दीपक शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार :
क्या देश है? महज 36 घंटों में कर्बला के मातम से निकल कर सिनेमा की मस्ती में खो गया? महज 36 घंटों में पेशावर से पीके पहुँच गया। मै अभी पेशावर के नन्हे-मुन्नों पर तीसरी पोस्ट लिख ही रहा था कि भाई साहब का फोन आ गया।
“दीपक जी, क्या कर रहे हो?”
“यार पोस्ट डाल रहा हूँ, 5 मिनट में कॉल करता हूँ।”
“अरे पोस्ट को मारो गोली, बॉस.. पीके देखी?”
“क्या..?”
“बॉस कैसे खोजी पत्रकार हो… आपके बगल में आमिर खान स्पेशल स्क्रीनिंग कर रहा है… आपको हॉल में होना चाहिए… आप साले को एफबी पर ऐसी-तैसी कर रहे हो..”
एक रात पहले भी इन भाई साहब का एक और फोन आया था।
“दीपक भाई, यार क्या लिखा है!”
“मतलब?”
“बॉस, कविता गब है… रोना आ गया… बाई गॉड हिल गया हूँ… साले क्या लोग हैं.. यार.. चार-चार साल के बच्चे मार दिये… बाई गॉड… दीपक भाई… हरामजदगी की हद है… सालों को ठोको… ठोको…”
“तुमने कर्बला वाली पोस्ट पढ़ी?”
“पढ़ी न… अच्छा लिखा… ठोको सालों को”
“चलो… ओके। यार आज ज्यादा लगा ली है… चल सुबह बात करते हैं।”
घटना चक्र के साथ आपका आगे बढ़ते रहना गलत नही है। टैक्सी में रेप, तो रात भर रेप और टैक्सी पर चर्चा। आगरा में धर्म परिवर्तन तो उसी पर अगले दिन बात। सिडनी के कैफे पर हमला तो सब के सब एक रात के लिए सिडनी रवाना।
घटना चक्र के साथ आगे बढ़ना स्वाभाविक है। लेकिन मित्रों, कुछ घटनाओं पर हमें ठहरना होगा। रुक कर सवाल करने होंगे। किसी जवाब तक पहुँचना होगा।
पीके देखिये… जरूर देखिये… लेकिन कुछ दिन पेशावर पर रूकिये… हल्ला बोलिए… शोर मचाइये… सड़क पर निकलिये। वरना अगला निशाना आपके बच्चे का स्कूल भी हो सकता है।
इसलिए घटना चक्र ना बनिए… कुछ घटनाओं को आगे होने से रोकिये भी।
(देश मंथन, 20 दिसंबर 2014)