पेशावर की परतों के भीतर

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क़मर वहीद नक़वी :

पेशावर के गम, ग़ुस्से और मातम में सारी दुनिया शरीक हुयी, कुछ को छोड़ कर! तालिबान के इस क्रूरतम चेहरे पर सारी दुनिया ने लानत-मलामत की, लेकिन कुछ बिल्कुल भी नहीं बोले, ये कुछ कौन हैं? जो चुप रहे, जिन्होंने रस्मी मातमपुर्सी के लिए भी कुछ बोलने की जहमत गवारा नहीं की।

 यही वह सवाल है, जिसके जवाब में बहुत कुछ छिपा है और यह जवाब बताता है कि पेशावर महज एक हादसा नहीं है, जो बस हो गया! बल्कि यह आधुनिक इतिहास का एक बेहद नाजुक, संगीन और खतरनाक मोड़ है! सवाल यह है कि क्या दुनिया उस खतरे को ठीक-ठीक देख पा रही है, जिसके संकेत पेशावर से उठने वाले बारूदी धुओं से मिल रहे हैं?

पेशावर के संकेत क्या हैं?
पेशावर को ऊपर-ऊपर से देखना बड़ी भूल होगी। उसकी परतों के भीतर देखिये, ऊपर से क्या दिखता है? पाकिस्तानी सेना के आपरेशन जर्ब-ए-अज़्ब की क्रूरता से बौखलाये तालिबानियों ने बदला चुकाने के लिए सैनिक स्कूल के बच्चों को निशाना बना डाला।

हाँ, वजह तो यही है और घटना भी यही है, लेकिन इसके आगे भी बहुत कुछ है। इसलिए शार्ट कट व्याख्याएँ यकीनन गलत मुकामों तक पहुँचायेंगी! गलत मुकाम क्या? यही कि यह मान लेना कि पेशावर पाकिस्तान की एक स्थानीय घटना है और पाकिस्तान ने आतंकवाद के जिन साँपों को अपने पड़ोसियों के लिए पाला था, उन्होंने ही आख़िर उसे बुरी तरह डस लिया। (जैसा कि तीन साल पहले अमेरिकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने उसे चेताया था और आज क्लिंटन की भविष्यवाणी सच हुयी!)

और यही कि यह मान लेना कि इतने बड़े हादसे के बाद अब पाकिस्तानी समाज, मीडिया, सरकार, राजनीतिक दल और सेना में जगार होगी और आतंकवाद के जहर को अपने जिस्म में फैलने देने से रोकने के लिए वह कुछ कारगर कदम उठाने पर मजबूर होंगे!

हमला इस्लाम-विरुद्ध नहीं: तालिबान
सारी बहस आज ऊपर के दो सवालों पर ही हो रही है, लेकिन छोटा मुँह, बड़ी बात और गुस्ताखी माफ कीजियेगा हुज़ूर, यह दोनों सवाल बहस के काबिल ही नहीं हैं, क्योंकि पेशावर सिर्फ़ एक दिल दहला देनेवाला हादसा नहीं है, जिसकी धमक सिर्फ पाकिस्तान की सरहदों तक सिमटी रहे। उसके संकेत और संदेश पूरी दुनिया के लिए बहुत भयावह हैं! कैसे?

शायद इन बातों की तरफ या तो लोगों का ध्यान नहीं गया या लोग उसके अर्थ समझ नहीं पाये! पेशावर हादसे को अफ़ग़ानी तालिबानियों तक ने जब ‘इस्लाम-विरुद्ध’ करार दिया, तो लगा कि पाकिस्तानी तालिबानियों को शायद अब शर्मिन्दगी का एहसास हो कि कहीं न कहीं उनसे भारी गलती हो गयी है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

