संजय सिन्हा, संपादक, आजतक :
अगर मैं जेपी आंदोलन, इमरजंसी, इन्दिरा गाँधी, दीदी, विमला दीदी को इतनी शिद्दत से लगातार याद करता हूँ, तो मुझे याद करना होगा 1984 की उस तारीख को जिस दिन इन्दिरा गाँधी की हत्या हुई थी। मुझे याद करना होगा उस ‘जनसत्ता’ अखबार को जहां मेरी किस्मत के फूल खिलने जा रहे थे। और मुझे याद करना होगा प्रभाष जोशी को, जिनसे ‘जनसत्ता’ में रहते हुए चाहे संपादक और उप संपादक के पद वाली जितनी दूरी रही हो, लेकिन अखबार छूटते ही हमने दिल खोल कर बातें कीं।
खास तौर पर जब प्रभाष जोशी टेलीविजन चैनल के हमारे दफ्तर में बतौर गेस्ट आने लगे तो, हमने घंटों बातें कीं। उस बातचीत में उन्होंने कई दफा कहा भी “संजय, जनसत्ता में रहते हुए मैं कभी सोच भी नहीं सका कि तुम इतनी बातें कर लेते हो।”
अपने दफ्तर के गेस्ट रूम में बैठ कर मैंने भी उनसे कहा कि भाई साहब जनसत्ता में नौकरी करते हुए मैं भी खुद को आपके करीब नहीं पाता था। कम से कम दो मौके तो ऐसे थे, जब मुझे आपका स्टैंड पसन्द नहीं आया था।
प्रभाष जोशी मेरा मुँह देख रहे थे। मैंने कहा, “1989 में बछावत वेज बोर्ड लागू करने के मामले में इंडियन एक्सप्रेस में हुई हड़ताल में आपने गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में हम सबको बिठा कर हड़ताल तोड़ने की बात की थी, जो पत्रकार विरोधी थी। बेशक तब मैं बहुत छोटा था, और आपसे बहुत दूरी पर बैठा था, लेकिन आपके मुँह से ऐसा सुन कर मुझे तकलीफ हुई थी। हालाँकि कुछ पत्रकार हड़ताल तोड़ने में आपका साथ दे रहे थे और हड़ताल खत्म होने के बाद, वो आपके बहुत करीब भी हुए, लेकिन मैं जनसत्ता में आया ही आपके नाम को पढ़ कर था।”
“दूसरी बात?”
“अपने दफ्तर के एक उप संपादक श्री भगवान सुजानपुरिया के अचानक निधन के बाद हुई शोक सभा में आपने उनकी निन्दा की थी। कम से कम शोक सभा में तो उनकी निन्दा नहीं की जानी चाहिए थी।”
प्रभाष जोशी मेरा मुँह देख रहे थे। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि मैं इतनी स्पष्ट राय उनके सामने रखूँगा।
जनसत्ता में जैसा माहौल था, उसमें कॉर्पोरेट कल्चर कम, भाई साहबवाद ज्यादा था। प्रभाष जोशी, बनवारी और तमाम लोग अपने को सर की जगह भाई साहब कहलवाना पसन्द करते थे। अंग्रेजी वाले अपने संपादक अरूण शौरी को अरूण बुलाते थे, हम भाई साहब।
शुरू-शुरू में मुझे भाई साहब शब्द अटपटा लगता था, क्योंकि हमारे घर में बड़े भाई को भईया कहते थे और दीदी के पति को भाई साहब बुलाते थे।
खैर, अभी दीदी और भाई साहब को याद करने बैठ गया, तो नयी कहानी शुरू हो जाएगी। अभी तो प्रभाष जोशी पर सिमटता हूं।
