पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :
वानखड़े ‘भूतो न भविष्यति’ बल्लेबाजी का बना गवाह। सिक्के की उछाल में मिली मात और भोथरी गेंदबाजी ने सिरीज का फाइनल का किस तरह से नशा उखाड़ दिया, यह बताने की जरूरत नहीं और यह भी नहीं कि हर किसी का समय होता है मिस्टर धोनी। बाजुओं में जो ताकत आपके थी वह जाती रही और कितने गरीब नजर आये आप बल्ले से, यह भी दर्शकों ने देखा। हार, हार और हार यही बदा है देश के भाग्य में शायद। जो सिलसिला आस्ट्रेलिया से शुरू हुआ, वह आज तक थमा नहीं। बांग्लादेश तक ने पानी पिला दिया था तो यह महाबली द. अफ्रीका है।
घर के आँगन में बहुत हुआ कि आपने दो मुकाबले अपने नाम जरूर किए पर अंत किस शान-ए-शौकत से डीविलयर्स के रणबांकुरों ने भारतीय धरती पर पहली बार ( एक दिनी सिरीज में 3-2 से जीत) लिया वह वाकई देखते बना। खचाखच भरे वानखड़े स्टेडियम पर अपराह्न में जिस ज्वालामुखी से निकल रहे पिघलते लावे की तरह अफ्रिकियों नें बल्लेबाजी की वह सचमुच ‘भूतो न भविष्यति’ थी। मैंने भारतीय गेंदबाजी के जिस तरह यहाँ चिथड़े उड़ते देखा, वह वाकई कल्पनातीत था। गेंदबाजों का विश्लेषण आप यदि देखेंगे कि जिसमें भुवनेश्वर जैसे गेंदबाज ने रन लुटाते हुए सैकड़ा पार कर लिया, तो आप अपना सिर धुन लेंगे, शर्म से गड़ जाएँगे। कंगाली मे आटा गीला यह कि अमित मिश्रा जैसों ने शुरू में जो मौके बनाये भी थे डिकाक और डुप्लेसी के खिलाफ वो मोहित, रैना और रहाणे की फिसलन भरी हथेलियों ने गँवा दिये। भज्जी एकलौते थे जिन्होंने कुछ सम्मान प्राप्त किया पर अंतिम ओवर में गेंद थमा कर धोनी ने उनका भी कबाड़ा कर दिया।
यह भी याद नहीं पड़ता कि किसी मैच में भारत के खिलाफ एक साथ तीन-तीन शतक लगे हों और जब ऐसा हुआ तब आप सहज ही समझ सकते हैं कि मेजबान आक्रमण किस कदर राह से भटका रहा होगा। सिरीज में अपना तीसरा शतक 57 गेंदों में पूरा करने वाले कप्तान डिवीलियर्स हों या 35 डिग्री सेल्शियस तापमान और बला की उमस के चलते शतक पूरा करने की ललक में विकेट के बीच दौड़ लगाने के दौरान क्रैम्प के शिकार होने के बावजूद ,रिटायर्ड हर्ट होने के पहले तक एक टाँग और एक हाथ से भी छक्के चौके लगाने में मशगूल डुप्लेसी रहे या वर्तमान श्रृंखला में दूसरा शतक लगाने वाले क्विंटन डिकाक, इन तीनों ने बल्लेबाजी के अनुकूल विकेट और विद्युतीय आउटफील्ड का अधिकतम दोहन करते हुए जब पूर्ण प्रचंडता का दर्शन कराया तब स्वाभाविक था कि 438 का ऐसा गगनचुंबी स्कोर बनना ही था और अतीत मे शायद ही माही की टीम को अपने घर में दो सौ से भी ज्यादा के अंतर से हार का सामना करना पड़ा हो। कम से कम मुझे तो याद नहीं।
भारत पहले भी साढ़े तीन सौ से ज्यादा का टारगेट चेज कर चुका है। पर यह टारगेट लगभग नामुमकिन सा इसलिए था कि वर्तमान में भारत के पास सहवाग, सचिन, सौरभ और गंभीर जैसी विस्फोटक बल्लेबाजी पंक्ति नहीं जो रन रेट को बौना बनाते हुए दस ओवर में सौ पार कर लेती। ऐसी शुरूआत ही चमत्कारिक सफलता दिला सकती थी।
वही हुआ भी जो आशंकित था। धोनी के ‘विशेष प्यारे’ बल्लेबाज आजिंक्य रहाणे ( 87 रन 58 गेंद ) ही 150 के स्ट्राइक रेट से जवाब देते हुए कसौटी पर खरे उतर सके और धवन का समय की माँग के मद्देनजर धीमा अर्धशतक जरूर देखने को मिला। लेकिन धोनी के माथा दर्द 29 गेंदो में निकले 27 रनों ने बहुत कुछ संदेश चयनकर्ताओं को भेज दिया है।
अंत में एक बात चलते चलाते यह जरूर कहना चाहूँगा कि 438 के स्कोर को पीछे छोड़ना कहीं से भी नामुमकिन नहीं था। इतिहास की सबसे सफल चेज के समय कंगारुओं के खिलाफ मेजबान द. अफ्रीका ने जोहान्सबर्ग में ठीक यही स्कोर ही तो बनाया था लेकिन तब उनके पास कद्दावर हर्शेल गिब्स और उसकी नायाब 175 की पारी थी। काश टीम इंडिया के पास भी कोई गिब्स सरीखा खूंटा गाड़ बल्लेबाज होता !!
समय आ गया है कि बीसीसीआई जवाबदेही भी उठाये। चयनसमिति सवालों के घेरे में है कि जो फार्म में नहीं है उनको लगातार ढोने की क्या तुक है। युवा प्रतिभाओं को क्या परखने का यह सही समय नहीं है? मत भूलिये कि 214 रनों की यहाँ मिली भारी भरकम जीत के साथ एक दिनी सिरीज अपने नाम करने वाले द. अफ्रीकियों का पाँच नवंबर से प्रारंभ हो रही टेस्ट श्रृखला के लिए किस कदर हिमालय सरीखा आत्मविश्वास होगा, यह सहज ही समझा जा सकता है।
(देश मंथन, 26 अक्तूबर 2015)