अमरेंद्र किशोर, कार्यकारी संपादक, डेवलपमेंट फाइल्स :
साल 2004 से अब तक 5,000 से ज्यादा पुलिसकर्मी, लाल आतंकी और नागरिक नक्सलवादी हमले में मारे जा चुके हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह इन आतंकियों से निबटना एक बड़ी चुनौती मानते थे। यह आम राय बन चुकी है कि नक्सलवाद आज भारत के लिए तालिबानियों से ज्यादा घातक हो चुके हैं।
चित्र : डेवलपमेंट फाइल्स
सीमा पार का आतंक आंतरिक सुरक्षा में सेँध लगा चुके माओवादी कहर के सामने निस्तेज होता जा रहा है। लाल आतंकी जिन तरीकों और साधनों का इस्तेमाल कर घटनाओं को अंजाम देते हैं, उससे यह साफ है कि भविष्य की गोद में अभी न जाने कितने ताड़मेटला समाहित होंगे।
नक्सलवाद गरीबी-असमानता-अन्याय-वंचना एवं दुराशाओं की उपज है। समूचे छत्तीसगढ़ को अपने जबड़े में दबा चुका लाल आंतक अपने नाखून दक्षिण उड़ीसा में धँसा रहा है। आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ के सीमावर्ती जिले मल्कागिरी, कोरापुट के इलाके आज नक्सली गतिविधियों के साये में जी रहे हैं।
पश्चिमी और दक्षिणी उड़ीसा की भूख जग जाहिर है। बेशक भूख वहाँ की सबसे बड़ी लाचारी है और गरीबी एक विशाल पीड़ा। जिंदगी में जड़ता है, ठहराव है, पेचीदगी है। विकास उनके लिए नहीं है जिनके नाम से वहाँ योजनाएँ चलायी जाती हैं।
जिंदगी में विडंबना अपार हैं। सुखद नैसर्गिक सुंदरता है मगर जिंदगी सुखद नहीं है। जंगलों के रहवासियों के लिए जंगल नहीं है। लोगों के पक्के मकान हैं, घर में अनाज के नाम पर दो रूपये किलो वाला अंत्योदयी चावल है, बैंक के खाते हैं, खाते में कुछ पैसे हैं, पर समय पर वे उसे निकाल नहीं सकते। मनरेगा है जिसके तहत लोग रोजगार पाते हैं, लेकिन मजदूरी के नाम पर उन्हें बैंकों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
वहाँ जल है – जंगल है और जमीन है, लेकिन लोग प्यासे हैं, भूखे हैं, नंगे हैं और वहाँ से भयंकर पलायन है। गाँवों में पंचायत है, वहाँ विभिन्न राजनीतिक दलों के एजेंट हैं, जनवादी विकास के पोस्टर हैं, पर उन्हीं गाँवों में राशन कार्ड गिरवी रखकर कर्ज जुटाते किसान हैं। अपनी जमीन छोड़ कर बाहर जा कर अपना श्रम बेचने वाले मजदूर हैं। नवजात शिशु बेचती माएँ हैं और बिन शादी किये माँ बनतीं बालाएँ हैं।
पश्चिमी उड़ीसा की निर्धनता और वंचना जाने का नाम नहीं ले रही है। घनघोर जंगल, दुर्गम ग्राम्य अंचल, प्रशासनिक अदक्षता, नाकारा प्रशासनिक तंत्र और शोषण की गहरी और विशाल परंपरा अप्रत्याशित रूप से माओवादियों को लुभा रही है।
आजादी मिलने के बाद से लेकर आज तक वहाँ विकास के नाम जो भी हुआ है, वह देखने में कुछ संतोषजनक भले ही दिखे, पर आज भी पश्चिमी उड़ीसा में 80 से 85% आबादी गरीबी रेखा से नीचे है। चार लाख से ज्यादा लोग भूमिहीन हैं। कालाहांडी जिले के थॉमल रामपुर के ज्यादातर गाँवों के हालात वैसे हैं जैसे 200 साल पहले थे।
