न हादसे के पहले, न हादसे के बाद!

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क़मर वहीद नक़वी, वरिष्ठ पत्रकार :

टीवी की भाषा में इस लेख की टीआरपी शायद बहुत कम हो! क्योंकि असली मुद्दों में कोई रस नहीं होता! उन पर लोग लड़ते नहीं, न उन पर उन्हें लड़ाया जा सकता है! 

भला फीके, नीरस, बेस्वाद, बदरंग, बोझिल, उबाऊ, भारी-भरकम गंभीर सच पर भी कोई लड़ सकता है? पहले के जमाने में राजे-रजवाड़ों वाले लोग मजे के लिए मेढ़े, मुर्गे और बटेर लड़ाया करते थे! आजकल राजनीति के लिए जनता को लड़ाते हैं!

जनता फर्ज़ी मुद्दों पर खूब लड़ती है! वह न गम्भीर बात पर लड़ती है, न गम्भीर बात पढ़ती है! इसलिए यह लेख ‘बोर’ लगे तो पढ़ने की कोई मजबूरी नहीं है! हालाँकि इसे पढ़ना बेहद ज़रूरी है!

पता नहीं, इतिहास में नास्त्रेदमस सचमुच हुए थे या नहीं! लेकिन अपने देश का कोई सरकारी विभाग अगर भविष्यवाणी करने में नास्त्रेदमस के भी कान काट ले तो? ऐसा हुआ! लेकिन फिर क्या हुआ? अरे होना क्या है? गंभीर चीज है न! किसे इतनी फ़ुर्सत है इन ‘बेकार’ की बातों में पड़ने की? इसलिए हैरान मत होइए कि जम्मू-कश्मीर में आज जो बाढ़ आयी है, इसकी भविष्यवाणी वहाँ के बाढ़ नियंत्रण विभाग ने चार साल पहले कर दी थी। बिलकुल साफ-साफ! उन्होंने कहा था कि अगले पाँच साल में श्रीनगर शहर में भयानक बाढ़ आ सकती है; झेलम नदी से डेढ़ लाख क्यूसेक पानी बह कर श्रीनगर के ज़्यादातर हिस्सों को अपनी चपेट में ले सकता है; अनन्तनाग से बारामूला के बीच के इलाकों में भारी बाढ़ आ सकती है; श्रीनगर-जम्मू राजमार्ग बह सकता है और घाटी का संपर्क देश से कट सकता है!

मतलब ‘विकास’ हो चुका है!

ऐसा लग रहा है, जैसे यह रिपोर्ट बाढ़ आने के बाद आज लिखी गयी हो! इसे पेश करने वालों को तब ‘जोकर’ तक कह दिया गया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि 1892 की बाढ़ के बाद अंग्रेजों ने श्रीनगर और आसपास के इलाकों में बाढ़ के पानी की निकासी के लिए नाले- नालियों की जो व्यापक व्यवस्था की थी और ‘वेटलैंड’ के नाम पर जो जमीनें छोड़ी थीं, वह सब आज लापता हैं। उन पर घर, बाजार, शॉपिंग कॉम्पलेक्स बन चुके हैं। श्रीनगर से पानी बाहर निकलने का न कोई रास्ता बचा है, न कोई ऐसी जगह जहाँ यह पानी जमा हो सके। सोपोर और बारामूला के बीच झेलम की तली से कीचड़ की सफाई आखिरी बार चौंसठ साल पहले 1950 में हुई थी! आप चौंके कि नहीं!

यही नहीं, छह साल पहले सन् 2008 में राज्य की रिमोट सेन्सिंग और जीआईएस प्रयोगशाला ने भी सेटेलाइट तस्वीरों के अध्ययन के बाद अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 1911 से 2004 के बीच के करीब 93 सालों में श्रीनगर के आधे से ज्यादा जलाशय और खाली पड़ी दलदली जमीनें खत्म हो चुकी हैं, वहाँ सड़कें और कालोनियाँ बन चुकी हैं, अवैध कब्जे कर उन्हें पाटा जा चुका है, बड़े पैमाने पर निर्माण कार्य हो चुका है! मतलब ‘विकास’ हो चुका है!

पर्यावरण से पैसा तो मिलेगा नहीं!

तीन साल पहले योजना आयोग ने पहाड़ी इलाकों में विकास, इन्फ्रास्ट्रक्चर और पर्यावरण संतुलन को लेकर एक टीम गठित की थी। टीम ने उत्तराखंड त्रासदी का भी अध्ययन किया और साफ-साफ चेतावनी दी कि पहाड़ों में बढ़ रही अंधाधुंध भीड़ और अवैज्ञानिक तरीके से किये जा रहे निर्माण कार्यों के भारी दबाव से स्थानीय पर्यावरण को बहुत नुकसान पहुँच रहा है, जिससे सम्भवतः दैवी आपदाओं की बारम्बारिता बढ़ती जा रही है! लेकिन यह ‘दैवी’ आपदाएँ कहाँ हैं? यह तो पर्यावरण बेच कर खरीदे गये दानवी विकास का अट्टहास है! हिमालय के ग्लेशियरों की नाज़ुक हालत और भविष्य में उससे होने वाले खतरों पर पिछले बीस-पच्चीस सालों में न जाने कितने शोध हो चुके हैं लेकिन कौन सुनता है इन बातों को। मान लिया जाता है कि यह सब ‘विकास-विरोधी’ एनजीओवादी हल्लेबाजी और धन्धेबाजी है! और विकास बड़ा कि पर्यावरण? आखिर पर्यावरण से पैसा तो मिलेगा नहीं!

