क़मर वाहिद नक़वी, वरिष्ठ टीवी पत्रकार :
कागज का आविष्कार न हुआ होता, तो सरकारें कैसे चलतीं? दिलचस्प सवाल है! कल्पना कीजिए। आप भी शायद इसी नतीजे पर पहुँचेंगे कि कागज के बिना सरकार चल ही नहीं सकती!
कागज ने सरकार के काम को कितना आसान बना दिया है! कागज न होता तो भला कागजी ख़ानापूरी कैसे होती? और कागजी खानापूरी न होती, तो सरकारें कैसे चलतीं? ख़ासकर अपने देश की सरकारें!
वैसे लोग कह रहे हैं कि कागज का दौर जल्दी ही ख़त्म होने वाला है। सब डिजिटल हो रहा है। तो क्या हुआ? डिजिटल दौर में सरकार अपने लिए ‘डिजिटल कागज’ बना लेगी! क्योंकि वह काग़ज़ के बिना चल ही नहीं सकती!
थोड़ा लिखा, बहुत समझना!
पहले के जमाने में भोजपत्र हुआ करते थे, जिन पर लोग लिखा करते थे। बड़े-बड़े ग्रन्थ लिखे गये भोजपत्र पर पुराने मिस्र में पपायरस हुआ करता था। एक पेड़ की छाल से बनता था, जिसका इस्तेमाल लोग लिखने, चित्र बनाने के काम में करते थे। आज भी मिस्र के बाज़ारों में आप इसे ख़रीद सकते हैं। राजा के आदेश बिलकुल पक्के रहें, इसके लिए कभी-कभी ताम्र पत्र पर भी लिख दिये जाते थे।
लेकिन लिखने के यह सब उपकरण तब अपने समय के हिसाब से बहुत महँगे हुआ करते थे, बड़ी मेहनत और समय भी लगता था इन्हें तैयार करने में, इसलिए राजाओं, महाराजाओं, सम्राटों, बादशाहों, नवाबों के दौर में सरकारी आदेश कम लिखे जाते थे, और जो लिखे भी जाते थे, वह भी बहुत थोड़े में, बहुत छोटे।
सरकार थोड़ा लिखती थी, जनता ज़्यादा समझती थी! अभी कुछ साल पहले तक, जब तक लोग पोस्टकार्ड पर चिट्ठियाँ लिखते थे, तो चिट्ठी अमूमन इसी जुमले के साथ पूरी की जाती थी, थोड़ा लिखा बहुत समझना! हमारे बचपन में शायद एक आने का पोस्टकार्ड हुआ करता था. वही बहुत महँगा लगता था. इसलिए लोग थोड़ा लिखा करते थे, लेकिन पढ़ने वाला उसे ‘ज़्यादा’ समझ लिया करता था! राजा से लेकर रंक तक, एक वह भी दौर था, थोड़ा लिखा बहुत समझना!
बलात्कार और कागज के कानून
आज कागज का जमाना है। बड़ी-बड़ी फैक्टरियों में बनता है, सस्ता भी है, आसानी से बन भी जाता है, भले ही पेड़ों को ख़त्म करके बनता हो! इसलिए सब खूब लिख रहे हैं, खूब किताबें छप रही हैं, खूब अख़बार छप रहे हैं, खूब सरकारी क़ानून बन रहे हैं, दफ़्तरों में, पुलिस थानों में, रिसर्च संस्थानों में, अदालतों में फाइलों पर फाइलों के ढेर हैं, बहुत लिखा जा रहा है। तो अब जुमला उलट गया लगता है, बहुत लिखा थोड़ा समझना या कुछ नहीं समझना!
दिल्ली में फिर एक बलात्कार पर हंगामा है। दो साल पहले ‘निर्भया’ कांड ने देश को झकझोर दिया था। पूरा देश सड़कों पर आ गया। कड़ा कानून बने। सरकार हिल गयी। कड़ा क़ानून बन गया। काग़ज़ ने अपना काम कर दिया। लेकिन किसी ने कुछ नहीं समझा, कोई नहीं डरा, बलात्कार होते रहे।
मुम्बई में एक पत्रकार के बलात्कार से देश फिर सन्न रह गया, लेकिन कहीं कुछ नहीं बदला। नेताओं के ऊँटपटाँग बयान आते रहे, लड़कों से बलात्कार ग़लती से हो जाता है, ईश्वर भी बलात्कार नहीं रोक सकता है, बलात्कार ‘इंडिया’ में होता है, ‘भारत’ में नहीं?
उधर, खाप पंचायतें अपना ‘आइक्यू’ दिखाती रहीं, लड़कियाँ जीन्स न पहनें, मोबाइल फ़ोन न रखें। लेकिन बलात्कार नहीं रुके, न शहरों में, न गाँवों में. और गाँवों में बलात्कार हुए, तो अक्सर पंचायतें बलात्कारी को ‘दो थप्पड़’ लगा कर मामले को निपटा देने के फ़ैसले सुनाती रहीं।
मोदी जी आये, चुनाव प्रचार में वह भी बहुत दहाड़े थे, और उनका प्रचार अभियान भी बहुत दहाड़ा था कि माँ-बहनों की सुरक्षा चाहिए तो लाओ मोदी सरकार!
