‪‎यादें‬ -9

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक : 

कल की मेरी पोस्ट पर अमित ने कमेंट के साथ एक तस्वीर चस्पा की, जिसमें श्रीमती गाँधी जमीन पर बैठी हैं और सामने पुलिस वाले खड़े हैं। आप में से बहुत से लोगों को यह तस्वीर याद होगी। बहुत से लोगों को समझ में नहीं आया होगा कि आखिर ये तस्वीर कब की है।

मेरी यादों में जेपी का छात्र आंदोलन, इमरजंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार का बनना, इन्दिरा गाँधी की गिरफ्तारी की हर घटना दिन तारीख और समय के साथ दर्ज है। मैं बहुत छोटा ही था तब, लेकिन अखबार पढ़ने की आदत और माँ-पिताजी के बीच होने वाली राजनैतिक चर्चाओं में मैं बहुत कुछ समझने लगा था। उसमें भी मजा तब बढ़ जाता जब मेरे आईपीएस मामा हमारे घर आ जाते या हम उनके घर जाते। मामा तब सीबीआई में थे और उनकी बातचीत मेरे लिए किसी हिन्दी सिनेमा से कम नहीं होती थी।

इमरजंसी के ठीक बाद मैं इन्दिरा गाँधी को बेहद करीब से देख चुका था, उनके आत्मविश्वास से रूबरू हो चुका था। ऐसे में मामा की सुनाई कहानियों और अखबारों में छपी खबरों के आधार पर मैं आज जो लिखता, उसे वैज्ञानिक आधार मिला पूर्व आईपीएस अधिकारी एनके सिंह की किताब ‘खरा सत्य’ से, जिसका हिन्दी अनुवाद संजय सिंह ने ही किया था। फिलहाल वो किताब मेरे पास नहीं है, लेकिन जनसत्ता में नौकरी के दिनों में मैंने वो किताब पढ़ी थी। क्योंकि मैं उस घटना के हर हिस्से से वाकिफ था, इसलिए उस किताब को पढ़ने में मुझे दुगुना आनंद आया था। एक तो उस किताब को पढ़ते हुए मुझे कहीं से नहीं लगा था कि मैं अनुवाद पढ़ रहा हूँ, क्योंकि अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करते हुए संजय सिंह ने इस बात का बहुत ध्यान रखा कि उसकी आत्मा मरे नहीं, दूसरे एनके सिंह ने अपनी डायरी को सचमुच बहुत रोचक ढंग से शब्दों में पिरोते हुए किताब का रूप दिया था।

सीबीआई में एसपी रहते हुए एनके सिंह ही वो अफसर थे, जिन्हें इन्दिरा गाँधी को गिरफ्तार करने की जिम्मेदारी मिली थी।

मैं अपने मन-मस्तिष्क पर बहुत ज़ोर देते उस पूरे घटनाक्रम को अगर आज यहाँ आपके लिए याद करूँ, तो भी अब उन पन्नों से खुद को आज़ाद नहीं कर सकता, जिसे एनके सिंह ने अपनी किताब में लिखा है। आम तौर पर होता यही है कि जब आप कहीं कुछ पढ़ या सुन लेते हैं, तो आपका मन घूम-घूम कर वहीं विचरने लगता है। जैसे कॉलेज में जो बच्चे ट्यूशन पढ़ते हैं, वो चाह कर भी मौलिक नहीं रह पाते। परीक्षा में बेशक अच्छे नंबर आ जाएँ, लेकिन मौलिकता तो उसी के जवाब में मिलेगी, जिसने खुद पूरी किताब को आत्मसात किया हो, बिना किसी की मदद के।

खैर, आज मैं जिस घटना का वर्णन करने जा रहा हूँ, वो मेरे लिए मुमकिन ही नहीं था, अगर मैंने ‘खरा सत्य’ नहीं पढ़ी होती। इन्दिरा गाँधी की गिरफ्तारी की सारी घटनाएँ बेशक मेरे जेहन में दर्ज हैं, लेकिन एनके सिंह की किताब में गिरफ्तारी के बाद उन्हें कार में बिठा कर फरीदाबाद के पास बडखल जैसी किसी जगह पर ले जाने की घटना का उल्लेख बहुत मजेदार तरीके किया गया है। अगर मैं दक्षिण भारत के किसी प्रोड्यूसर की तरह किसी फिल्म का निर्माण कर रहा होता तो मैं उस फिल्म का नाम रखता, ‘पावर अरेस्ट’।

किसी फिल्मकार ने अगर इस घटना की स्क्रिप्टिंग की होती, तो उसके पास बहुत ही गंभीर मसाला होता।

काश ऐसा हुआ होता!

