नो नेक्स्ट प्रत्यूषा

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आलोक पुराणिक, व्यंग्यकार  :

उफ्फ जैसे खिलता हुआ फूल खुद को ही तोड़ ले और अलग कर ले जिंदगी से। 

प्रत्यूषा का जाना एक स्तब्धकारी घटना है, उसके पेरेंट्स, उसके दोस्तों के लिए भी। हम सबके लिए भी, उन सबके लिए भी, जिन्होने बालिका वधू का कोई एपीसोड ना देखा हो। प्रत्यूषा जैसी मौत फिल्म और सीरियल इंडस्ट्री में पहली नहीं है, आखिरी हो, ऐसी दुआ हम सब जरूर कर सकते हैं।

मैं किसी भी नये बच्चे या बच्ची को सफलता की सीढ़ियों पर तेजी से ऊपर भागते देखता हूँ, तो अंदर डर जाता हूँ। सफलता को हैंडल कर पायेगी या हैंडल कर पायेगा यह। सफलता बहुत बवाल लेकर आती है। बहुत बवाल, बहुत से ऐसे दुश्मन, जिन्हे आपने कभी सपनों तक में नुकसान पहुँचाने की नहीं सोची। बहुत से ऐसे पागल चाहनेवाले जो अपने चाहने से आपकी नींद तक हराम कर सकते हैं। ग्लैमर के पीछे नशेबाजी, ड्रग्स इस सबका सिलसिला शुरू हो जाता है। सफलता मेच्योर्ड कम ही करती है, बल्कि मेच्योर्टी को कमतर ही करती है।

रिश्तों को सहेज पाना, सफलता को सहेज पाना उम्र के साथ बंदा सीखता है। पर अगर सफलता पहले कम उम्र में आ जाये, तो वह परिपक्वता नहीं आ पाती, जो सफल जिंदगी ही नहीं, साधारण जिंदगी जीने की लिए भी बहुत जरूरी है। जिसको आप चाहें, वह आपके हिसाब से ना हो, ऐसा कई बार होता है। कई बार क्या अक्सर ही ऐसा होता है। उम्र एक वक्त के बाद यह समझा देती है कि जिंदगी हर मामले में आपको अपनी शर्तों पर जीने के मौके नहीं देती, कई बार सिर्फ समायोजन से काम चलाइये। पर कम उम्र में सफल लोगों की आफत यह होती है कि वह हर बात में अपनी समझ को फाइनल मानते हैं, क्योंकि एक क्षेत्र में वो सफलता हासिल कर चुके होते हैं। फिल्म इंडस्ट्री और सीरियल के ग्लैमरी कारोबार में चमकते चेहरों के पीछे गहरी असुरक्षा होती है। कम उम्र में सफल बच्चे अपने पेरेंट्स को भी डपटते हैं।

मुझे लगता है कि हर इंडस्ट्री के बच्चों को लाइफ स्किल्स, जिंदगी के बारे में पढ़ाया-बताना जाना जरूरी है। यह काम हमारे यहाँ नहीं होता। एकदम नहीं होता। स्कूलों कालेजों में नहीं होता। जरूरी है किया जाये। रिश्तों में अगर कुछ नहीं बचा है, तो आदरपूर्वक विदाई देना-लेना भी सिखाया जाना चाहिए। प्यार की इंटेन्सिटी लंबे समय तक एक जैसी ही हमेशा रहे, जरूरी नहीं है। विदाई लेना-देना आम तौर पर नये बच्चे ढंग से नहीं सीखते। एक्सट्रीम पर जाकर जान दे देते हैं या फिर ले भी लेते हैं। यह त्रासद है। प्रत्यूषा जा चुकी है। पर कुछ ऐसा हो कि भविष्य में प्रत्यूषा जैसी कोई मौत सामने ना आये। फिल्म इंडस्ट्री, सीरियल इंडस्ट्री अपने नये बच्चे कलाकारों के लिए कुछ ऐसे इंतजाम करे, कुछ ऐसे कोर्स चलाये, जिनसे ये बच्चे सफलता, रिश्तों को सहेजने में समर्थ हों।

पर, पर मैं जानता हूँ कि फिल्म इंडस्ट्री और सीरियल इंडस्ट्री इतनी नोट-केंद्रित इंडस्ट्री है कि ऐसा कुछ वहाँ नहीं होनेवाला है। सामाजिक संस्थान कुछ करें, श्री श्री रविशंकर का आर्ट आफ लिविंग सिखानेवाला संस्थान कुछ करे। कुछ होना जरुरी है। फिल्म इंडस्ट्री, सीरियल इंडस्ट्री के इन बच्चों को सिर्फ फिल्म-सीरियलवालों के हवाले नहीं छोड़ा जा सकता।

वैधानिक चेतावनी-यह व्यंग्य नहीं है

(देश मंथन, 05 अप्रैल 2016)

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