रवीश कुमार, वरिष्ठ टेलीविजन एंकर :
मैं चाहता हूँ कि आप जहाँ रहते हैं, देखिये यहाँ कितनी गंदगी है, ट्रैफिक बेहाल है, सड़क के किनारे रेहड़ी पटरी वालों ने कब्जा कर लिया है, बिजली नहीं आती है, उसकी हालत टीवी पर क्यों नहीं दिखाते हैं।
फोन के दूसरी तरफ से जो आवाज आ रही थी उन्होंने अपना परिचय बताने में काफी मेहनत की कि वे रिटायर होने से पहले किन पदों पर थे, किन मुल्कों में रहे हैं।
तुर्रा ये कि नंबर माँगने के लिए मेरे घर अपनी कामवाली तक को भेज दिया। ऐसे फोन आते रहते हैं। कोई मेरे मोहल्ले के खराब ट्रांसफार्मर का फोटो खींच कर भेज देता है तो कोई कुछ। फेसबुक से लेकर व्हाट्स अप पर रोजाना निजी जिंदगी से जुड़े मसलों के भी मैसेज आते रहते हैं कि आप इस मसले को प्राइम टाइम में उठा दीजिए तभी हम समझेंगे कि आप निष्पक्ष और बिके हुए नहीं हैं। आप कौन हैं और आपकी प्रामाणिकता क्या है जब मैंने नहीं माँगा या पूछा तो मैं आपको क्यों दूँ और वो भी बात बात पर।
शिकायत करने या उम्मीद करने या हमारे द्वारा न ध्यान देने के कई पक्ष विपक्ष हो सकते हैं। मगर इस तरह के फोन काल अब आम होते जा रहे हैं। सवाल यह है कि जब लोग एक पत्रकार का नंबर पता करने में इतनी मेहनत कर लेते हैं तो अपनी समस्या को लेकर विभिन्न विभागों या प्रतिनिधियों तक जाने से क्यों कतराते हैं। कई लोगों को समझाता हूँ कि आप घर बैठे अपने प्रतिनिधि को ई मेल कर सकते हैं। थाने से लेकर तमाम विभागों को सूचित कर सकते हैं। नागरिकों का एक समूह बनाकर स्थानीय स्तर पर दबाव बढ़ा सकते हैं। प्रतिनिधि के पास जा सकते हैं। सबका जवाब आता है कि आप यानी मीडिया किस लिए है।
मेरा सवाल है कि आप लोकतंत्र में किस लिए हैं। सिर्फ वोट देने के लिए। वोट देते समय तक आप बिना किसी ढाँचा या स्पष्टता के उम्मीद पाल लेते हैं और मामूली काम के वक्त प्रतिनिधि के पास जाने से ऐसे कतराते हैं जैसे वो कोई गुंडा मवाली हो। कई बार लगता है कि हम अपने प्रतिनिधि का सामाजिक बहिष्कार करने लगते हैं जो ठीक नहीं है। किसी सांसद, विधायक या पार्षद के पास वैसे लोग या लोगों के समूह भी जाने चाहिए जो उनकी पार्टी के नहीं हैं। जो एक आम मतदाता या नागरिक हैं। इससे प्रतिनिधि की जवाबदेही का लोकतांत्रिक विस्तार होता है।
क्या हमारी नागरिकता सिर्फ मीडिया में उदगार व्यक्त करके ही पूरी हो जाती है। हम सबको इस बारे में सोचना चाहिए। नागरिकता का ठेका किसी मीडिया या पत्रकार को सौंप कर सोया नहीं जा सकता। नागरिकता के विकास के लिए जरूरी है कि हम निजी जीवन में निरंतर अभ्यास करते रहें। ऐसी कई खबरें होती हैं जो स्थानीय अखबारों से लेकर राष्ट्रीय अखबारों चैनलों में छपती दिखती ही रहती हैं मगर उनसे कोई संस्थागत बदलाव तो नहीं होता है। जब तक जनभागीदारी के लगातार प्रयास नहीं होंगे ऐसी खबरें छप कर भी बेअसर ही रहती हैं।