उन इलाकों में शिशु मृत्यु दर कई अफ्रीकी देशों की शिशु मृत्यु दर से भी ज्यादा है। न बिजली है, न पानी है और न आम जन सुविधाएँ। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में पैरासिटामॉल भी मिल जाये तो गनीमत है। इस बदहाल प्रांत का हाथ थामने कोई ढाई दशक पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी वहाँ पहुँचे तो जीवन की भौतिक जरूरतों के संघर्ष खत्म होने की उम्मीदें जगीं।
अंदाज था कि उपभोग की लालसा कुछेक साल में अनुशासित हो चुकी होगी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हजारों करोड़ रूपये पैकेज के रूप में परोसे जाने के बावजूद वहाँ जिंदगी के संवैधानिक एवं मानवीय अधिकार और ताकतवर लोगों के संपत्ति के कानूनी अधिकार के बीच सीधा टकराव चल रहा है।
लगभग पूरा उड़ीसा मध्ययुगीन अवस्था में जी रहा है। सड़कों के नाम पर कुछ लकीरें हैं। विकास के वायदे हैं। योजनाओं की पट्टियाँ हैं। योजनाओं को चलाने वाले स्वयँभू दलाल हैं। किसी ने सही कहा है कि ‘यह इलाका अकाल के पर्यटन स्थल का प्रवेश द्वार है’।
ये तमाम संदर्भ और परिस्थितियाँ उन भ्रामक तत्त्वों को सक्रिय होने को उकसा सकती हैं, जिनकी वजह से रेड कॉरिडोर का निर्माण होता है। माओवादी गरीबी और पिछड़ेपन का लाभ उठा कर अपने सिद्धाँतों का प्रचार करते हैं और इलाके पर नियंत्रण बनाते हैं।
यही वजह है कि वे उन क्षेत्रों के स्थानीय लोगों का व्यापक समर्थन बटोर लेते हैं जिन क्षेत्रों पर वे राज्य-व्यवस्था को दरकिनार कर अपनी सत्ता चलाते हैं। याद रहे जिन इलाकों में व्यवस्था को लेकर असंतोष हो, कुदरती संसाधनों से आम जनता वँचित हो, मजदूरी के नाम पर घाल-घोटाले हों, वहाँ नक्सली अपनी लोकप्रियता पाने में सफल हो जाते हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि माओवादियों का कहना है कि वे गरीबों और भूमिहीन लोगों के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, उन्होंने भारत के कुछ सबसे खनिज समृद्ध क्षेत्रों पर कब्जा जमा रखा है और वे बड़े ग्रामीण इलाके में अपनी गतिविधियाँ चला रहे हैं। कालाहांडी-बोलंगिर के करीबी जिले आज माओवादी हिंसा की लपटों में धधक रहे हैं।
मध्य भारत में इनका पनपना हमें यह सोचने को बाध्य करता है कि आखिर क्या कारण रहे कि समुदाय के एक वर्ग में अलग-थलग महसूस करने की भावना आ गयी, खास कर आदिवासी समुदाय में यह विकास की गति में कुछ खामियों का संकेतक हो सकता है।
विकास को लेकर सरकारी दावेदारियाँ जो भी हों, इस सच से इन्कार करना बेमानी होगा कि अकाल के दिनों में लोग लाल चींटों के अंडे में उधार का नमक डाल कर चटनी बनाते हैं और गुजारा करते हैं।
उधर उन अभागे लोगों के विकास की राशि गटकने वाले लोग उन पैसों से रेड वाइन की नदियाँ बहाते हैं। ऐसे में लाल आतंक का परचम कालाहांडी-बोलंगिर में लहराने लगे तो इसमें आश्चर्य क्या है?
(देश मंथन, 26 दिसंबर, 2014)