‘सिन्धु-साक्षी’ पॉवर से सुपरपॉवर!

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क़मर वहीद नक़वी, पत्रकार :

दीपा करमाकर और साक्षी मलिक के परिवारों ने अपनी बेटियों की तैयारी के लिए खुद अपना घर-बार सब कुछ दाँव पर न लगा दिया होता, तो उनकी कहानियाँ आज किसी के सामने न होती। इनके और गोपीचन्द जैसों के लिए ‘ईज ऑफ प्लेयिंग’ जैसी कोई योजना बननी चाहिए न! ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के लिए तो हम बहुत काम कर रहे हैं, कुछ थोड़ा-सा काम ‘ईज ऑफ प्लेयिंग’ के लिए भी हो जाये!

नाचो, गाओ, ढोल बजाओ, जश्न मनाओ! बैडमिंटन में पीवी सिन्धु का शानदार कमाल! बेमिसाल। सोना नहीं जीत पायीं, लेकिन चाँदी भी कम नहीं। सिन्धु हारीं, तो अपने से कहीं बेहतर और दुनिया की नम्बर एक खिलाड़ी कैरोलिना मरीन से। और कुश्ती में साक्षी मलिक की दमदार जीत। हार से लौट कर भी जीत की कहानी लिख देना, मामूली बात नहीं और किसी गोल्ड मेडल से कम नहीं! और त्रिपुरा की जिमनास्ट दीपा करमाकर के बिना तो रियो की कहानी कभी पूरी ही नहीं हो सकती। वह मेडल नहीं जीत पायीं, लेकिन देश का दिल उन्होंने जरूर जीता। ऐसा अदम्य हौसला, ऐसी लगन, ऐसी मेहनत, ऐसा समर्पण अद्भुत है।

रियो से ये विश्वविजय की, गौरव की, प्रेरणा की तीन लाजवाब कहानियाँ हैं, जिनकी चर्चा बहुत दिनों तक होती रहेगी। होनी भी चाहिए। इन पर सारे देश में खूब धूमधाम हो, इतनी कि देश के बच्चे-बच्चे में ललक उठे कि एक दिन उसे भी ओलिम्पिक जीत कर दिखाना है, उसे भी विश्वविजयी बनना है, उसे भी राष्ट्रीय गौरव की कोई बेमिसाल कहानी लिखनी है, ऐसी कोई छाप छोड़नी है कि सदियों तक पीढ़ियाँ उसके नाम पर गर्व से इतराती रहें। लेकिन रियो से इसके अलावा भी कुछ अच्छी और कुछ बुरी कहानियाँ हैं, जिन्हें हम भारतीय अपनी सुविधा से भूल जायेंगे! और बस हमसे सारी गड़बड़ यहीं होती है। और इसीलिए हम सिर्फ कभी-कभार ही गिनती की कुछ बड़ी कहानियाँ लिख पाते हैं।

कुश्ती : एक पदक के बाद दूसरा दाँव छप्पन साल बाद!

1952 के हेलसिंकी ओलिम्पिक में खशाबा दादासाहेब जाधव ने पुरुष कुश्ती में कांस्य पदक जीता था। वह हमारी पैदाइश के पहले की बात है। शायद तब भी बड़ी खुशी मनी होगी। मननी भी चाहिए। लेकिन कुश्ती में अगला पदक जीतने के लिए हमको 56 साल का लम्बा इन्तजार करना पड़ा। हाँ, यह जरूर है कि 2008 में सुशील कुमार के कुश्ती कांस्य पदक के बाद से हम हर ओलिम्पिक में इस स्पर्धा में कुछ न कुछ जीत रहे हैं। लेकिन दूसरे खेलों में ऐसा नहीं है। 1996 में लिएंडर पेस ने टेनिस में कांस्य पदक जीता, तब भी बड़ी खुशी मनी थी, लेकिन टेनिस में वह हमारा पहला और आखिरी पदक है! निशानेबाजी (शूटिंग) में जरूर 2004 में राज्यवर्द्धन राठौर ने रजत पदक जीत कर जो सिलसिला शुरू किया था, उसे 2008 में अभिनव बिन्द्रा (स्वर्ण) और 2012 में गगन नारंग (कांस्य) ने जारी रखा। लेकिन इस साल हम वहाँ खाता नहीं खोल पाये। ऐसा ही कुछ बाक्सिंग में भी हुआ। बैडमिंटन में 2012 में सायना नेहवाल के कांस्य पदक के सिलसिले को सिन्धु ने इस साल जरूर बेहद शानदार तरीके से आगे बढ़ाया है।

Olympics 2016 : जश्न भी, तो कुछ सवाल भी!