ये सच है कि इन्दिरा गाँधी की हत्या के बाद जनसत्ता में छपने वाली तमाम खबरों ने मुझे उकसाया कि जनसत्ता में नौकरी करनी चाहिए। बिना तस्वीर देखे प्रभाष जोशी, बनवारी, जवाहरलाल कौल, आलोक तोमर की छवि आँखों में बन गयी थी। तब मुझे लगता था कि अखबार में काम करने वाले लोग बहुत पढ़े-लिखे और काबिल होते हैं।
उन दिनों मैं भोपाल में था और मुझे एक आदमी लगातार उकसा रहा था कि मुझे पत्रकारिता में ही जाना चाहिए। ये तय हो चुका था कि मैं सरकारी नौकरी नहीं करूँगा, लेकिन पत्रकारिता में क्या करूँगा ये तय नहीं था। हालाँकि मैं अखबारों में संपादक के नाम पत्र लिखने लगा था, खूब छपने भी लगे थे। उनकी कतरनें संभाल कर रखता था और कई दफा अकेले में उन्हें पढ़-पढ़ कर खुश हुआ करता था।
भोपाल में मैं रूसी अध्य्यन संस्थान चलाने वाले एक दंपति एम जी वैद्य और शकुंतला वैद्य के संपर्क में आया। मलीन चन्द्रमा और माँ के सुख से दूर संजय सिन्हा को एमए की पढ़ाई के दौरान शकुंतला वैद्य ने पुत्र मान लिया और खुद को माँ बुलाने का मुझे सौभाग्य दिया। कभी लिखूँगा उनकी भी कहानी। पर अभी इतने से काम चला रहा हूँ कि वो दोनों कम्युनिस्ट विचार धारा के थे, उन्होंने मुझे कम्युनिस्ट विचार समझने के लिए रूस तक भेजा। उन्होंने ही मुझे पत्रकारिता में आने के लिए दिल से उकसाया। मैं मामा के पास रहता था, मामा को बहुत उम्मीद थी कि उनका भांजा आईएएस, आईपीसएस बनेगा। हालाँकि मामा खुद आईपीएस थे, लेकिन सरकारी रवैये से वो बहुत आहत थे। ऐसे में जब मैंने उन्हें पत्रकारिता की ओर जाने के बारे में बताया तो वो बहुत खुश हुए। उन्होंने भी इस बात की सराहना की।
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एमजी वैद्य से मिल कर मुझे लगता था कि पत्रकार वामपंथी होते हैं। क्योंकि जो सबके हक के लिए लड़ते हैं, जो सबकी आवाज बनते हैं, उनका वामपंथी होना जरूरी है। लेकिन मास्को में रहते हुए ही मेरा मन वामपंथ से ऊब गया था। मुझे हमेशा लगता था कि दुनिया के हर आदमी को गरीब बनाने की जगह दुनिया के हर आदमी को अमीर बनाना चाहिए। हालाँकि ये मेरा विषय नहीं है और मैं जानता हूँ कि इस पर लिखते हुए मैं फंस जाऊँगा।
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वैद्य सर मुझे भोपाल में दैनिक भास्कर के दफ्तर में ले गए। वहाँ संपादक थे, महेश श्रीवास्तव। दिन भर पान खाते और मुँह में पान लिए मीटिंग करते। मुझे पहले दिन ही बहुत कोफ्त हुई। मैं एक ब्यूरोक्रेट परिवार में पल रहा था और वहाँ पान वगैरह खाना, पान खाकर सबके सामने डस्टबिन में पुच्च से थूक देना ये सब अभद्रता की निशानी थी। दैनिक भास्कर में संपादक जी का पान खाना और पुच्च-पुच्च करना देख कर मन लिजलिजा सा हो गया। लेकिन मैंने देखा कि ज्यादातर पत्रकार पान या गुटखा खाते थे। दारू के बारे में क्या कहना?
