मृत्यु महासत्य है

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संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :

अपने ‘पिता’ की अस्थियों को विसर्जित करने के लिए कल मैं गढ़ मुक्तेश्वर के पास ब्रज घाट गया। दिल्ली में गंगा नहीं, जमुना है। पर हमारे यहाँ मान्यता है कि मरने वाले को मुक्ति ही तब मिलती है, जब उसकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाती हैं। 

जाहिर है, मैं गंगा तक गया। ‘पिता’ की अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित कीं। 

मन में शोक था। 

बीच गंगा में जब अस्थियां प्रवाहित करके मैं किनारे आया, तो एक जगह बहुत भीड़ दिखी। पूछने पर पता चला कि दो लड़के गंगा में डूब गये हैं। आस-पास नाव चलाने वाले गहरे पानी में गोता लगा कर उन्हें निकालने की कोशिश कर रहे थे। मैं वहीं खड़ा रहा। बहुत मुश्किल से एक लड़के को निकाला गया। 

मेरे सामने 20-22 साल के युवक का पार्थिव शरीर पड़ा था। हट्टा-कट्टा, कसरती बदन। शरीर पर स्विमिंग के कपड़े। 

वहाँ के पंडे-पुजारियों ने बताया कि घाट पर बाँस के बेरिकेड्स लगे हैं। लोगों से अनुरोध किया जाता है कि उसे पार करके आगे न जाएँ, क्योंकि आगे पानी गहरा है। पर बहुत से लोग बड़े-बड़े शहरों से गाड़ियों में आते हैं और बाँस के उस प्रतिबंध का उनके लिए कोई मायने नहीं होता। वो प्रतिबंध की उस सीमा को पार कर गहरे पानी में उतर कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। यहीं चूक हो जाती है और जिन्दगी मृत्यु में तब्दील हो जाती है।

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असल में हमारे पूरे लालन-पालन में हमें जिन्दगी के हौसलों को सिखाया जाता है, पर हमें मृत्यु रूपी सच से दूर रखा जाता है। मुझे लगता है कि आदमी बहुत सी गलतियाँ सिर्फ इस वजह से करता है क्योंकि मृत्यु रूपी ‘महासत्य’ का पाठ उसे पढ़ाया नहीं जाता। ये आधुनिक शिक्षा का सबसे बड़ा कसूर है। 

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पाकिस्तान के राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो को फाँसी की सजा हो चुकी थी। भुट्टो के विषय में मुझे आपको कुछ बताने की दरकार नहीं। आप जानते हैं कि पाकिस्तान का ये प्रशासक अपने जमाने में खौफ का एक पर्याय था। पर भुट्टो को पकड़ कर जेल में बंद किया जा चुका था और फाँसी देने की तैयारी हो रही थी। 

4 अप्रैल 1979 को रावलपिंडी जेल में जब भुट्टो को फाँसी दी जानी थी, ऐसा कहा जाता है कि तब भुट्टो चल कर फाँसी के फंदे तक आने की स्थिति में नहीं थे। जिस जल्लाद ने उन्हें फाँसी दी थी, उसके हवाले से ऐसी खबरें सामने आयी थीं कि भुट्टो अपने सेल से चल कर फाँसी के तख्ते तक आने में थरथर काँप रहे थे। उनकी हिम्मत टूट गयी थी और मृत्यु के नाम से वो बहुत खौफजदा थे। 

भुट्टो को किसी तरह फाँसी के तख्ते तक लाया गया और जब उन्हें फाँसी दी जाने वाली थी, तो उसमें कुछ पल का विलंब हुआ। भुट्टों बहुत काँपती आवाज में जल्लाद के कानों में बुदबुदाए, “जल्दी करो।”

जब मैं ये लेख पढ़ रहा था, तब मेरी उम्र बहुत कम थी। पर मैं हैरान था इस बात से कि कई लोगों की मौत का गुनाह अपने सिर लेने वाले भुट्टो को खुद मरने से इतना खौफ क्यों था? तब मुझे लगता था कि 51 साल का आदमी तो बहुत बड़ा होता है, उसे मरने से क्यों डरना चाहिए? पर भुट्टो मृत्यु से डर रहे थे। 

कमाल था। 

न जाने कितने लोगों को पूरी मर्दानगी के साथ काल के गाल में फेंक देने वाला शासक यमराज के भय से थरथर काँप रहा था। 