खैर मैं ज्यादा भूमिका में जाने की जगह सीधे-सीधे मुद्दे पर आता हूँ।

सीबीआई के सीनियर एसपी एनके सिंह अपनी टीम के साथ इन्दिरा गाँधी को गिरफ्तार करने उनके घर पहुँच चुके थे। इन्दिरा गाँधी के घर पर उनके दोनों बेटे राजीव गाँधी और संजय गाँधी मौजूद थे। संजय गाँधी ने तो तमाशा खड़ा करने के लिए फोन करके अपने उत्पाती ब्रिगेड को घर पर बुला लिया था। उन्हें उम्मीद थी कि उत्पात के आगे पुलिस गिरफ्तारी को टाल देगी। राजीव गाँधी संयत और सहमे से खड़े थे। वो मामले की नजाकत को समझ रहे थे।

सुबह से शाम तक गिरफ्तारी का ड्रामा इन्दिरा गाँधी के घर पर चलता रहा। इन्दिरा गाँधी गिरफ्तारी से बचने के सारे हथकंडे अपनाती रहीं और आखिर देर शाम एनके सिंह इन्दिरा गाँधी को अपने साथ ले जाने में कामयाब हो पाये।

इस कहानी में चाहे दम जितना हो, रोमान्च रत्ती भर नहीं।

रोमान्च वाली कहानी कुछ इस तरह है-

सीबीआई के अधिकारी इन्दिरा गाँधी को कार में बिठा कर फरीदाबाद के आगे कहीं ले जा रहे थे।

फरीदाबाद तक तो सबकुछ ठीक रहा। लेकिन जैसे ही कार फरीदाबाद से आगे बडखल की ओर बढ़ी अचानक राजीव गाँधी, संजय गाँधी अपने तमाम चंपुओं के साथ कई गाड़ियों में वहाँ आ धमके और उन्होंने उस कार को घेर लिया, जिसमें इन्दिरा गाँधी को गिरफ्तार करके ले जाया जा रहा था।

एनके सिंह ने अपनी किताब में लिखा है कि संजय गाँधी की टीम के साथ एक वकील भी था। वकील ने सीबीआई अफसरों के आगे दलील दी कि इन्दिरा गाँधी को दिल्ली के बाहर नहीं ले जाया जा सकता।

हालाँकि, बतौर सीबीआई अधिकारी एनके सिंह ने तर्क देने की कोशिश की कि जिस धारा में श्रीमती गाँधी बन्द हैं, उसका कार्यक्षेत्र पूरे हिन्दुस्तान में कहीं भी हो सकता था।

काफी हुज्जत हुई। गाड़ी रुकी हुई थी, और जैसे ही इन्दिरा गाँधी ने सुना कि उनके वकील के मुताबिक उन्हें दिल्ली से बाहर नहीं ले जाया जा सकता है, तो वो गाड़ी से कूद पड़ीं और वहीं जमीन पर बैठ गईं। उन्होंने कहा कि वो अपने वकील की बात मानेंगी और बडखल नहीं जाएँगी।

मेरा यकीन कीजिए, मैंने जितनी बार इस पन्ने को पढ़ा इन्दिरा गाँधी की छवि मेरी निगाहों में उन्हें बेहद कमजोर साबित करने लगी। मैं सोच भी नहीं सकता था कि इतनी महान और बड़ी शख्सियत जेल जाने के नाम पर इस तरह बिफर सकती है। आखिर इन्दिरा गाँधी बडखल नहीं गईं, तो नहीं गईं। हार कर सीबीआई की टीम को अगले दिन उन्हें दिल्ली में मजिस्ट्रेट के सामने पेश करना पड़ा।

बकौल एनके सिंह की किताब, वहाँ पूरी फिल्मी फाइट भी हुई। संजय गाँधी के चंपुओं ने फरीदाबाद-बडखल रोड पर जम कर हँगामा किया। उनके किसी चंपू ने संजय गाँधी के साथ आये वकील को ही एक घूसा रसीद कर मारा। वकील साहब रोड पर गिर पड़े। अपनी तरफ से तो चंपुओं ने कोट पैंट वाले उस व्यक्ति को इसलिए घूसा दिया था, क्योंकि उन्हें लगा कि वो सीबीआई वाला है। जैसा कि आम बंबइया हिन्दी फिल्मों में होता है कि भगदड़ में कोई किसी को थप्पड़ मारता है, कोई किसी को। कोई किसी को क्यों मार रहा है इसका पता भी मारने वाले को और मारखाने वाले को नहीं होता।

