क्यों बढ़ती है मुस्लिम आबादी?

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क़मर वहीद नक़वी : 

मुसलमानों की आबादी बाकी देश के मुकाबले तेजी से क्यों बढ़ रही है? क्या मुसलमान जानबूझ कर तेजी से अपनी आबादी बढ़ाने में जुटे हैं? क्या मुसलमान चार-चार शादियाँ कर अनगिनत बच्चे पैदा कर रहे हैं? क्या मुसलमान परिवार नियोजन को इसलाम-विरोधी मानते हैं? क्या हैं मिथ और क्या है सच्चाई? 

तो साल भर से रुकी हुई वह रिपोर्ट अब जारी होने वाली है! हालाँकि रिपोर्ट ‘लीक’ हो कर तब ही कई जगह छप-छपा चुकी थी। अब एक साल बाद फिर ‘लीक’ हो कर छपी है। ख़बर है कि यह सरकारी तौर पर जल्दी ही जारी होनेवाली है! रिपोर्ट 2011 की जनगणना की है। देश की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा बढ़ गया है। 2001 में कुल आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत थे, जो 2011 में बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गये!

असम, पश्चिम बंगाल, जम्मू-कश्मीर, केरल, उत्तराखंड, हरियाणा और यहाँ तक कि दिल्ली की आबादी में भी मुसलमानों का हिस्सा पिछले दस सालों में काफी बढ़ा है! असम में 2001 में करीब 31 प्रतिशत मुसलमान थे, जो 2011 में बढ़ कर 34 प्रतिशत के पार हो गये। पश्चिम बंगाल में 25.2 प्रतिशत से बढ़ कर 27, केरल में 24.7 प्रतिशत से बढ़ कर 26.6, उत्तराखंड में 11.9 प्रतिशत से बढ़ कर 13.9, जम्मू-कश्मीर में 67 प्रतिशत से बढ़ कर 68.3, हरियाणा में 5.8 प्रतिशत से बढ़ कर 7 और दिल्ली की आबादी में मुसलमानों का हिस्सा 11.7 प्रतिशत से बढ़ कर 12.9 प्रतिशत हो गया।

क्या हुआ बांग्लादेशियों का?

वैसे बाकी देश के मुकाबले असम और पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी में हुई भारी वृद्धि के पीछे बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ भी एक बड़ा कारण है। दिलचस्प बात यह है कि नौ महीने पहले अपने चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने पश्चिम बंगाल में एक सभा में दहाड़ कर कहा था कि बांग्लादेशी घुसपैठिये 16 मई के बाद अपना बोरिया-बिस्तर बाँध कर तैयार रहें, वे यहाँ रहने नहीं पायेंगे। लेकिन सत्ता में आने के बाद से अभी तक सरकार ने इस पर चूँ भी नहीं की है! तब हिंदू वोट बटोरने थे, अब सरकार चलानी है। दोनों में बड़ा फर्क है! 

जाहिर है कि अब ये आँकड़े साक्षी महाराज जैसों को नया बारूद भी देंगे। वैसे हर जनगणना के बाद यह सवाल उठता रहा है कि मुसलमानों की आबादी बाकी देश के मुकाबले ज्यादा तेज क्यों बढ़ रही है? और क्या एक दिन मुसलमानों की आबादी इतनी बढ़ जायेगी कि वे हिंदुओं से संख्या में आगे निकल जायेंगे? ये सवाल आज से नहीं उठ रहे हैं।

आज से सौ साल से भी ज्यादा पहले 1901 में जब अविभाजित भारत में आबादी के आँकड़े आये और पता चला कि 1881 में 75.1 प्रतिशत हिंदुओं के मुकाबले 1901 में उनका हिस्सा घट कर 72.9 प्रतिशत रह गया है, तब बड़ा बखेड़ा खड़ा हुआ। उसके बाद से लगातार यह बात उठती रही है कि मुसलमान तेजी से अपनी आबादी बढ़ाने में जुटे हैं, वे चार शादियाँ करते हैं, अनगिनत बच्चे पैदा करते हैं, परिवार नियोजन को गैर-इस्लामी मानते हैं और अगर उन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो एक दिन भारत मुस्लिम राष्ट्र हो जायेगा!

क्या अल्पसंख्यक हो जायेंगे हिंदू?

अभी पिछले दिनों उज्जैन जाना हुआ। दिल्ली के अपने एक पत्रकार मित्र के साथ था। वहाँ सड़क पर पुलिस के एक थानेदार महोदय मिले। उन्हें बताया गया कि दिल्ली के बड़े पत्रकार आये हैं तो कहने लगे, साहब बुरा हाल है। यहाँ एक-एक मुसलमान चालीस-चालीस बच्चे पैदा कर रहा है। आप मीडिया वाले कुछ लिखते नहीं है!