तो सरकार तो आ गयी, सात महीने भी हो गये. माँ-बहनों की सुरक्षा के लिए इन सात महीनों में सरकार ने कौन-कौन-से क़दम उठाये, किसी को पता हो तो बताये।
बलात्कारी बैठे ठाले डरने लगेंगे क्या?
अब दिल्ली फिर एक बलात्कार से दहल उठी है, जो आरोपी है, उसके ख़िलाफ़ बलात्कार और छेड़छाड़ के कई मामले अब सामने आ रहे हैं। आरोप है कि वह कई महिलाओं से बलात्कार कर चुका है।
जाहिर है कि उसे किसी का डर नहीं था, न कानून का, न पुलिस का, न अदालत का। वह यहाँ दिल्ली में टैक्सी चलाता था। यहाँ ‘निर्भया’ कांड पर क्या हुआ, उसने देखा, अदालत का क्या फैसला आया, यह भी उसे मालूम ही होगा, मुम्बई के शक्ति मिल कांड में अदालत का क्या फैसला आया, यह भी उसे मालूम ही होगा।
फिर भी उसे कोई डर नहीं था, उसे लगा कि वह पकड़ा नहीं जायेगा। बलात्कार के मामले में वह 3 साल पहले भी पकड़ा गया था. लेकिन बच निकला।
ज़ाहिर है कि बलात्कार का कड़ा क़ानून बन गया, सब कुछ हो गया, लेकिन उसका डर किसे? लाख टके का सवाल यही है, डर क्यों नहीं है? इसलिए कि सरकार ने कागज़ी कार्रवाई पूरी कर दी, और बैठ गयी।
क़ानून बन गया भाई, हम जो कर सकते थे, कर दिया, बस! बलात्कारियों को फाँसी होने लगेगी, उम्र कैद होने लगेगी, तो बलात्कारी डरने लगेंगे। अरे, डरेंगे तब न जब उन्हें पकड़े जाने का डर हो!
लोग कड़े क़ानून से डरें, इसके लिए सरकार ने क्या किया? क्या लोगों में कानून का डर बैठाने के लिए कोई प्रचार अभियान कहीं चलाया गया? पुलिस मुस्तैद रहे, लोगों में डर हो कि पुलिस उन्हें पकड़ भी सकती है, इसके लिए सरकार ने क्या किया?
बलात्कार के जो मामले पुलिस तक पहुँचें, उनकी सही तरीक़े से जाँच हो, इसके लिए कहाँ, किस सरकार ने क्या किया? बलात्कार पीड़ित और उसके परिवार को मुक़दमे के दौरान आरोपी डरा-धमका न सकें, इसके लिए सरकार ने क्या किया?
कानून के सिवा कुछ नहीं बदला
क़ानून बनाने के अलावा सरकार ने क्या किया? कुछ भी नहीं. तो जब क़ानून के सिवा कहीं कुछ न बदला हो, तो हालात में सुधार कैसे हो सकता है? जब कोई अगला बलात्कार होगा, फिर हंगामा मचेगा, फिर कुछ एलान हो जायेंगे और फिर कुछ कागजू ख़ानापूरी हो जायेगी और देश चलता रहेगा!
अब शिवकुमार को ही सरकार का डर नहीं, तो अमेरिकी कम्पनी उबर को या उस जैसी दूसरी कम्पनियों को क्यों किसी का डर हो? जो अब तक अपने ‘पढ़े-लिखे’ और ‘नेट सैवी’ ग्राहकों को एक ‘नक़ली सुरक्षा’ का धोखा बेच रही थीं।
क्योंकि इन्हें मालूम है कि यहाँ जब तक कोई कांड न हो, न कोई जाँच होगी, न पड़ताल! और न यहाँ किसी का कभी ध्यान जायेगा कि नये-नये पनप रहे बिजनेस माडलों के लिए नये नियम और नयी निगरानी की व्यवस्था ज़रूरी है। इसलिए इन कम्पनियों को भला काहे की चिन्ता?
पिछले महीने ही एक महिला ने उबर को इसी शिव कुमार के ख़िलाफ बाकायदा एक मेल भेजी। किसी ने उस मेल को पढ़ा ही नहीं! क्योंकि कम्पनी को सीधा मतलब अपने कमीशन से था, जो उसे ड्राइवरों से मिलता है!
अब सरकार की नजर इस तरह की टैक्सी कम्पनियों पर गयी है। उन पर रोक लगायी जा रही है। कुछ दिन में कुछ नये नियम बन जायेंगे, टैक्सी कम्पनियाँ फिर से काम करने लगेंगी। सब कुछ सामान्य हो जायेगा, सब कुछ यथावत चलने लगेगा, बलात्कार होते रहेंगे, क्योंकि बलात्कार के ख़िलाफ़ जो ठोस क़दम उठने चाहिए, वह कभी उठेंगे ही नहीं।
क्योंकि सरकारें ठोस क़दम उठा कर नहीं, बल्कि सिर्फ़ कागजों पर चलती हैं, क्योंकि यहाँ सब चलता है! जनता भी काग़ज़ पढ़ती है और अपनी राह चल देती है! दहेज और भ्रूण हत्याएँ रोकने के लिए भी कठोर कानून हैं, लेकिन अपने दिल पर हाथ रख कर बताइएगा कि कभी आपको इन क़ानूनों से कोई डर लगा? नहीं न! तो फिर शिवकुमार ही क्यों डरे? (raagdesh.com)
(देश मंथन, 15 दिसंबर 2014)