संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
कई कहानियाँ मुझ तक चल कर भी आती हैं। आज भी एक कहानी मेरे पास चल कर आयी है। मुझे कहानी इतनी पसंद आयी कि मैं पिता-पुत्र की जो कहानी लिखने बैठा था, उसे फिलहाल रोक कर शानदार शेरवानी और मछली के जाल वाली कहानी सुनाने को तड़प उठा हूँ।
क्या करूँ, कभी-कभी कुछ कहानियाँ अपना असर बहुत दूर तक छोड़ती हैं। मैं तो मन ही मन सोच रहा हूँ कि आखिर जिस किसी ने ये कहानी लिखी होगी, वो कितने दर्द से गुजरा होगा। बिना दर्द से गुजरे ऐसी कहानियों को रचा नहीं जा सकता। ऐसी कहानियाँ सुन कर बेशक हँसी आती है, पर समाज को भरपूर आइना दिखाने वाली ये कहानियाँ बहुत भुगत कर ही रची जा सकती हैं। ऐसी कहानियाँ स्याही से नहीं, आँसुओं से लिखी जाती हैं।
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संजय सिन्हा, प्लीज इतनी बातें न बनाओ। सीधे-सीधे मुद्दे पर आओ। तुम्हारे परिजन समझदार हैं और वो तुम्हारी कहानी का मर्म भी समझ जाएँगे। वो समझ जाएँगे कि तुम मुल्ला नसीरुद्दीन की आड़ मे किसकी कहानी सुनाने जा रहे हो।
बस शुरू हो जाओ।
ओके। तो सुनिए वो कहानी, जो कानपुर के सुनील मिश्र भाई ने मुझे फोन कर खीस तौर सुनायी। कहानी सुना कर पहले तो एकदम चुप रहे, फिर जैसे ही मैं हंसा, वो ठठा कर हंस पड़े।
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एक छोटा सा राज्य था। वहाँ का राजा बहुत अच्छा था। राज्य में वजीर की दरकार नहीं थी, पर जनता ने माँग की कि राज्य में एक वजीर होना चाहिए। बिना वजीर के राज्य कैसा? राजा कैसा?
राजा के लोग वजीर की तलाश में लग गये। गाँव-गाँव शहर-शहर घूम कर उनके गुप्तचर लोगों की टोह लेने लगे कि कहीं कोई वजीर बनने की योग्यता वाला नजर आ जाए।
मुल्ला नसीरुद्दीन कुछ करते नहीं थे। पहले एक दो जगह काम मिला था, पर उनसे वो काम हो न सका। जैसे ही उन्हें ये पता चला कि इस राज्य में वजीर की तलाश हो रही है, तो उन्होंने फौरन अपने लिए एक अच्छी-सी शेरवानी सिलवायी और उस शेरवानी को पहन कर उन्होंने अपने सिर पर मछली पकड़ने वाला जाल लटकाया और निकल पड़े सड़क पर।
राजा के गुप्तचरों की नजर इस अजीब से शख्स पर पड़ी। इतनी महँगी शेरवानी पहने, सिर पर मछली पकड़ने वाला जाल लिए ये कौन चला जा रहा है?
गुप्तचरों ने मुल्ला नसीरुद्दीन को अपने पास बुलाया और पूछा कि भाई, तुम कौन हो? कपड़े-लत्ते से तो तुम अच्छे घर के लगते हो, फिर तुमने सिर पर ये मछली पकड़ने वाला जाल क्यों लटका रखा है?
मुल्ला ने गुप्तचरों से बहुत भोलेपन से कहा, “भाइयों, हूँ तो मैं अच्छे घर का। लेकिन पहले मैं मछली पकड़ने का काम ही करता था। पर अब मैं जब बड़ा आदमी बन गया हूँ, तो भी मैंने अपनी औकात नहीं भूली है। मैंने इतनी अच्छी शेरवानी के ऊपर मछली पकड़ने वाला जाल इसीलिए लपेटा है, ताकि मेरी असली औकात मुझे हमेशा याद रहे।
गुप्तचरों को ये आदमी पसंद आ गय।
उन्होंने राजा को इस बात की खबर दी कि एक ऐसा आदमी है, जो बेहद ईमानदार है, सच बोलता है। उसने शेरवानी के साथ-साथ मछली पकड़ने वाला जाल इसलिए सिर पर लपेट रखा है, ताकि उसे अपनी औकात हमेशा याद रहे।
राजा खुश हो गया। समझ गया कि उसे असली हीरा मिल गया है।
उसने तुरंत उसे बुलवाया और वजीर नियुक्त कर लिया।
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मुल्ला जी वजीर बन गये। वजीर बनने के बाद जब वो राजा की सभा में पहुँचे तो लोगों ने देखा कि मुल्ला जी ने सिर पर जाल नहीं लपेटा है।
लोगों ने उनसे पूछा कि अरे भाई, आपने जाल क्यों उतार दिया?
मुल्ला जी ने मुस्कुराते हुए कहा, “भाई, जाल में तो मछली फँस गयी है।”
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कहानी सुनाने के बाद मिश्रा जी कुथ पलखामोश रहे। जैसे ही मेरी हंसी की आवाज उनके कानों तक पहुँची, वो ठठा पड़े।
ऐसा ही होता है, जब कोई सिर पर जाल लपेट कर सड़क पर जाता हुआ दिखता है, और हम उसे अपना वजीर चुन लेते हैं। वजीर बनते ही वो जाल फेंक देता है। फेंक ही देना चाहिए। मछली उसमें फँस जो गयी है।
(देश मंथन, 05 जनवरी 2016)




संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :












