संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
पटना के गांधी मैदान में रावण दहन के बाद भगदड़ मचने से 33 लोगों के मारे जाने की दर्दनाक खबर है। इस खबर से उमड़ी संजय सिन्हा की भावनाएँ…
सारी रात मैं अपने शहर के उस मैदान में गोल-गोल चक्कर लगाता रहा। उसी मैदान में जहाँ कई बार पिताजी की उंगली पकड़ कर मैं रावण को आसमान में उड़ते देखता था। अपने शहर के उसी गांधी मैदान में कल सारी रात मैं ढूँढता रहा कमला चाची को, विमला चाची को, मिथिला भाभी को और उन सबको, जिन्हें न जाने कितने साल पहले मैं छोड़ आया था। अब तक तो आप लोग भी खबर पढ़ ही चुके होंगे कि पटना के गांधी मैदान में दशहरा के पावन मौके पर रावण ने अपने साथ 33 और लोगों को राख बना दिया।
कोई बहुत बड़ी बात नहीं है। रावण कागज और लकड़ी का था, एक प्रतीक था बुराई का जिसे हर साल जलना होता है। वह जल गया।
और उसके साथ उस भगदड़ में जो 33 लोग या उससे ज्यादा लोग और जल गये, वे भी प्रतीक ही थे गरीबी और भुखमरी के। इस तरह तो बुराई के साथ मेरे शहर में कल रात गरीबी और भुखमरी भी जल गयी। वह शहर कभी मेरा था। वह गांधी मैदान भी कभी मेरा था। जल जाने वाली ढेरों महिलाओं में यकीनन मेरी रिश्तेदार रही होंगी, उनके बच्चे भी मेरे कुछ-न-कुछ लगते ही होंगे, सब जल गये। अच्छा हुआ।
जब मैं छोटा था, तब भी मेरे शहर के लोग ऐसे ही जिद्दी हुआ करते थे। जरा-सा कुछ हुआ नहीं कि मैदान में निकल पड़ते थे, भीड़ बन जाते थे, मरने को तत्पर रहा करते थे।
उन्हें अपनी ज़िंदगी से प्यार ही नहीं था। पता नहीं क्यों, हर त्यौहार पर सज-धज कर मेला घूमना उनकी फितरत बन गयी थी। पता नहीं किस शक्ति पर उन्हें इतना भरोसा था कि जब चाहें अपने घर से बाहर निकल कर भी खुद को महफूज मानते थे। जेब में किसी के फूटी कौड़ी भी न होगी, फिर भी सज-धज कर निकल पड़ते थे हर साल। अच्छा हुआ इस बार कम-से-कम 33 भूखे और गरीब लोग रावण की आग में स्वाहा हो गये।
मिथिला भाभी की तो मुझे याद है। जब कभी मैं पटना जाता तो पूछती थी कि भइया दिल्ली में तो बहुत बड़े बड़े रावन होते हैं न? तो क्या आप लोग दशहरा में सबको फटाक-फटाक जला देते हैं? मैं हँसता और कहता कि रावण नहीं जलता भाभी, सिर्फ उसका पुतला जलता है। भाभी हँसतीं। कहतीं, भइया चाहे पुतला जले चाहे सच्ची का रावन, हमरे लिए तो ये बुराई पर अच्छाई की जीत है। हम हर साल बहुत खुस होते हैं, बच्चे भी बहुत खुस होते हैं, हमको लगता है काले मुँह वाला और सफेद चमचमाते दाँत वाला रावन हमरी जिंदगी से अब जल कर बहुत दूर चला गया है।”
मैं मुस्कुराता। कहता कि हाँ भाभी, एक दिन सचमुच काले मुंह और सफेद दांत वाला रावण जल जायेगा और आपका पटना पाटलीपुत्र बन जायेगा।
भाभी उम्मीदों भरी निगाह से मेरी ओर देखतीं। कहतीं, “भइया ई रावन का मुँह में जो दाँत है, ऊ इतना काहे चमकता है? ई तो पहले वाले से जादा चमकता है। लगता है नकली दाँत लगवा लेता है रावन हर साल।”
भाभी के सवाल अजीब अजीब होते थे। कभी वे कहतीं कि एक रावण तो लंका में रहता था, फिर पटना कैसे चला आया? मुझे पता नहीं रावण उनके जेहन में इतना क्यों समाया हुआ था? क्यों वे रावण के विषय में इतना सोचती थीं? सबसे कमाल की बात तो ये थी कि बहुत साल पहले एक बार मैं पटना गया था तो उन्होंने मुझसे पूछा था, “रावन जो मुकुट पहने होता है उसके नीचे देखे हैं, बाल काले हैं कि सफेद? कहीं वो ललाट पर बिना कंघी किये बाल तो नहीं रखता?”
फिर एक बार उन्होंने पूछा था कि रावन छोटी-छोटी दाढ़ी रखता है क्या?
मैं उनके सवालों के जवाब नहीं दे पाता। तो मिथिला भाभी कहतीं, “भइया दिल्ली में हो, पत्रकार हो, तुम तो न जाने कितने रावनों को जानते होगे। तो क्या अपने सहर के रावनों के बारे में हमको नहीं बताओगे? यहीं पैदा हुए हो। यहाँ के रावन लोगों के बारे में हमको बताया करो।”
मैं चुप रह जाता। लेकिन मेरे चुप रहने से उनके सवाल खत्म नहीं होते।
इधर कई दिनों से पटना नहीं गया तो फोन कर पूछ रही थीं कि भइया पिछली बार एक रावन कुर्सी से कूद कर उतर गया और दूसरा चमचम दाँत वाला को प्रतीक बना कर बैठा दिया, तो क्या भइया ये सच है कि रावन के दस मुँह थे? कभी ये मुँह, कभी वो मुँह?
मैं उनका इशारा समझ रहा था, लेकिन मैं राजनीति पर नहीं लिखता। मैं क्या कहता? चुप रहा। कई बार खीझा भी कि ये गरीब लोग, जिनके पास खाने को दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं, वो इतना रावण-रावण क्यों करते हैं? पता नहीं हर साल क्यों उन्हें लगता कि इस बार असली रावण जल जायेगा?
मूर्ख लोग।
कल उस भगदड़ में सुना कि मिथिला भाभी भी रावन के साथ जल गयीं। अब कोई फोन नहीं आयेगा। अब कोई सवाल नहीं होगा। मुझे आज लिखने में इसीलिए देर हुई क्योंकि मैं नींद में पटना जा कर उस मैदान में भाभी को तलाश रहा था। जाँच रहा था कि पक्का जल गयीं न!
अब ललाट पर बाल वाले, छोटी-छोटी दाढ़ी वाले, चमचम दाँत वाले रावण हों या बड़ी-बड़ी मूँछों वाले रावण। मुझे क्या लेना?
कागज के रावण और हाड़-मांस की मिथिला भाभी के साथ कल रात पटना में सारी बुराइयाँ जल गयीं।
(देश मंथन, 4 अक्टूबर 2014)