सवाल यह है कि एक थानेदार को अपने इलाके की आबादी के बारे में अच्छी तरह पता होता है। कैसे लोग हैं, कैसे रहते हैं, क्या करते हैं, कितने अपराधी हैं, इलाके की आर्थिक हालत कैसी है, वगैरह-वगैरह। फिर भी पुलिस का वह अफसर पूरी ईमानदारी से यह धारणा क्यों पाले बैठा था कि एक-एक मुसलमान चार-चार शादियाँ और चालीस-चालीस बच्चे पैदा कर रहा है!

यह अकेले उस पुलिस अफसर की बात नहीं। बहुत-से लोग ऐसा ही मानते हैं। पढ़े-लिखे हों या अनपढ़। साक्षी महाराज हों या बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य, जो हिंदू महिलाओं को चार से लेकर दस बच्चे पैदा करने की सलाह दे रहे हैं! क्यों? तर्क यही है न कि अगर हिंदुओं ने अपनी आबादी तेजी से न बढ़ायी तो एक दिन वे ‘अपने ही देश में अल्पसंख्यक’ हो जायेंगे!

मुसलमान : मिथ और सच्चाई!

यह सही है कि मुसलमानों की आबादी हिंदुओं या और दूसरे धर्मावलंबियों के मुकाबले ज्यादा तेजी से बढ़ी है। 1961 में देश में केवल 10.7 प्रतिशत मुसलमान और 83.4 प्रतिशत हिंदू थे, जबकि 2011 में मुसलमान बढ़ कर 14.2 प्रतिशत हो गये और हिंदुओं के घट कर 80 प्रतिशत से कम रह जाने का अनुमान है। लेकिन फिर भी न हालत उतनी ‘विस्फोटक’ है, जैसी उसे बनाने की कोशिश की जा रही और न ही उन तमाम ‘मिथों’ में कोई सार है, जिन्हें मुसलमानों के बारे में फैलाया जाता है।

सच यह है कि पिछले दस-पंद्रह सालों में मुसलमानों की आबादी की बढ़ोतरी दर लगातार गिरी है। 1991 से 2001 के दस सालों के बीच मुसलमानों की आबादी 29 प्रतिशत बढ़ी थी, लेकिन 2001 से 2011 के दस सालों में यह बढ़त सिर्फ 24 प्रतिशत ही रही। हालाँकि कुल आबादी की औसत बढ़ोतरी इन दस सालों में 18 प्रतिशत ही रही। उसके मुकाबले मुसलमानों की बढ़ोतरी दर 6 प्रतिशत अंक ज्यादा है, लेकिन फिर भी उसके पहले के दस सालों के मुकाबले यह काफी कम है।

2005 की एक रिसर्च रिपोर्ट (हिंदू-मुस्लिम फर्टिलिटी डिफ्रेंशियल्स :आर. बी. भगत और पुरुजित प्रहराज) के मुताबिक मुसलमानों में इस समय जनन दर (एक महिला अपने जीवनकाल में जितने बच्चे पैदा करती है) 3.6 और हिंदुओं में 2.8 बच्चा प्रति महिला है। यानी औसतन एक मुस्लिम महिला एक हिंदू महिला के मुकाबले अधिक से अधिक एक बच्चे को और जन्म देती है।

तो जाहिर-सी बात है कि यह मिथ पूरी तरह निराधार है कि मुस्लिम परिवारों में दस-दस बच्चे पैदा होते हैं। इसी तरह, लिंग अनुपात को देखिए। 1000 मुसलमान पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की संख्या 936 है। यानी हजार में कम से कम 64 मुसलमान पुरुषों को अविवाहित ही रह जाना पड़ता है। ऐसे में मुसलमान चार-चार शादियाँ कैसे कर सकते हैं?

मुसलमान और परिवार नियोजन

एक मिथ यह है कि मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते। यह मिथ भी पूरी तरह गलत है। केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में परिवार नियोजन को अपना रही है। ईरान और बांग्लादेश ने तो इस मामले में कमाल ही कर दिया है। 1979 की धार्मिक क्रांति के बाद ईरान ने परिवार नियोजन को पूरी तरह खारिज कर दिया था, लेकिन दस साल में ही जब जनन दर आठ बच्चों तक पहुँच गयी, तो ईरान के इस्लामिक शासकों को परिवार नियोजन की ओर लौटना पड़ा और आज वहाँ जनन दर घट कर सिर्फ दो बच्चा प्रति महिला रह गयी है, यानी भारत की हिंदू महिला की जनन दर से भी कम! इसी प्रकार बांग्लादेश में भी जनन दर घट कर अब तीन बच्चों पर आ गयी है।

