाएँ बहुत बढ़ जाती हैं। जाहिर है कि यह कानून नये अपराधी तो बनायेगा, अपराध रोक पायेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता।

नहीं बढ़े किशोर अपराध

एक तर्क यह भी दिया गया कि किशोर अपराधों की संख्या में 47% का इजाफा हुआ है। गजब का अर्द्धसत्य है यह। आबादी बढ़ी तो अपराधों की संख्या भी बढ़ी। तो संख्या के हिसाब से देखेंगे तो यह इजाफा वाकई भयानक लगेगा, लेकिन कुल अपराधों को देखें, तो उनमें पिछले ग्यारह सालों में किशोर अपराधों (Juvenile Crime) का प्रतिशत औसतन 1.2 के आसपास स्थिर रहा है। न घटा, न बढ़ा। इनमें भी करीब 80%  मामले छोटे-मोटे अपराधों के रहे हैं। हत्या और बलात्कार के मामले करीब 20 % के आसपास रहे। इसलिए किशोर अपराधों को लेकर ऐसी चिन्ता की कोई बात नहीं थी, जैसी तस्वीर खींची गयी।

दूसरी बात यह कि आमतौर पर किशोर अपराधी बेहद गरीब तबके से आते हैं। लाख रुपये की सालाना आमदनी से भी कम कमाने वाले परिवारों में से, और उनमें से भी आधे तो पच्चीस हजार सालाना से कम पर गुजर-बरस करनेवाले परिवारों से। क्या इनके अपराधी बन जाने के पीछे यह स्थितियाँ जिम्मेदार नहीं? और क्या इन्हें इस दयनीय स्थिति से उबारना, इनकी हालत सुधारना हमारी जिम्मेदारी नहीं? क्या यह सोचनेवाली बातें नहीं थीं? यह कैसा ‘बचकाना न्याय’ है?

(देश मंथन, 29 दिसंबर 2015)

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