शाम होते-होते उन्होंने ‘गर्व’ से सैनिक स्कूल पर हमला करने वाले आतंकवादियों की तस्वीरें जारी कर दीं, जो हमले के ठीक पहले खींची गयी थीं और फिर तालिबान प्रवक्ता ख़ालिद ख़ुरासानी का यह कथित बयान आया कि पेशावर की कार्रवाई सुन्नत-ए-नबवी के मुताबिक थी और बनू क़ुरैजा के ख़िलाफ़ युद्ध में ख़ुद पैग़म्बर मुहम्मद ने जो निर्देश दिये थे, उसकी रोशनी में ‘बच्चों और औरतों का क़त्ल रसूल पाक की तालीम के मुताबिक़ है, एतराज़ करने वाले “सही बुख़ारी” जिल्द पाँच, हदीस 148 देख लें।

यह किस इस्लाम का सपना है?
और अब चलिये उस सवाल पर जो मैंने बिल्कुल शुरू में उठाया था। वह कौन हैं जो मासूम बच्चों और औरतों के इस कत्ल-ए-आम पर कुछ नहीं बोले? कोई प्रतिक्रिया नहीं? बिल्कुल चुप रहे? अरब देशों से कोई प्रतिक्रिया आपको देखने को मिली? दो दिन तक चुप्पी छायी रही।

हालाँकि शुक्रवार को जरूर एक छोटी-सी ख़बर आयी कि सऊदी सरकार की ओर से किंग अब्दुल्ला ने तालिबानी हमले की तीखी निन्दा की है! लेकिन दो दिन बाद! कुछ अजीब नहीं लगता आपको?

बस यहीं सवाल का जवाब है। पेशावर का हमला कहीं न कहीं उस पुनरोत्थानवादी और मध्ययुगीन ‘इस्लामी ख़िलाफ़त’ के सपने से जाकर जुड़ता है, जिसे चरमपंथी इस्लाम का एक धड़ा हवा दे रहा है। इधर पेशावर में तालिबान इंसानियत को शर्मसार कर देने वाली हैवानियत का नंगा नाच दिखाते हैं।
उधर, लगभग उसी समय आईएस का अबू अनस अल लिबी डेढ़ सौ ‘विधर्मी’ महिलाओं को मौत के घाट उतार देता, क्योंकि वह ‘सेक्स ग़ुलाम’ बनने को तैयार नहीं हुयीं। तालिबान पेशावर हमले को ‘इस्लामी उसूलों’ के मुताबिक बताते हैं तो आईएस के लोग ‘विधर्मी’ औरतों को सेक्स ग़ुलाम बनाने को पूरी तरह ‘इस्लामिक’ बताते हैं!

उधर बोको हराम भी इसलामी जिहाद के नाम पर अब तक पाँच हज़ार से ज़्यादा लोगों की हत्याएँ कर चुका है। आज की आधुनिक और वैज्ञानिक दुनिया में यह किस इस्लाम की बात की जा रही है, जो हर तरह के वैज्ञानिक विचारों का, हर तरह के समाजिक सुधारों का, लोकतंत्र का, उदार सह-अस्तित्व का, समानता का और विकास का विरोधी है? यह किस इस्लाम का सपना है जिसे सारी आधुनिक तकनीकी तो चाहिए, लेकिन समाज और राज्य व्यवस्था डेढ़ हज़ार साल पहले की चाहिए?

तथाकथित जिहाद की बढ़ती आँच
और सिर्फ पेशावर, इराक़, सीरिया, नाइजीरिया ही क्यों. खतरा तो बढ़ता जा रहा है। सिडनी के लिंट कैफे से लेकर बर्दवान के आतंकवादी माड्यूल और बेंगलुरु के मेंहदी मसरूर बिस्वास तक, तथाकथित इस्लामी जिहाद की आँच अब दुनिया भर को झुलसाने और तपाने लगी है।

यह सही है कि चरमपंथी इस्लामी तत्वों को पूरी दुनिया भर में पैदा करने, बढ़ाने, पालने-पोसने में अगर सबसे ज़्यादा बड़ी भूमिका किसी की है तो वह अमेरिका की है, जिसे दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अपनी राजनीतिक जरूरतों के लिए तब ऐसा करना फ़ायदेमंद दिख रहा था।