एनके सिंह की किताब के उस पन्ने को पढ़ते हुए मेरी आँखों में मसालेदार फिल्म तैयार थी।

हालाँकि एक बात मुझे बहुत कचोट रही थी।

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जेपी आंदोलन के दौरान मेरी कॉलोनी में रहने वाली विमला दीदी ने मुझसे कहा था कि इन्दिरा गाँधी मर्द हैं।

तो क्या यही मर्दानगी थी उनकी? मेरे मामा ने मुझे शहीद भगत सिंह की जीवनी पढ़ने को दी थी। उनके बारे में पढ़ते हुए मेरे मन में मर्दानगी की हजार तस्वीरें बनी थीं। बच्चों की ही किसी किताब में मैंने उधम सिंह की कहानी भी पढ़ी थी, उसमें भी मुझे मर्दानगी वाला हिस्सा नजर आया था। यहाँ तक कि अपने ही शहर के वीर कुंअर सिंह की गाथा हम बचपन से सुनते आये थे, उनमें भी मर्दागनी वाला पार्ट हमें रोमांचित करता था। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता, ‘खूब लड़ी मर्दानी, वो तो झाँसी वाली रानी थी’, को पढ़ते हुए मेरे मन में लक्ष्मी बाई के प्रति एक अजीब सा सम्मोहन भर जाता था।

ऐसे ही विमला दीदी ने जब इन्दिरा गाँधी को मर्द कहा था तो मेरे मन में एक वीरांगना की तस्वीर बैठ गई थी। 

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एनके सिंह की किताब तो मैंने बहुत बाद में पढ़ी। लेकिन मामा के मुँह से इन्दिरा गाँधी की गिरफ्तारी की कहानी जितनी बार मैंने सुनी, मेरे मन में यही बात रहती कि दीदी को इस बारे में नहीं पता चलना चाहिए। दीदी के दिल को चोट लगेगी। वैसे तो दीदी बहादुर है पर इन्दिरा गाँधी उसका हौसला हैं।

वो इन्दिरा गाँधी को अपना आदर्श मानती है। किसी के आदर्श को यूँ फर्श पर नहीं उतर आना चाहिए। आदर्श हमेशा ऊँचे आसमान पर ही आदर्श बना रहता है।

क्या हो जाता अगर इन्दिरा गाँधी डंके की चोट पर कहतीं कि मैंने कोई गुनाह नहीं किया है, ले चलो मुझे जहाँ जिस जेल में तुम्हें ले चलना है।

शायद तब कालिया फिल्म नहीं बनी थी। अगर बनी होती तो मैं खुद जाकर इन्दिरा गाँधी से कहता कि आप परवाह मत कीजिए। देखिए कालिया में अमिताभ बच्चन ने कितनी मजबूती से कहा कि दुनिया में ऐसी कोई जेल ही नहीं बनी, जहाँ कालिया को गिरफ्तार करके रखा जा सके। 

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हालाँकि ये भी इत्तेफाक ही था कि कश्मीर में जब कालिया फिल्म की शूटिंग चल रही थी, तब मैं सबके रोकते हुए भी परवीन बाबी और अमिताभ बच्चन के बीच घुस गया था और वहीं अमिताभ बच्चन से मेरी पहली मुलाकात हुई थी। पर यह सब बहुत बाद में हुआ था। उसके पहले इन्दिरा गाँधी की गिरफ्तारी हो चुकी थी, वो अगले ही दिन छूट भी चुकी थीं, जेपी की मौत हो चुकी थी, इन्दिरा गाँधी दुबारा प्रधान मन्त्री बन चुकी थीं।

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यादों का सिलसिला थम नहीं सकता, अगर आप इन यादों को ऐसे ही इतने प्यार से पढ़ते रहे और लाइक बटन दबाते रहे। मैं जैसे ही अपनी यादों के साथ इमरंजसी में दुबारा घुसा, यकीन कीजिए मेरे कन्धे दीदी के आँसुओं से सराबोर होते चले जाएँगे। पर वहाँ तक पहुँचने से पहले मुझे इमरजंसी की गहरी यादों से गुजरना पड़ेगा। सबकुछ निर्भर करेगा, आपकी चाहत पर। अभी तो आपके लाइक बटन ही मेरा हौसला हैं।

(देश मंथन, 01 जुलाई 2015)

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