प्रसिद्ध जनसांख्यिकीविद् निकोलस एबरस्टाट और अपूर्वा शाह के एक अध्य्यन (फर्टिलिटी डिक्लाइन इन मुस्लिम वर्ल्ड) के मुताबिक 49 मुस्लिम बहुल देशों में जनन दर 41 प्रतिशत कम हुई है, जबकि पूरी दुनिया में यह 33 प्रतिशत ही घटी है। इनमें ईरान, बांग्लादेश के अलावा ओमान, संयुक्त अरब अमीरात, अल्जीरिया, ट्यूनीशिया, लीबिया, अल्बानिया, कतर और कुवैत में पिछले तीन दशकों में जनन दर 60 प्रतिशत से ज्यादा गिरी है और वहाँ परिवार नियोजन को अपनाने से किसी को इन्कार नहीं है।

भारत में मुसलमान क्यों ज्यादा बच्चे पैदा करते हैं? गरीबी और अशिक्षा इसका सबसे बड़ा कारण है। भगत और प्रहराज के अध्य्यन के मुताबिक हाईस्कूल या उससे ऊपर शिक्षित मुस्लिम परिवारों में जनन दर सिर्फ तीन बच्चा प्रति महिला रही, जबकि अनपढ़ परिवारों में यह पाँच बच्चा प्रति महिला रही।

यही बात हिंदू परिवारों पर भी लागू रही। हाई स्कूल और उससे ऊपर शिक्षित हिंदू परिवार में जनन दर दो बच्चा प्रति महिला रही, जबकि अनपढ़ हिन्दू परिवार में यह चार बच्चा प्रति महिला रही। ठीक यही बात आर्थिक पिछड़ेपन के मामले में भी देखने में आयी और अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों में जनन दर औसत से कहीं ज्यादा पायी गयी।

गर्भ निरोध से परहेज नहीं

परिवार नियोजन की बात करें तो देश में 50 प्रतिशत हिंदू महिलाएँ गर्भ निरोध का कोई आधुनिक तरीका अपनाती हैं, जबकि उनके मुकाबले 36 प्रतिशत मुस्लिम महिलाएँ ऐसे तरीके अपनाती हैं (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3, 2005-06)। इससे दो बातें साफ होती हैं। एक यह कि मुस्लिम महिलाएँ गर्भ निरोध के तरीके अपना रही हैं, हालाँकि हिंदू महिलाओं के मुकाबले उनकी संख्या कम है।

दूसरी यह कि गरीब और अशिक्षित मुस्लिम महिलाओं में यह आँकड़ा और भी घट जाता है। ऐसे में साफ है कि मुस्लिम महिलाओं को गर्भ निरोध और परिवार नियोजन से कोई परहेज नहीं। जरूरत यह है कि उन्हें इस बारे में सचेत, शिक्षित और प्रोत्साहित किया जाये।

दूसरी एक और बात, जिसकी ओर कम ही ध्यान जाता है। हिन्दुओं के मुकाबले मुसलमान की जीवन प्रत्याशा (Life expectancy at birth) लगभग तीन साल अधिक है। यानी हिंदुओं के लिए जीने की उम्मीद 2005-06 में 65 साल थी, जबकि मुसलमानों के लिए 68 साल।

सामान्य भाषा में समझें तो एक मुसलमान एक हिंदू के मुक़ाबले कुछ अधिक समय तक जीवित रहता है (Inequality in Human Development by Social and Economic Groups in India)। इसके अलावा हिंदुओं में बाल मृत्यु दर 58.5 (प्रति 1000) है, जबकि मुसलमानों में यह केवल 52.4 है (राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-3, 2005-06)। ये दोनों बातें भी मुसलमानों की आबादी बढ़ने का कारण हैं।

आबादी का बढ़ना चिंता की बात है। इस पर लगाम लगनी चाहिए। लेकिन इसका हल वह नहीं, जो साक्षी महाराज जैसे लोग सुझाते हैं। हल यह है कि सरकार विकास की रोशनी को पिछड़े गलियारों तक जल्दी से जल्दी ले जाये, शिक्षा की सुविधा को बढ़ाये, परिवार नियोजन कार्यक्रमों के लिए जोरदार मुहिम छेड़े, घर-घर पहुँचे, लोगों को समझे और समझाये तो तस्वीर क्यों नहीं बदलेगी? आखिर पोलियो के खिलाफ अभियान सफल हुआ या नहीं! (raagdesh.com)

(देश मंथन, 24 जनवरी 2015)

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