सोशल मीडिया ने नागरिकता को और भी आलसी बनाया है। अप्रत्यक्ष भागीदारी का ही मंच है। चंद मामलों में इसके असर की मिसालें दी जा सकती हैं पर उतनी मिसालें तो प्रिंट या टीवी के बारे में भी दी जा सकती हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारे अहं को ठेस पहुँचती है कि किसी सांसद को फोन करने में, यह झेलने में कि दो बार फोन किया जवाब नहीं आया। नहीं आयेगा दो बार में। एक सांसद के पास क्या संसाधन होते हैं। थोड़ा सब्र तो करना होगा। टीवी में एक दिन दिख भी जाये और दस लोग बात भी कर लें तो बात तेजी से नहीं बदलती।
कई लोग मेरी इस बात का मतलब यह भी समझ सकते हैं कि इसका मतलब यह हुआ कि मीडिआ का कोई असर ही नहीं है। मैं ऐसा नहीं कह रहा हूँ। मेरा सब्र कई बार टूट जाता है। अनाप शनाप चीजों के लिए फोन आने लगता है। एक जनाब ने सुबह सुबह फोन कर दिया। बताया कि बड़ी मेहनत से नंबर लिया है। सिविल की तैयारी के सिलसिले में एक सवाल है। पूछिये। सरकार ने जो चीनी मिलों के बारे में फैसला लिया है उसके बारे में आपकी क्या राय है। हद है।
खैर इन सब चीज़ों को नजरअंदाज़ कर दिया जाना चाहिए लेकिन हमारी नागरिकता इनती मीडिया आश्रित क्यों होती जा रही है। कई लोग हैं जिन्हें मीडिया का सहारा भी नहीं मिलता मगर वो चिट्ठी पत्री करते हुए, धक्के खाते हुए संघर्ष करते रहते हैं और व्यवस्था तक को बदल देते हैं। मगर यह जो मिडिल क्लास है जो कुछ बन गया है और अपने इस बने हुए के आधार पर फोन कर अधिकार जताने लगता है उसे यह बात कब समझ आयेगी कि सारा काम नरेंद्र मोदी नहीं कर सकते न मीडिया।
जनप्रतिनिधियों के संपर्क में आने को लेकर इतनी झिझक क्यों हैं। हम क्यों नहीं उनके पास जाते हैं। आने जाने से उनके रवैये में भी बदलाव आयेगा। कम से कम जब वो वोट माँगने आयेंगे तो मोहल्ले में घुसते ही ध्यान तो आयेगा कि यहाँ के लोग आये थे काम के लिए लेकिन मैंने नहीं किया। यह मान कर ही क्यों चला जाये कि हमारा प्रतिनिधि कुछ नहीं करता। कई सांसद लोगों के काम करते हैं। कुछ काम इसलिए भी नहीं होते कि उनके बस की बात नहीं होती या उनके प्रयास के बाद भी नहीं होता। सब सहारा ढूँढ रहे हैं।
कोई किसी का सहारा नहीं बनना चाहता। मीडिया समाज एक ऐसी नागरिकता पैदा कर चुका है जो टीवी बंद करते हुए ट्वीटर पर लिखने लगता है। लिखते लिखते वो यह समझने लगता है कि अपनी लोकतांत्रिक जिम्मेदारी पूरी कर रहा है। अच्छा है कि हम यह खुशफहमी पाले रहें और कामवाली को भेजकर नंबर मंगाते रहे कि कोई टीवी वाला मिल जाये, तो इसे उठा दे। पढ़े लिखे हैं भाईं, अफसर रहे हैं, खुद सांसद के पास जायेंगे तो शान नहीं कम हो जायेगी।
(देश मंथन, 26 जून 2014)