आरक्षण@पटेल

सुशांत झा, पत्रकार :
पटेलों को आरक्षण मिलने से सबसे ज्यादा दिक्कत किसे होनी चाहिए? जाहिर है, वर्तमान पिछड़ों को। और जाटों को आरक्षण मिलने से? उसमें भी वर्तमान पिछड़ों को दिक्कत होनी चाहिए कि कोई मजबूत जाति उसके हिस्से में सेंधमारी करने आ रही है। लेकिन पिछड़ों का कोई मजबूत प्रतिरोध सामने नहीं है। सिवाय एकाध फेसबुकिया विचारकों के पिछड़ों को अपने हितों की कोई चिन्ता नहीं है!
क्या प्रयास कर रहा है अल्पसंख्यक समुदाय?

जाने-माने हिंदी लेखक और जामिला मिलिया इस्लामिया के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष असग़र वजाहत ने अपनी एक ताजा टिप्पणी से भारत में बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदाय के बीच रिश्तों पर नया सवाल उठाया है। इन सवालों पर उनके विचार क्या हैं और इन्हें उठाने की जरूरत क्यों पड़ी है, इसे समझने के लिए राजीव रंजन झा ने उनसे बातचीत की।
अबूझ पहेलियों के चलते रुलाया प्याज ने

राजेश रपरिया
देखते-देखते प्याज पेट्रोल से महँगी हो गयी है और यह आशंका बलवान है कि आने वाले दिनों में प्याज के दाम 100 रुपये प्रति किलोग्राम पर टक्कर मारेंगे, जैसा कि अक्टूबर 2013 में हो चुका है।
स्टिंग ऑपरेशन और आजम खान

दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :
भड़ास4मीडिया वेबसाइट से मालूम हुआ कि आजम खान साहब ने मेरे ऊपर कई मुकदमे दर्ज कराये हैं। यह भी पता लगा कि विधान सभा की 2013 में गठित की गयी जाँच समिति ने मुजफ्फरनगर दंगों पर आजतक के दिखाए स्टिंग ऑपरेशन पर रिपोर्ट बना ली है।
तो कहाँ है वह संगच्छध्वम् ?

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
चौदह के पन्द्रह अगस्त और पन्द्रह के पन्द्रह अगस्त में क्या फर्क है? चौदह में 'सहमति' का शंखनाद था, पन्द्रह में टकराव की अड़! याद कीजिए चौदह में लाल किले से प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी का पहला भाषण। संगच्छध्वम्! मोदी देश को बता रहे थे कि हम बहुमत के बल पर नहीं बल्कि सहमति के मजबूत धरातल पर आगे बढ़ना चाहते हैं। उस साल एक दिन पहले ही नयी सरकार के पहले संसद सत्र का सफल समापन हुआ था। मोदी इसका यश सिर्फ सरकार को ही नहीं, पूरे विपक्ष दे रहे थे! संगच्छध्वम्!
जीओ और जीने दो

संजय सिन्हा, संपादक, आज तक :
मेरे मन में हमेशा से था कि अगर मैं कभी इटली आया तो कोलेजियम जरूर जाऊँगा, जहाँ ईसा पूर्व कई सौ वर्ष पहले बने उस स्टेडियम में जरूर जाऊँगा, जहाँ ग्लैडिएटर्स कहे जाने वाले योद्धा जमींदारों की मौज के लिए मरने को लड़ते थे। मैं इटली के रोम आया तो शहर के बीच मौजूद पवित्र देश वैटिकन की यात्रा पर सबसे पहले पहुँचा, फिर मैं उस कब्रगाह में भी गया, जहाँ पहली और दूसरी सदी में मसीहियों के शवों को दफनाया जाता था। जमीन से कई मंजिल नीचे बने इस कब्रगाह की कहानी बेहद दिलचस्प है, लेकिन अभी मैं आपको अपने साथ लिए चलता हूँ उस स्टेडियम में, जिसमें दरअसल रोम शहर का रोम-रोम बसा है।
मन की बात

दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :
मन की बात करना पारदर्शिता नहीं है। सामने वाले का जवाब देना पारदर्शिता है।
इन बतछुरियों की काट ढूँढिए!