तो कुल मिला कर अभी हम कुश्ती, निशानेबाजी और बैडमिंटन से ही अगले ओलिम्पिक में सफलता की कुछ कहानियों की उम्मीद कर सकते हैं। इतने बड़े देश में हम सफलता की बड़ी कहानियाँ लगातार क्यों नहीं लिख पाते, क्या यह सोचने की जरूरत नहीं? क्या इस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए? वैसे सवाल उठाना आजकल बड़े जोखिम का काम हो चुका है। ऊपर से नीचे तक लोग हाथ धो कर पिल पड़ते हैं। फिर भी यह जोखिम मैं उठा रहा हूँ!

तो बड़ी कहानियों को तो हर कोई लपकता है, उन पर गर्वित होता है, श्रेय लूटता है, उसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन इसमें चार चाँद लग जायें, जब हम साथ में बहुत-सी दूसरी कहानियों को भी देखने, जानने, समझने का वक्त निकालें। सिन्धु की कहानी चमाचम चमकदार है, लेकिन उससे भी कहीं ज्यादा शानदार है उसके कोच पुलेला गोपीचन्द की कहानी, जिसने अथक मेहनत कर और जरूरत पड़ने पर अपना घर तक गिरवी रख कर अपनी बैडमिंटन अकादमी के लिए पैसा जुटाया और बैडमिंटन खिलाड़ियों की ऐसी नयी पीढ़ी तैयार की जो शायद अगले कुछ बरसों तक दुनिया पर राज करे। सायना नेहवाल और सिन्धु के अलावा किदम्बी श्रीकान्त से भी बड़ी उम्मीदें की जा सकती हैं। श्रीकान्त दुनिया के नम्बर तीन शटलर और पिछले दो बार के ओलिम्पिक चैम्पियन लिन डैन से क्वार्टरफाइनल बस जीतते-जीतते ही रह गये। मेरे ख्याल से उस मैच में श्रीकान्त का खेल बड़ा अच्छा था, लेकिन ‘माइंड गेम’ में वह कमजोर पड़ गये।

‘चलता है’ सो ‘माइंड गेम’ नहीं चलता!

यह ‘माइंड गेम’ भारतीय खिलाड़ियों की सबसे बड़ी कमजोरी है। वरना शायद हमारे कुछ और खिलाड़ी यकीनन कुछ और पदक जीत सकते थे। वे वाकई पदक जीतने की योग्यता रखते थे, फिर भी नहीं जीत पाये। पिछले कुछ सालों से खिलाड़ियों में ‘किलर इंस्टिक्ट’ के लिए मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षण दिये जाने की शुरुआत हुई है, लेकिन इसके लिए अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। कई बार हम भारतीय अपनी नैसर्गिक ‘चलता है’ की प्रवृत्ति के चलते छोटे-छोटे अनुशासनों की परवाह नहीं करते, जिसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। इसका इलाज कहीं और नहीं, खुद हमारे ही पास है। कैसे?

क्रिकेट में कैसे बदल गया ‘एटीट्यूड?’

क्रिकेट को लीजिए। कुछ साल पहले तक हम क्रिकेट में भी ‘ढुलमुल यकीन’ ही दिखते थे। कब हार जायें, कब जीत जायें, कुछ पता नहीं। अस्सी के दशक में जब केरी पैकर ने रंगीन कपड़ों में दिन-रात के क्रिकेट की शुरुआत की, तो उसकी बड़ी आलोचना हुई। लेकिन उस क्रिकेट ने आगे चल कर न सिर्फ समूचे क्रिकेट को बदला, बल्कि कुछ बरस बाद भारतीय क्रिकेट को भी बदल दिया। क्रिकेट में अथाह पैसा आने से खिलाड़ियों को खुद-ब-खुद समझ में आ गया कि ‘हार्डकोर प्रोफेशनल’ नहीं बनोगे, तो पैसा नहीं बना पाओगे। पैसा खोना किसे अच्छा लगता है? नतीजा? इस पैसे ने हमारे सारे के सारे क्रिकेटरों की बैटिंग, बॉलिंग, फील्डिंग, थ्रो से लेकर अनुशासन, प्रैक्टिस, रुझान और पूरा का पूरा ‘एटीट्यूड’ ही बदल दिया। मतलब यह कि ठान लिया जाये कि ‘एटीट्यूड’ बदलना है, तो वह चुटकी बजाते बदल जायेगा। क्रिकेट में तो पैसे ने यह काम कर दिया, लेकिन बाकी खेलों में यह काम कैसे हो? इस सवाल का जवाब आये बिना हम गैर-क्रिकेट खेलों में बड़े करिश्मे लगातार नहीं कर पायेंगे।

संयोग से नहीं होता करिश्मा!

