मीडियाकर्मियों का वेतन देखेंगे तो शर्म आ जाएगी सांसद महोदय

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पद्मपति शर्मा, वरिष्ठ खेल पत्रकार :

गरीब सांसदों को वेतन में बढ़ोतरी चाहिए। लाखों रुपये जो बतौर वेतन भत्ते मिलते हैं, वे कम हैं। राज्य सभा में सपा सांसद नरेश अग्रवाल ने बुधवार को कहा कि मीडिया ट्रायल की वजह से संसद डरती है। उन्होंने हवाला यह दिया कि संपादकों के वेतन का चौथाई भी मिल जाये, वही बहुत है।

सही कहा नरेशजी ने। टीवी चैनल के गिने चुने पाँच-सात संपादकों का पैकेज जरूर करोड़ों में है। परंतु जिस मीडिया से वह डरते हैं वहाँ के पत्रकारों का वेतन पाँच-सात हजार मासिक तक का है। पत्रकार इस कदर जीवन यापन कर रहा है कि विपन्नता उसे गलत कामों की ओर मोड़ देती है, सांसदों को यह पता नहीं है क्या कि प्रिंट मीडिया के पत्रकारों की स्थिति कितनी शोचनीय है ? मैं अपनी बात बताता हूँ फ्रीलांसिंग करता हूँ टीवी और प्रिंट दोनों में। साथ ही दोनों बेटे साफ्टवेयर इंजीनियर हैं, इसलिए अर्थाभाव नहीं मगर मेरी पेंशन जानेंगे तो हंसी आएगी। जी हाँ, देश के चार प्रमुख हिंदी समाचार पत्रों का खेल प्रभारी रह चुका आपका यह नाचीज मोदीजी की कृपा से एक हजार पाता है। पहले तो वह 760 रुपए मात्र थी। 

संसद और सरकार बस उनके लिए वेतन आयोग भर बना देती रही हैं याद नहीं आता कि सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का कभी संपूर्ण अनुपालन हुआ हो। होता भी कैसे सरकारों और मीडिया घरानों के बीच दुरभि संधि जो है। सरकार कागज के कोटे से लगायत औने पौने में भूखंड देने और विज्ञापनों के अलावा तमाम सुविधाएँ प्रदान कर उन्हें उपकृत करती रही है। एवज में मीडिया एक सीमा से आगे नहीं बढ़ती। यानी एक अघोषित लक्ष्मण रेखा दोनों ओर से खिंची हुई है। यह सिलसिला आजादी बाद से ही बदस्तूर चल रहा है।

मैं पूछता हूँ सांसदों से ही कि पिछले साठ सालों के दौरान पंचवर्षीय योजनाओं की घोषणाएँ मीडिया में सुर्खियाँ बनती रही हैं। लंबे चौड़े इश्तिहारों की रेवड़ी बाँटी जाती रही शायद इसीलिए न कि इन योजनाओं के कार्यान्वयन के मामले में मीडिया आँखें बंद रखे। चौकीदार को सुला देंगे तो चोरी और भ्रष्टाचार की गंगा बहनी ही थी। पूर्व प्रधान मंत्री स्व. राजीव गाँधी ने जो कहा कि विकास का 85 पैसा बिचौलियों की जेब में गया, वह शायद न जाता यदि सरकार और मीडिया दोनों की जवाबदेही भी फिक्स रहती। देश में लूट के लिए हम सिर्फ नेता और नौकरशाही को ही दोषी नहीं कह सकते, मीडिया भी उतनी ही जिम्मेदार है। इस गठजोड़ को तोड़ेगा कौन, फिलहाल यह एक यक्ष प्रश्न है ?

जहाँ तक सांसदों की गरीबी और वेतन वृद्धि का सवाल है तो पहले यह तय हो कि वे सेवक हैं या कोई कारपोरेट हाउस के अधिकारी। जिनको हर सुविधा चाहिए ही, उन पर आयकर भी न लगे। तरह तरह के भत्तों के अलावा कैंटीन में लजीज भोजन बाहर सड़क पर रेहड़ी और खोमचा लगाने वाले से भी सस्ता हो। शर्म करों जनता से चुन कर आए सांसदों। बहुत पा रहे हो। समय आ गया है कि पहले मीडिया घरानों को कसो और यह देखो कि मीडिया की आड़ में वे कितने बहुधंधी हो गये हैं, और हुए तो कैसे ? किन स्रोतों से वे आगे बढ़े ? उनके पब्लिशिंग हाउस में पत्रकारों और गैर पत्रकारों की कैसी स्थिति है, क्या श्रम कानूनों को वहाँ पूर्णता के साथ लागू किया गया है? मीडिया को सही मायने में स्वतंत्र कैसे बनाया जाए, देश की कार्यपालिका इस पर गंभीरता से सोचे ही नहीं उसको अमल में भी लाए। 

जहाँ तक सांसदों की खुद की माली हैसियत का सवाल है तो नामांकन में अधिकांश ने जो संपत्तियाँ घोषित की हैं, वे उन्हें गरीब कहीं से नहीं बतातीं। अरे, आप आम आदमी बनिए, अंग्रेजों के समय से चली आ रही वीआईपी परिपाटी को तोड़िए। आडंबरहीन जीवन शैली सादगी की ओर ले जाती है। वर्तमान सरकार में है न रक्षा मंत्री मनोहर पार्रिकर, उनको आदर्श बनाइए। तभी आप सच्चे अर्थों में सेवक माने जाएंगे। हो सके तो सांसदों का प्रतिनिधिमंडल त्रिपुरा भेजिए जो वहाँ के मुख्यमंत्री माणिक सरकार के रहन-सहन का अध्ययन करे और देखे कि पत्नी के साथ वह कैसे 482 वर्ग फुट के छोटे से घर में सारे घरेलू काम अपनी सचिव पद से रिटायर पत्नी के साथ मिल कर खुद करते हैं। जिस देश में प्रशासनिक अधिकारियों के यहाँ सेवकों और सहायकों की लंबी चौड़ी फौज तैनात हो, उसी के एक राज्य के मुख्यमंत्री आवास में कोई एक नौकर तक नहीं है। क्या यह भी शोध का विषय नहीं कि माणिक सरकार सिर्फ पाँच हजार रुपये वेतन लेते हैं।? नरेश अग्रवालजी सुन रहे हैं न…!!

(देश मंथन, 01 मई 2016)

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