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार :
पाकिस्तान है कि मानता नहीं! मुँह में बात, बगल में छुरी! इधर बात, उधर छुरी! हम बतकही करते हैं, पाकिस्तान बतछुरी करता है! हर बार यही होता है. इस बार भी यही हुआ। वहाँ उफा में बात हुई। यहाँ बधाईबाजों ने महिमा गान शुरू किया। इधर अभी साझा बयान पर इतराने की अँगड़ाई उठी ही थी कि उधर जवाब में सीमा पार से बन्दूकों की आतिशबाजी चल पड़ी। कहीं कोई कोर-कसर बाकी न रह जाये, कहीं बातचीत का 'असली' नतीजा समझने में कोई गलतफहमी न रह जाये, इसलिए उधर से सशरीर कई आतंकवादी तोहफे भी फटाफट भेज दिये गये। पूरे सबूतों के साथ कि वे सारे के सारे पाकिस्तानी ही हैं। लो, कर लो बात!
मीडिया में नही है नियमित और सुकून की नौकरी

संजय कुमार सिंह, संस्थापक, अनुवाद कम्युनिकेशन :
मीडिया में ऐसा नहीं है कि अगर आपने एक स्तरीय मीडिया संस्थान में नौकरी शुरू की, अच्छा काम करते हैं, योग्य हैं तो उसी में रहेंगे, समय के साथ आपको तरक्की मिलती रहेगी और आप संतुष्ट या असंतुष्ट रहकर भी उसी में नौकरी करते हुए रिटायर हो जाएँ। अमूमन ऐसा देखने मे नहीं आता है – कुछेक अपवाद जरूर होंगे।
पोर्न साइट्स का ज्ञान

विकास मिश्रा, आजतक :
तब मेरी उम्र करीब 9-10 साल रही होगी। घर में बड़े भइया की पहली संतान का जन्म हुआ था। बेटा हुआ था और ये खबर मुझे स्कूल में मिली थी। उससे पहले हमें पता तक नहीं था कि भाभी संतान को जन्म देने वाली हैं। घर पहुँचे तो खुशियाँ अपरम्पार।
देश को क्यों बाँट रहा है मीडिया

संजय द्विवेदी, अध्यक्ष, जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय :
काफी समय हुआ पटना में एक आयोजन में माओवाद पर बोलने का प्रसंग था। मैंने अपना वक्तव्य पूरा किया तो प्रश्नों का समय आया। राज्य के बहुत वरिष्ठ नेता, उस समय विधान परिषद के सभापति रहे स्व.श्री ताराकान्त झा भी उस सभा में थे, उन्होंने मुझे जैसे बहुत कम आयु और अनुभव में छोटे व्यक्ति से पूछा “आखिर देश का कौन सा प्रश्न या मुद्दा है जिस पर सभी देशवासी और राजनीतिक दल एक है?” जाहिर तौर पर मेरे पास इस बात का उत्तर नहीं था। आज जब झा साहब इस दुनिया में नहीं हैं, तो याकूब मेमन की फाँसी पर देश को बँटा हुआ देखकर मुझे उनकी बेतरह याद आयी।
याकूब मेमन और एक सवाल!

कमर वहीद नकवी, वरिष्ठ पत्रकार:
याकूब मेमन को तो फाँसी हो चुकी। बहस जारी है और शायद अभी यह बहस जारी रहे। बहुत-सारी बातें हो चुकी हैं। मजहबी रंग की बातें हो चुकी हैं, राष्ट्रवादी जुमलों की तोपें चल चुकी हैं, कानूनी दाँव-पेंच हो चुके हैं। फिर भी बहस अभी जारी है कि याकूब को फाँसी होनी चाहिए थी या नहीं? लोगों के अपने-अपने निष्कर्ष हैं, जिससे वे डिगना नहीं चाहते।