यही होता है, जब हम मृत्यु को जीवन के साथ जोड़ कर उसका पाठ नहीं पढ़ते। यही होता है, जब हम मृत्यु को अंत मान कर एक अधूरी जिन्दगी जीते हैं। यही होता है, जब हम धर्म ग्रंथों को अंधविश्वास और अवैज्ञानिक मान बैठते हैं। और यही होता है, जब हम भयवश मृत्यु के रहस्य को समझने की कोशिश नहीं करते हैं। यही होता है, जब हम प्रकृति के नियमों का उल्लघंन करते हैं। यही होता है, जह हम खुद को सर्व शक्तिमान समझने की भूल करते हैं।

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मैं गंगा के तट पर गया था अस्थि विसर्जन करने। मेरे सामने एक नौजवान का शव पड़ा था। 

उस नौजवान ने गंगा तट पर बंधे बाँस के उन बंधनों के पार खुद को ले जाने को अपना हौसला माना। मुमकिन है वो पहले भी ऐसा कर चुका हो और नहीं डूबा हो। पर जो सत्य था, वो मेरे सामने था। हम बहुत बार गलतियाँ करके बच जाते हैं, तो सोचने लगते हैं कि मृत्यु का देवता मन का कमजोर भाव है, और कुछ नहीं। यहीं चूक हो जाती है। 

भुट्टो ने जब कई लोगों को मारा होगा, तो उन्हें खुद के सबसे शक्तिशाली होने का गुमान रहा होगा। उन्हें मृत्यु तब पीड़ा नहीं लगी होगी। पर जब उसी मृत्यु ने उनकी जिन्दगी में दस्तक दी, तो उनके कदम लड़खड़ाने लगे। उनकी मर्दानगी धोखा देने लगी। वो काँपने लगे। 

हमारे धर्म में ऐसी हजारों कहानियाँ है, जहाँ महात्माओं ने पूरी जिन्दगी शांति और खुशी से जी और समय पर मृत्यु का वरण किया। 

मैं पता नहीं अपनी बात आप तक ठीक से कलमबद्ध कर पा रहा हूँ या नहीं, पर मैं कहना यही चाहता हूँ कि मृत्यु को भय रहित हो कर वरण करने की विद्या जो सीख जाता है, वही जिन्दगी को असल में जी पाता है। 

और यह विद्या वही सीख सकता है, जो प्रकृति के सत्य को समझ पाता है। जो उसकी अवहेलना नहीं करता। जो दूसरों को मृत्यु का खौफ नहीं बाँटता। जो जानता है कि हम सब इस संसार में अपने कर्मों के जरिए अपने बहुत से जन्मों के पाप धोने के लिए आये हैं। जो ये समझता है कि इह लोक के परे भी कई लोक हैं। जो इतनी बातें समझता है, वो ढेरों गलतियाँ करने से खुद को रोकता है। वो गंगा के तट पर बाँस की बनी सीमा रेखा को नहीं पार करता। जो यह समझता है, वो अपनी शक्ति के गुरूर में ऐसी कोई भूल नहीं करता, जिससे मौत उसकी जिन्दगी के कदमों में कंपन पैदा कर सके। 

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याद कीजिए, जब बचपन में हम कोई गलती करते थे तब अपने बड़ों के आगे जाते हुए डरते थे, काँपते थे। बिल्कुल वैसे ही, जब हम गलतियाँ नहीं करते, तो हमें परम पिता के पास जाने में भी भय का बोध नहीं होता है। पर क्योंकि हम जानते हैं कि हमने गलतियाँ की हैं, इसलिए हम भयभीत होते हैं। 

खुद को भय रहित करने का सबसे आसान तरीका आपको बता रहा हूँ कि गलतियों से दूर हो जाइए। 

मृत्यु महासत्य है। इस सत्य को जितनी जल्दी आत्मसात करेंगे, हम जिन्दगी रूपी पानी में उतरने की अपनी सीमाओं को पहचान लेंगे। 

जिस दिन हमारे स्कूली पाठ्यक्रमों में ‘बा बा ब्लैकशीप’ कविता के साथ-साथ जीवन और मृत्यु का पाठ भी पढ़ाया जाने लगेगा, संसार बदल जाएगा। 

जिस दिन हमारे सामने हमारे कर्मों की वजह से मिलने वाले फल का लिटमस टेस्ट हमारे सामने रख दिया जाएगा, उस दिन आदमी गलतियाँ करने से परहेज करने लगेगा। और यह जितनी जल्दी हो, उतना अच्छा है। 

जिन्दगी कैसे जी, इसकी अहमियत रत्ती भर नहीं। अहमियत तो सिर्फ इस बात की होती है कि आखिरी सफर पर आपके कदम लड़खड़ा रहे थे या आप शान से चल कर गये।

(देश मंथन, 03 मई 2016)

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