विकास मिश्रा, आजतक :
तब मेरी उम्र करीब 9-10 साल रही होगी। घर में बड़े भइया की पहली संतान का जन्म हुआ था। बेटा हुआ था और ये खबर मुझे स्कूल में मिली थी। उससे पहले हमें पता तक नहीं था कि भाभी संतान को जन्म देने वाली हैं। घर पहुँचे तो खुशियाँ अपरम्पार।
दो-तीन दिन बाद स्कूल जाते वक्त, गाँव के लड़कों ने नया सवाल छेड़ा- आखिर बाबू कैसे पैदा हुआ। मैंने घर पहुँचकर माँ से पूछा- अम्मा ये बाबू कैसे पैदा हुआ। माँ ठिठकी, फिर बताया कि भइया ने तुम्हारी भाभी के कान में कहा कि मुझे बाबू चाहिए। फिर भगवान जी ने बाबू को भेज दिया। माँ की बात अगले दिन स्कूल से लौटते वक्त साथ के उन बच्चों के बीच बाँटी, जिनके बीच ये सवाल उठा था। माँ की थ्योरी सुनकर साथ के बच्चे (इनमें से सभी उम्र में मुझसे बड़े थे और क्लास वही थी) हँसने लगे। साथियों में उम्र में सबसे बड़ा और बदमाश था तुलसिया। उसने सृष्टि रचना का पूरा शास्त्र उड़ेल दिया। सुनकर मैं रोने लगा। गाली को जहाँ गन्दी बात कहा जाता हो, हम सब के सामने जहाँ कोई मुँह से गाली न निकाल सकता हो, उस माहौल में अचानक तुलसिया का ये बयान। घर पहुँचा तो रोते हुए बताया कि तुलसिया ने बाबू के पैदा होने पर गन्दी बात की है। हमारे सीरवार काका (जायदाद के मैनेजर) भी सुन रहे थे। उन्होंने तुलसिया को बुलाकर दो लाठी उसकी पीठ पर जमायी, लेकिन सवाल अब ये था कि कौन सच बोल रहा था। सीरवार काका ने रात में नई थ्योरी बतायी। उन्होंने कहा कि जो बड़े आदमी होते हैं, उनके घर बच्चे, उस तरह होते हैं, जैसा कि माँ ने बताया है और नान्ह (निम्नवर्गीय, निम्नजातीय) होते हैं, उनके बच्चे वैसे पैदा होते हैं, जैसा तुलसिया ने बताया। सीरवार काका बिल्कुल कांग्रेसी नीति पर चले। माँ की बात का आदर भी रख लिया और सच्चाई को थोड़ा डायवर्ट कर दिया।
उम्र बढ़ी, जानकारी बढ़ी, आठवीं की विज्ञान की किताब में आखिरी पाठ पढ़ा, सच्चाई पता हो गयी। गाँव के किशोर लड़कों के बीच सबसे ज्यादा और दिलचस्प चर्चा होती थी स्त्री-पुरुष रिश्तों की। झूठ और कल्पनाओं का पुलिंदा होता था। सबसे ज्यादा खबर ये होती थी कि फलनिया फलनवा से ‘फंसी’ है। प्रेम-मुहब्बत या फिर नाजायज रिश्तों में ‘फंसाना’ शब्द ही प्रचलन में था।
इंटरमीडिएट में वाराणसी पढ़ने आया तो गाँव छूट गया, शहर की आबोहवा, नया माहौल, नयी जिन्दगी की तरह सब कुछ बदल गया। लेकिन 11वीं पार होते-होते एक दोस्त के जरिए मस्तराम की रचना भी हाथ लग गयी। हमारे दौर का शायद ही कोई नौजवान बचा हो, जिसने मस्तराम का सरस साहित्य न पढ़ा हो, तो उसकी चर्चा यहीं पर छोड़ते हैं।
ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए इलाहाबाद पहुँचा। बीए- पार्ट वन की परीक्षा खत्म हुई थी, दोस्तों ने वीसीआर का जुगाड़ किया। दो हिन्दी फिल्मों के अलावा तीसरी फिल्म भी थी, जिसका इंतजार सबको था, मुझे भी। बहुत सुन रखा था। 18 साल की उम्र थी, पहली बार नीला सिनेमा आँखों से गुजरा..। हाँ एक बात और मेरे घर पर एक मेहमान आये थे, नाम नहीं खोलूँगा क्योंकि वो अब बाल बच्चेदार हैं, उनके बेटे तक मेरी फ्रेंड लिस्ट में हैं। खैर, मैंने उन्हें बताया कि एक्जाम खत्म होने पर दोस्तों ने सिनेमा का कार्यक्रम रखा है। वो बोले-तो क्या मैं नहीं चल सकता। मैंने कहा- नहीं, क्योंकि वहाँ ब्लू फिल्म देखने का प्रोग्राम है, आप चूँकि हमसे बड़े हैं, लिहाजा आपके सामने किसी की हिम्मत नहीं होगी कि वो फिल्म चलाए। उन भाई साहब ने ये बात मेरे पिताजी को बता दी कि विकास गन्दी अंग्रेजी फिल्म देखते हैं।
गाँव गया तो बाबूजी ने एक दिन पूछ लिया-तुम अंग्रेजी फिल्में देखते हो। मैंने कहा- नहीं, गलत कहा है किसी ने। वो बोले, झूठ बोल रहे हो, गन्दी अंग्रेजी फिल्में नहीं देखते। मैं ठिठका, बोला- हाँ, देखता नहीं हूँ, एक बार देखी है, उसे अंग्रेजी फिल्म नहीं, ब्लू फिल्म कहते हैं। बाबूजी को उम्मीद नहीं थी कि मैं इतनी बेबाकी से कबूल कर लूँगा। तड़ककर बोले- तुम्हें किसी का डर नहीं है, जो बेहयायी से ये बात कह रहे हो। मैंने कहा- बाबूजी, सच बोलने से क्यों डरूँ, दोस्त साल भर से चर्चा करते थे कि ब्लू फिल्में ऐसी होती हैं, वैसी होती हैं, इंसान देखकर खुद पर काबू नहीं रह सकता। मुझे भी उत्सुकता हुई, मैंने देख लिया। उसके बाद न तो देखने की इच्छा है और न ही देखूँगा।
वो अलग दौर था। आज इंटरनेट का दौर है। जो माँगो पल भर में हाजिर। वक्त भी बदल गया है, बड़ों और बच्चों के बीच दूरियाँ भी कम हो चुकी हैं। मैंने शुरू में बताया कि मेरी भाभी को जब बेटा हुआ, तो हमें उस दिन पता चला, जिस दिन बच्चा हुआ। न तो कभी उनके पेट पर ध्यान गया था, न ही किसी ने हमें बताया था। तब परदेदारी बहुत थी। अब तो तीन साल के बच्चों को पता होता है कि उसकी मम्मी, चाची, आँटी, मामी प्रेगनेंट हैं। खूब बातें होती हैं, इस खुलेपन का मैं विरोधी नहीं हूँ। मैं नयी पीढ़ी से थोड़ा सतर्क हूँ। जानता हूँ कि जिसकी उम्र डबल डिजिट में पहुँच चुकी है, उसे स्त्री-पुरुष के रिश्तों का सारा शास्त्रीय ज्ञान है। खौफ है कि इस ज्ञान का प्रैक्टिकल करने में वो कितना धीरज रखता है और कितना इंतजार करता है। जिस तरह मछली को तैरने के लिए, पँछी को उड़ने के लिए, चौपाए को चलने की जानकारी के लिए किसी कोचिंग इंस्टीट्यूट की जरूरत नहीं है, वैसे ही स्त्री-पुरुष के कुदरती रिश्तों की समझ के लिए भी ट्यूशन की जरूरत नहीं। डर तो सिर्फ वक्त से पहले किसी अनहोनी घटना का है।
मैं कोई ज्ञान नहीं दूँगा, अपनी कहानी कह कर मैं ये फैसला आप पर छोड़ता हूँ कि पोर्न साइट्स बन्द होनी चाहिए या नहीं। हाँ, जो अभिभावक हैं उनसे जरूर कहना चाहूँगा कि बच्चे को पढ़ने के लिए अच्छी किताबें, रहने के लिए अच्छा माहौल और सवाल पूछने के लिए पूरी आजादी दीजिए। जिन सवालों के जवाब आप नहीं देंगे, जिन सवालों को सुनकर आप बच्चे को डाँट देंगे, उन सवालों का शास्त्रीय और व्यावहारिक जवाब देने के लिए बाहर तो पूरी दुनिया तैयार है।
(इस संवेदनशील विषय पर लिखने में बहुत सावधानी बरती है, फिर भी कुछ रह गया हो तो क्षमा प्रार्थना सहित।)
(देश मंथन, 05 अगस्त 2015)