लेकिन जिस तेजी से इसने अपने पँख फैलाये हैं, वह वाकई चिंता की बात है। इसलिए अब और देर करने का वक़्त रह नहीं गया है। दुनिया को अब एक नये राजनीतिक ‘एलाइनमेंट’ की जरूरत है, ‘जिहाद विरोधी’ एलाइनमेंट की और इस पर अगर दुनिया फिर से दो धड़ों में बँटती हो तो बँटे।

और भारत के लिए तो फूँक-फूँक कर कदम रखने की जरूरत है। खास तौर पर तीन बातें तो बेहद जरूरी हैं, एक तो यह कि देश के मुसलमान युवा किसी बहकावे में न फँसे और दूसरी यह कि इस मुद्दे पर किसी किस्म की राजनीति न की जाये, न मु्स्लिम वोट बैंक की और न हिंदू वोट बैंक की और तीसरी यह कि सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने वाली साज़िशों के ख़िलाफ़ कठोर रवैया अपनाया जाये।

देश के मुस्लिम उलेमाओं को, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और तमाम दूसरे संगठनों को इस बारे में खुल कर बोलना और आगे आना चाहिए कि तथाकथित जिहाद की जिस चरमपंथी अवधारणा को इस्लामी कह कर बेचा जा रहा है, उसकी इस्लाम में कोई जगह नहीं है।

इस मुद्दे पर संवाद की निरंतरता बनाये रखने के लिए केन्द्र और राज्यों की सरकारों को भी पहल करनी चाहिए, दूसरी बात यह कि भारतीय मुसलमान भले ही विकास की दौड़ में काफ़ी पीछे रह गये हों और उतनी आर्थिक प्रगति न कर पाये हों, फिर भी इतने बरसों तक एक आधुनिक और उदार लोकतंत्र में रहने के बाद वह जानते हैं कि किसी लोकतंत्र में रहने का मतलब क्या होता है!

और धर्म चाहे कोई भी हो, धर्म पर आधारित राज्य की कोई भी अवधारणा मूल रूप से लोकतंत्र विरोधी होती है, वह मूल रूप से अल्पसंख्यक विरोधी होती है, वह मूल रूप से महिला विरोधी और पुरुष सत्तात्मक होती है, वह पुनरोत्थानवादी, अनुदार, कट्टर होती है और वहाँ किसी विचार-वैभिन्नय की कोई गुँजाइश नहीं होती और अंततः वह कुछ धार्मिक मठाधीशों व भ्रष्ट राजनेताओं के शोषक गँठजोड़ में बदल जाती है।

पाकिस्तान इसका जीता-जागता उदाहरण है। ज़ुल्फिकर अली भुट्टो ने अपनी डगमग सत्ता बचाये रखने के लिए धार्मिक नेताओं के हाथ-पैर दबाने शुरू किये और बाद में सैनिक तानाशाह जनरल ज़िया-उल-हक ने पूरी तरह कट्टरपंथियों से हाथ मिला लिया।

नतीजा आज सामने है। इस्लामी जिहादी तत्व आज पाकिस्तान पर पूरी तरह हावी हैं। सरकार कोई भी हो, पर्दे के पीछे से जिहादी ही उसे नियंत्रित करते हैं। चरमपंथी इस्लाम और शरीअत के दुराग्रहों के चलते पाकिस्तान और अफगानिस्तान की क्या दुर्गति हो चुकी है, यह सबके सामने है!

इसलिए भारत में लोगों को इसे समझना चाहिए। न यहाँ किसी को जिहाद की ज़रूरत है और न हिंदू राष्ट्र की। बुनियादी तौर पर दोनों का चरित्र एक ही है, बस लेबल बदल जाता है।

(देश मंथन, 22 दिसंबर, 2014)

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