हाल के वर्षों में पहाड़ों में होनेवाली प्राकृतिक दुर्घटनाओं की संख्या तेजी से और लगातार बढ़ी है। उत्तराखंड की भयावह त्रासदी के बावजूद पहाड़ों में सब कुछ वैसा ही अंधाधुंध चल रहा है! किसी ने कुछ नहीं सीखा! अभी दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरन्मेंट (सीएसई) ने अपनी ताजा रिपोर्ट में बताया है कि देश में मौसम के अतिवाद की घटनाएँ भयावह रूप से बढ़ गयी हैं। 1900 के दशक में जहाँ मौसम की अति की केवल दो-तीन घटनाएँ हर साल होती थीं, वहीं अब साल में करीब साढ़े तीन सौ ऐसी घटनाएँ हो जाती हैं, जहाँ हमें मौसम की अति झेलनी पड़ती है! इसी के चलते पिछले दस सालों में देश में चार विकराल हादसे हो चुके हैं। 2005 में मुंबई, 2010 में लेह, 2013 में उत्तराखंड और अब जम्मू-कश्मीर में वर्षा की अति से आयी तबाही! क्या आपको इससे भी बड़े कुछ और सबूत चाहिए, यह मानने के लिए कि कहीं कोई गड़बड़ है

चेतावनियों को दुत्कारने की आदत

गड़बड़ है, तो इसे नकारते रहिये क्योंकि इससे विकास और अर्थ का अश्वमेध रूकता है! इसलिए चेतावनियों को दुत्कारने की आदत पड़ गयी है हमको और चेतावनी देनेवाले भी अक्सर मुँह ढक कर सो जाते हैं। मौसम विभाग ने पिछले साल उत्तराखंड में भयानक वर्षा और भूस्खलन का अंदाज लगा लिया था लेकिन राज्य सरकार को खबर ही नहीं हो पायी। मौसम विभाग ने सरकार को फैक्स भेज कर छुट्टी कर ली। किसी ने उसे देखा नहीं क्योंकि शनिवार के कारण दफ्तर जल्दी बंद हो गये थे! बाढ़ की स्थिति पर नज़र रखने वाले केन्द्रीय जल आयोग की ओर से भी कोई चेतावनी नहीं आयी तो सारे तामझाम के बावजूद पता तब चला, जब उत्तराखंड में तबाही आ गयी! इस बार जम्मू-कश्मीर के मामले में भी मौसम विभाग ने भारी से लेकर बहुत घनघोर बरसात की भविष्यवाणी की थी लेकिन केन्द्रीय जल आयोग जम्मू-कश्मीर की नदियों के जलस्तर की निगरानी ही नहीं करता है, इसलिए ऐसी भयानक स्थिति का अनुमान नहीं लग सका! तो उत्तराखंड के हादसे से क्या सबक सीखा गया? कुछ नहीं!

वैसे, जम्मू-कश्मीर सरकार का कहना है कि उसने लोगों से सुरक्षित जगहों पर चले जाने की कई अपीलें कीं, पुलिस की गाड़ियों से और मस्जिदों से लाउडस्पीकर पर बार-बार ऐलान कराये, लेकिन लोग अपनी जगहों से हिले ही नहीं। शायद उन्हें मौसम विभाग की चेतावनी पर भरोसा ही नहीं था! और राज्य सरकार को भी अपनी इस चेतावनी पर कितना भरोसा था? खुद मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने एक इंटरव्यू में कहा कि बाढ़ के शुरू के 24-36 घंटों में तो कोई सरकार थी ही नहीं! वह एक कमरे में पाँच-छह अफ्सरों के साथ हालात से जूझ रहे थे। क्योंकि सरकार का सचिवालय, पुलिस के दफ्तर, फायर ब्रिगेड, अस्पताल सब बाढ़ से घिरे थे। फोन बंद थे। मंत्रियों तक का पता नहीं था कि कौन, कहाँ है। इसलिए राहत का काम शुरू होने में देरी हुई! सवाल यह है कि जब नागरिकों से सुरक्षित जगहों पर जाने की अपीलें की जा रही थीं तो सरकार ने पहले अपने आपको, अपने तंत्र को सुरक्षित जगहों पर ले जाने की जरूरत क्यों नहीं समझी? इसलिए कि चेतावनी को वैसी गंभीरता से नहीं लिया गया, जितनी गंभीर वह थी! बस कह कर निकल गये कि हम तो बरसात रोक नहीं सकते! 

कल की जिम्मेदारी किसकी?

तो मौसम और पर्यावरण पर यह है हमारा रवैया। कोई चेतावनी, कोई त्रासदी हमें डराती नहीं, जगाती नहीं, झिंझोड़ती नहीं। न हादसे के पहले, न हादसे के बाद! सरकार महाराज में जो भी बैठे, पर्यावरण को लेकर काहे को चिन्ता करे। उसे आज जो करना है, कर लें। पर्यावरण बिगड़ेगा तो बिगड़े। उसका नतीजा सामने आते-आते बीस-तीस-चालीस साल लगेंगे. तब तक कौन कहाँ होगा, कौन कहाँ, कौन जानता है। इसीलिए पर्यावरण मंत्रालय आज खुद अपनी पीठ ठोक रहा है। सरकार के पहले सौ दिनों में मंत्रालय ने 240 प्रोजेक्ट मंजूर कर दिये! इतनी तूफ़ानी रफ्तार का नतीजा क्या होगा, समझ सकें तो समझ जाइए। आज तो अखबार में यही छपेगा कि विकास हो गया। कल तबाही होगी तो हो। कल की जिम्मेदारी आज वालों की तो है नहीं! (raagdesh.com)

(देश मंथन, 13 सितम्बर 2014)

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