करिश्मा संयोग से नहीं होता। किया जाता है। इसी ओलिम्पिक में इस बार पुरुष हॉकी के फाइनल में दो ऐसी टीमें खेलीं, जिन्हें कोई किसी गिनती में नहीं रखता था। लेकिन बेल्जियम और अर्जेंटीना ने बड़े-बड़े दिग्गजों की मिट्टी पलीद कर दी। यह क्या संयोग से हो गया?

चीन ने कहा था 60, ले गये इकसठ!

बरसों पहले की बात है। बड़े लम्बे अन्तरराष्ट्रीय प्रतिबन्ध के बाद 1982 के एशियाई खेलों में पहली बार चीन के लिए दरवाजे खोले गये थे। चीनी खिलाड़ी कई बरसों से दुनिया की हर प्रतियोगिता से बाहर थे। वे कहीं खेल नहीं सकते थे, लेकिन वे सुस्त नहीं पड़े, आराम से नहीं बैठे, अभ्यास में कोई कोताही नहीं की। और जब चीनी दल एशियाड के लिए दिल्ली आया तो इस दावे के साथ कि वह कम से कम साठ स्वर्ण पदक जीतेगा। और वे इकसठ स्वर्ण पदक जीत कर लौटे! दावे से एक गोल्ड मेडल ज्यादा! इसे कहते हैं तैयारी और अनुशासन, जो किसी देश को खेलों का सुपरपॉवर बनाता है। क्या हम करते हैं ऐसी तैयारी? करना चाहते हैं ऐसा? बनना चाहते हैं खेलों के सुपर पॉवर?

The queer case of wrestler Narsingh Yadav in Olympics 2016

यह ‘एटीट्यूड’ हर जगह चाहिए। नरसिंह यादव का मामला लीजिए। ‘नाडा’ ने उन्हें ‘क्लीयरेन्स’ दे दी। उसके बाद सब हाथ पर हाथ धर कर बैठ गये। पहले से यह क्यों नहीं सोचा गया कि ओलिम्पिक में मामला न बिगड़े, इसके लिए कुछ करके चलना चाहिए। शुरू से कहा जा रहा है कि नरसिंह के खिलाफ साजिश हुई। किसी ने उसके खाने की चीजों में स्टेरायड मिला दिये। यह कोई मामूली आरोप है? यह देश के विरुद्ध सीधी साजिश है। सीधे-सीधे देशद्रोह का मामला है। लेकिन तब कुछ नहीं किया गया। अब माँग की जा रही है कि सीबीआइ जाँच हो। अरे अगर तभी देशद्रोह का मामला दर्ज हो गया होता, सीबीआइ जाँच शुरू हो गयी होती तो कम से कम ‘वाडा’ और ‘कैस’ (कोर्ट ऑफ आर्बिट्रेशन फॉर स्पोर्ट्स) के सामने आपकी इस बात का कुछ वजन होता कि नरसिंह साजिश के शिकार हुए हैं। लेकिन आपने तथाकथित साजिश के खिलाफ कुछ किया ही नहीं, तो दुनिया साजिश की थ्योरी कैसे मान ले? पूरा मामला दुर्भाग्यपूर्ण है, लेकिन इस दुर्भाग्य का दोषी कौन है? भाग्य या हम खुद?

तो अब ‘ईज ऑफ प्लेयिंग’ की बात करें?

दीपा करमाकर और साक्षी मलिक के परिवारों ने अपनी बेटियों की तैयारी के लिए खुद अपना घर-बार सब कुछ दाँव पर न लगा दिया होता, तो उनकी कहानियाँ आज किसी के सामने न होती। इनके और गोपीचन्द जैसों के लिए ‘ईज ऑफ प्लेयिंग’ जैसी कोई योजना बननी चाहिए न! ‘ईज ऑफ डूइंग बिजनेस’ के लिए तो हम बहुत काम कर रहे हैं, कुछ थोड़ा-सा काम ‘ईज ऑफ प्लेयिंग’ के लिए भी हो जाये! आज की दुनिया में ओलिम्पिक मेडल भी सुपरपॉवर होने की निशानी हैं। तो ‘सिन्धु-साक्षी’ पॉवर से बनिए न सुपरपॉवर! कौन रोकता है?

(देश मंथन, 23 सितंबर 2016)

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