मेरे मन में एक बात बैठने लगी कि अगर पत्रकारिता ही करनी है, तो राष्ट्रीय स्तर की करनी चाहिए।
मैंने जनसत्ता में नौकरी के लिए अंतरदेशीय पत्र पर यूँ ही लिख कर प्रभाष जोशी के नाम पोस्ट कर दिया। महीने भर बाद टेस्ट, इंटरव्यू, नौकरी और भोपाल से दिल्ली आना सब हो गया।
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जनसत्ता से नौकरी पर आने के लिए टेलीग्राम आया था कि आपका चयन हो चुका है, आप नौकरी ज्वॉयन करने आ सकते हैं।
मामा बहुत खुश थे।
एक शाम पुलिस का एक अधिकारी हमारे घर आया और साथ में एक फाइल लाया था। उसने मामा से कहा कि संजय जनसत्ता में नौकरी करने दिल्ली जा रहे हैं, लेकिन वहाँ काम करने वाले फलाँ पत्रकार फलाँ नेता के ‘पे रोल’ पर काम करते हैं।
मामा चौंके। पूरी फाइल उन्होंने पढ़ी। मुझे पहली बार मालूम हुआ कि राज्य स्तर पर भी खुफिया विभाग इस बात की जानकारी रखती थी कि कौन पत्रकार किस नेता के कितना करीब है, कौन किसके लिए काम करता है, किसे नौकरी के अलावा ऊपर पैसे मिलते हैं। खास तौर पर उनकी निगाहें पत्रकारों और नेताओं के गठजोड़ पर होती थी। मुझे नहीं पता कि ऐसी जानकारी से उन्हें क्या हासिल हुआ होगा, पर सच यही है कि मुझे बताया गया कि मध्य प्रदेश के इतने लोग वहाँ काम करते हैं, इनमें से फलाँ पत्रकार फलाँ नेता के लिए काम करते हैं।
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आज मैं इससे अधिक नहीं लिख सकता। वैसे मेरे पास कभी इस बात का प्रमाण नहीं था कि कोई ऐसा करता था या नहीं, न मैंने कभी उस तह में जाने की कोशिश नहीं की। पर ये सच है कि पुलिस की खुफिया फाइल में वो नाम दर्ज थे। मामा ने पहला पाठ पढ़ाया, “पत्रकारिता में बहुत से लोग राजनीतिक महात्वाकांक्षा लेकर जाते हैं, बहुत से लोग बिना सोचे विचारे राजनीतिक विचार धारा से प्रभावित होते हैं। तुम ऐसा मत करना।”
मैंने मामा को भरोसा दिलाया कि पत्रकारिता में रह कर मैं किसी राजनीतिक विचार धारा के करीब नहीं रहूँगा।
फिर मामा ने कुछ और सझाया, फिर कुछ और। फिर कुछ और।
सब लिखूँगा। पर अभी मामा की बातों से अधिक मेरी दिलचस्पी प्रभाष जोशी के साथ होने वाली बातचीत में है।
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गेस्ट रूम में प्रभाष जोशी के साथ मैं बैठा था। मैंने उनसे साफ-साफ कहा था कि आपने हड़ताल तुड़वाने के लिए मैनजमेंट की ओर से बात की, जो मुझे नागवार गुजरी थी। वो हैरान होकर मेरी ओर देख रहे थे। गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान की उस बैठक में कोने में बैठा कोई उप संपादक अपने सीने में उस बात तो छिपाए बैठा होगा, उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी। उन्होंने पूछा कि और क्या-क्या बुरा लगा?
मैंने कहा कि आप चुनिंदा लोगों से स्नेह करते थे, जो सही नहीं था।
उन्होंने कहा, “स्नेह तो मैं सबसे करता था, लेकिन आदमी दफ्तर में सबके करीब नहीं हो पाता।”
एक बार Sanjaya Kumar Singh और मैंने ने पटना के संवाददाता सुरेन्द्र किशोर जी से आपकी शिकायत की थी, तो आपने इंडियन एक्सप्रेस के गेस्ट हाउस में मीटिंग बुला कर हमें ‘नया खलीफा’ कहा था।”
“मुझे तो याद नहीं आ रहा कि मैंने ऐसी कोई मीटिंग की थी। वो भी तुम दोनों के कुछ कहे पर। वो तो मैं संजय सिंह और तुम्हें, दोनों को बुला कर ऐसे ही डाँट देता, मीटिंग की क्या जरूरत पड़ती?”
“हो सकता है, आप सही कह रहे हों। लेकिन हमारे मन में यही बात थी।”
“अगर मन में बात थी, तो मुझसे कहते।”
“आपका खौफ ही इतना था कि कोई कैसे कुछ कहता?”
“पत्रकार हो, धारणा बना कर रिपोर्टिंग नहीं कर सकते। न खबरें एडिट कर सकते हो। मैं पूरी जिन्दगी निष्पक्ष रहा।”
मैं चुप हो गया। मैं चाहता तो कह सकता था कि वीपी सिंह को प्रधान मन्त्री बनवाने के लिए आपने जितनी जोड़-तोड़ की थी, उसे तो मैंने अपनी आँखों से देखा है।
पर ये उस उम्र दराज आदमी के साथ उद्दंडता होती। मैं मुस्कुराता रहा।
उन्होंने पूछा, “मेरे लिए मन में कोई अच्छी बात भी है या…”
“मैंने पहली बार उन्हें सर कह कर संबोधित किया। “सर, आपके लिखे का कोई सानी नहीं। आप कैसे इतनी जल्दी इतना बढ़िया लिख लेते हैं?”
“लिखने का संबंध जल्दी और देर से नहीं। कई बार पूरी कविता या कहानी आदमी एक ही बैठक में लिख सकता है। कई बार घन्टों लग जाते हैं। जल्दी के कारण लिखा हुआ बुरा नहीं हो जाता, और समय लगा कर लिखने से लिखा हुआ उम्दा नहीं हो जाता। मैं तो हमेशा मानता रहा हूं कि तत्काल का दबाव ही सृजन को जन्म देता है। जो लोग पत्रकारीय लेखन को जल्दी में लिखा साहित्य कहते हैं, वो गलत कहते हैं। ऐसा सोचने वाले साहित्य और सृजन को नहीं समझते। तुम फटाफट लिख कर भी साहित्य रच सकते हो।”
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प्रभाष जोशी बहुत साफ बोलते थे। उस दिन मैंने उनसे दो और सवाल किए थे। उसके उस जवाब में पत्रकारिता का पूरा मानदंड छिपा है। ये भी छिपा है कि भारत में आजादी के आंदोलन से शुरू होने वाली पत्रकारिता कब वामपंथ की ओर मुड़ी और कब दक्षिण पंथ की ओर। कैसे इमरजंसी के बाद बनने वाली जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्रालय और सूचना प्रसारण मंत्रालय खास लोगों को देने की सिफारिश की गयी। क्या थे उसके मायने। कैसे वहीं कहीं छिपा था आज की पत्रकारिता का भविष्य। सब पर चर्चा हो सकती है। चर्चा इस पर भी हो सकती है कि तब पत्रकारों के दाँत दिखाने खाने और दिखाने के अलग-अलग क्यों थे।
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मैं जानता हूँ कि मैं लिखते-लिखते कहीं से कहीं पहुँच जाता हूँ। पर आपकी माफी का हकदार हूँ, क्योंकि आज भले आपको लगे कि मैं कहीं से शुरू होकर कहीं और पहुँच गया, पर आप कल, परसों की कड़ियों से इसे जोड़ेंगे तो आपको लगेगा कि मैंने कुछ बातें शुरू करके बीच में क्यों छोड़ी हैं, कुछ बातें बीच से शुरू करके उसे किनारे तक क्यों नहीं लाया। अभी के लिए इतना ही।
चलते-चलते कानपुर के सुनिल मिश्र की एक टिप्पणी को जस का तस अपनी आज की पोस्ट के साथ चिपका रहा हूँ। मुझे लगता है कि इसमें बहुत से सवालों के जवाब छिपे हैं।
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Sunil Mishra: “संजय भाई, मान लो किसी को पैसे देकर ये कहा जाए, ये पैसे वापिस नही लिए जाएँगे, वह शख्स उस पैसे के साथ बड़ी बेरहमी से पेश आएगा,, ऐसा ही कुछ हुआ था, जेपी के साथ सतत्तर में, इसके पहले सैंतालिस में गाँधी के साथ, हम भले ही समझने, समझाने को सात समंदर पार के देशों की कितनी भी मिसालें देते रहे हों, हमने सिर्फ मिसालें भर ही दी, कभी आत्मसात नही किया, हमसे कुछ दूरी पर इस्रायल एक बड़ा उदाहरण था, मगर हम अपनी आजादी को मुफ्त समझते रहे, लिहाजा जेपी के आंदोलन के बाद जेपी के सैनिकों को लगने लगा ये परिवर्तन उनकी वजह से है, ऐसे में परिवर्तन की बन चुकी लाखों इकाइयों को जेपी समझाते भी तो कैसे, जब संजय सिन्हा जैसे अबोध बच्चे को जेपी ने सामने पाया, तो उनके मुँह से सच निकल पड़ा, जो बात संजय को समझ आ गयी थी, दाढ़ी वाले शायद समझ कर भी नासमझी की जिद पर अड़े थे, रही बात पत्रकारिता के पेशे की तो अस्सी के दशक से ये धंधे की शक्ल में आकार लेने लगा था, आज की तारीख में ये चमकाते हुए व्यापार के रूप में सियासत के समकक्ष स्थापित है, जिसमें उस दौर के हारे हुए पलायित भले ही महानायक बनने कितना भी दावा कर ले फिर भी वो परिवर्तन के महानायक तो क्या कभी नायक भी नहीं हो सकते, आपने आज इन नायकों के दस्तवेज को करीने से बखिया किया है, यानी इतिहास का इतिहास लिख दिया है …।”
(देश मंथन, 04 जुलाई 2015)